संस्मरण — “मैं ही हूँ भावना”
ट्रेन रवाना होने वाली थी। पतिदेव ने रिजर्व सीट को ढूंढा। बेटा साथ में था। बेटियों का बेस्ट ऑफ लक कहना साथ था। पतिदेव भी साथ आने की बहुत जिद ठाने थे मगर मैं ही उनको रोके रही। उनका बहुत जरूरी केस था जिसकी आखिरी
जिरह करनी थी। यूं भी मैं उनको अधिक परेशान नहीं देख पाती…कितना थका देने वाला पेशा है वकालत। उनके साथ आ जाने से सारे काम रुक जाएंगे और फिर पहली बार तो जा नहीं रही कहीं। सीट पर बैठा चुकने के बाद भी वे साथ आने
की कहने लगे। बहुत समझाने के बाद वे बाय कहे और निकल गए। बहुत दूर तक ट्रेन निकल जाने पर भी उनका हाथ हिलाकर विदा करना हर पल साथ होने का अहसास करा रहा था।
टे्रन की गति के साथ गंतव्य नजदीक आ रहा था मगर मैं यादों में पीछे लौट रही थी। अपने नाम पर गुमान करने वाली मैं कुछ और नाम सोच रही थी स्व का। नाम में बहुत अपनापन होता है संगीता में संगीत का बहुत गहरा अहसास है लेकिन मैंने तो कुछ और ही सोच रखा था। तब से जब कुछ लिखने का खयाल आने लगा था। कुछ ऐसा जो अपनेपन में कुछ और अपनत्व भर दे। बहुतों के नाम चुराने की सोची। मन ही मन बहुत उपनाम रखे थे। अपनत्व भी था लेकिन उनका अपना मेरा नहीं। भावुक हो रही थी वह भी नाम को लेकर। यह भी सोच रही थी बाऊजी अच्छा नाम ही तो रखे हैं फिर क्यों दूसरा नाम रखें। और फिर एक दिन ‘भावना’ नाम रख लिए जिसकी पूरी कहानी ही दिलचस्प रही। जब भी टे्रन में बैठती हूं फिर वहीं पहुंच जाती हूं जहां से खुद ही खुद का ‘नामकरण संस्कार’ किया था। मैं ‘भावना’ हुई फिर संगीता सिंह हुई और फिर
संगीता सिंह ‘भावना’ हुई।
तब बहुत नहीं तो मैं उन्नीस या बीस के आस पास की रही होगी। शादी के बाद पहली बार गया जा रही थी पीहर। बाबूजी की बहुत याद आ रही थी। पलक झपकते ही पहुंच जाने की ख्वाहिशों में एक होता है पीहर जाना। मेरी भी थी मगर गाड़ी के पहिये बेल हांकते हों ऐसा प्रतीत हो रहा था। सब अच्छा ही अच्छा था फिर भी मन कुछ विचलित था। लिखने का पेड और कलम साथ ही रखती थी सो निकाल लिया लिखने लगी। स्मृतियों को लिखना बहुत दर्द देता है इस लिए वह छोड़कर सब
लिखना मेरा शगल बना हुआ था। खिड़की से बाहर झांक-झूंक लगा लेती। पतिदेव को देख लेती। सामने वाली सीट पर बैठी एक बजुर्ग भी जानी पहचानी थी मगर बस नजरें मिल जाए इतना सा परिचय हो पा रहा था। कलम बंद करती फिर चलाती चार पांच कागज श्याम किए फिर बंद कर दिया लिखना।
उस महिला का यूं बार-बार देखना सुखद अहसास करवाने के साथ कुछ डरा रहा था। कहीं गांव की तो नहीं है। कांधे पर गिरा पल्लु सिर पर रख लिया। वह मुस्कुराई मैं झेंप गई। इस बीच एक बार भी मुंह से ना मेरे शब्द फूटे ना पतिदेव के जो पहली बार मेरे पीहर जा रहे थे वह भी मेरे साथ। उनकी मन: स्थिति का मुझे अंदाजा था और मेरी मन की पीड़ा का अहसास उनको। एक घंटे के सफर के बाद टे्रन रुकी तो साहब बोले, ‘कुछ खा लो बाऊजी के मिलने की खुशी में घर से यूं ही निकल आई और अब तो भूख लग गई होगी।’ मैं बाहर का खाना पसंद नहीं करती उनको पता है ना उनको खाने देती..घर से ही पांच पराठे बांध लाई थी आचार के साथ। टिफिन खोलकर रख लिया दोनों के बीच और चिडिय़ा की तरह दाने सा चुगने लगी। पतिदेव भी साथ दे रहे थे सिर्फ मेरा मन रखने को भूख ना उनको थी ना मुझे।
सफर भी चलता रहा और यादें भी। बहुत यादें होती है जो अच्छी भी होती है बुरी भी। बुरी ही क्यों पास आती है सोच ही रही थी कि सामने बैठी बुजुर्ग ने प्रश्न कर दिया, क्यों बेटी पीहर जा रही हो…? क्या कहती हां के लिए भी बस गर्दन को हिला दिया। पता नहीं कैसे उसको मुझ पर इतना स्नेह आया कि मेरे पति से बोलकर वे मेरी ओर आ गई और पतिदेव उनकी तरफ जा बैठे। बहुत देर की चुप्पी के बाद वे ही बोली, बेटी लिखने को शौक है तुम्हें…मैं चुप फिर बोली, देख रही थी लिखती जा रही थी और फेंकती जा रही थी। मैं फिर भी चुप…आखिर उसकी वह बात मुझे गहरे तक छू गई जो आज तक मैंने किसी बड़े से बड़े लेखक से नहीं सुनी थी। बहुत प्यार से सिर पर हाथ रखकर बोली, बेटी लिखो मगर जो लिखा है अच्छा नहीं लगे तो उसको फेंको भी मत क्योंकि खराब लिखा भी आपको प्रेरणा ही देता है…और खुद की नजर में अच्छा लिखा हुआ भी कई बार यूं लगता है काश कि यह मैंने नहीं लिखा होता।
मैं नतमस्तक सी हो गई उनकी इस बात से। मैंने अपना परिचय दिया और बताया कि मैं ‘भावना’ नाम से लिखती हूं और मेरा नाम संगीता है। वे बहुत गौर से मुझे सुनती रही जब मेरी बात पूरी हो गई तब वे बोली, ‘भावना क्यों संगीता में क्या बुराई
है?’
मैंने कहा, ‘ मेरी प्रेरणा है भावना जी जिनका नाम मैंने रख लिया और उनके ही नाम से लिखती आई हूं लोग भी मुझे इसी नाम से जानते हैं।’
वे बोली, ‘लोग तुम्हें किस नाम से जानते है यह अलग बात है तुम खुद क्या हो और कौन हो यह पहचानो क्या कभी कोशिश की है कि मां या पिता ने जो नाम तुम्हें दिया है उसमें कितना दुलार रहा होगा उनका अब भी है ही तो क्या उनको भुला सकती हो.. नहीं ना तो उनका नाम क्यों भुला रही हो… क्या तुमने अपनी पहचान खुद बनाई है और बनाई भी है तो क्या मूल को भुलाया जा सकता है।’
मैं उनकी बातों को दिल से सुन रही थी लग रहा था जैसे साक्षात मेरी मां मुझे समझा रही हो दुलार रही हो। उन्होंने आखिर प्रश्न दागा, अच्छा बताओ तुम भावना नाम से क्यों लिखती हो इसलिए कि भावना तुम्हारी प्रेरणा है…। इस बार मैं सोच में पड़ गई। क्या वाकई ऐसा ही है कि मैं इस नाम से प्रेरित होकर लिख रही हूं इस नाम से जबकि लेखन तो मेरा खुद का है भावनाएं
मेरी खुद की है। हां कि मेरे लेखन में भावुकता के सिवाय कुछ नहीं होता लेकिन भावना नाम क्यों रखा कुछ और क्यों नहीं…बहुत सारे प्रश्न आ जा रहे थे। उधर हमारी बातों में पतिदेव भी गहरे से रस ले रहे थे। अब मैंने अपनी मूल बात को आगे बढाया जो अब तक मैं शायद छिपा रही थी या छिपाने की कोशिश कर रही थी और वो उतना ही उघड़ती जा रही थी।
मैं बहुत लम्बा बोलने वाली थी इस लिए गला साफ किया और कुछ कहने को हुई तो उन्होंने पानी पकड़ा दिया एक ही सांस में पानी पी चुकने के बाद मैं बोली, ‘ असल में मैं बहुत पहले से ही लिखती आ रही हूं लेकिन मुझे कहीं ना कहीं यह लगता था कि मैं जो लिखती हूं छपे ही नहीं..या छप जाए तो वह पढेगा कौन इस लिए एक दिन खुद ही लेखिका भावना संगम जी का भावना मैंने ले लिया और उस नाम से लिखने लगी। छपने लगा तो अच्छा लगा कि चलो छप रहा है कभी पता नहीं दिया कि लोग क्या कहेंगे लेकिन बहुत अच्छा अहसास होता था कि यह मैंने लिखा है चाहे नाम किसी का हो…प्रतिक्रिया देखकर तो बहुत ही खुशी होती थी बस वह दिन था और आज का दिन मैं लिखती आ रही हूं ‘भावना’ के नाम से।’ कहते कहते मेरी आंखें नम हो गई थी।
उन वृद्धा को मेरी इस बिना तारतम्य की बात में रस भी आ रहा था और मुझ पर दुलार भी। पहली बार अपनी भावनाएं बिना रुके एक सांस में कह गई थी मैं। उनका हाथ मेरे सिर पर दुलार से चल रहा था और बहुत देर बाद वे बोली,’ क्या तुम भावना संगम को जानती हो, उसे देखा है…जो उसका नाम इतना ऊंचा कर दिया बिना ही किसी स्वार्थ के।’
हमने गर्दन नकारात्मक इशारे में हिला दिया, लग रहा था और कोई होता तो मैं फूट फूटकर रो देती। वे ‘बोली मिलना चाहोगी ‘भावना संगम’ से…?’ मैंने हां में गर्दन हिलाई तो वे बोली, ‘मिल लो मैं ही हूं भावना संगम…’
मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या माजरा है…फिर उन्होंने अपना परिचय पत्र दिखाते हुए कहा, यकीन नहीं आ रहा हो तो देख लो। बहुत देर तक मेरे हाथ में परिचय पत्र था जिसे मैं देखती जाती और उनके चेहरे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सपना है या वास्तविकता। मेरी प्रेरणा स्वयं मेरे सामने थी, जिनका नाम मैं ओढ़े रही वे मेरे सामने थी। कुछ कहते बन रहा था ना सोचते बस शून्य सी हो गई। वे ही बोली, ‘बेटी तुम बहुत अच्छा लिखती हो और जो लिखती हो वह सिर्फ तुम्हारा है…अपना स्व खोजो, नाम में कुछ नहीं रखा। संगीता को मूल रखो नहीं तो कहीं खो जाओगी और जब कोई तुम्हें पुकारेगा तब तुम्हें अहसास होगा कि शरीर से आत्मा आत्मा अलग हो गई है। और भावना तो तुममें है उसे भी अलग मत करो बस साथ रखो. तुम मुझे प्रेरणा मानती हो ना मतलब गुरु तो मुझे वचन दो खुद के साथ मुझे रखोगी।’
बहुत अच्छा लग रहा था उनको सुनना वे रुकी तो मुझे लगा कि वे क्यों रुकी बोलती रहती और मैं सुनती रहती। पतिदेव भी हमारी बातों में खोये थे जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं था लेकिन बहुत अच्छे श्रोता की तरह सुन रहे थे मुस्कुरा रहे थे गंभीरता से। मैंने उठकर अब तक जो मेरे लिए अनजान थी मेरी अंतरात्मा मेरी प्रेरणा गुरु ‘भावना संगम’ जी के चरणों में गिर गई। उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और और बोली थी ‘कभी मिलूंगी तुम्हें तब बस संगीता के रूप में मिलना क्योंकि भावना तो मैं हूं तुम्हारी…।’ इस बीच कितने स्टेशन आए और चले गए कुछ पता नहीं चला। अब तक शायद मोबाईल पर गेम खेल रहे बेटे ने झकझोरा बोला, ‘मम्मी हम पहुंच गए…जागिये… मैं सोई नहीं थी खोयी हुई थी बस..अपने नाम में अपने आप में…!
संगीता सिंह ‘भावना’
बहुत अच्छी लगी.
बढ़िया संस्मरण।
बहुत अच्छा और रोचक संस्मरण ! ऐसे संयोग बहुत कम होते हैं.