तुम्हारे और मेरे दरमियान
यूँ तो
तुम्हारे और मेरे दरमियान
बहुत है फर्क
तुम सब्ज : जमीं हो
बादलों से घिरा
मैं हूँ फ़लक
मेरे मन के आँगन में
खिल आये गुलमोहर सी
मुझे तुम लगती हो
जबसे देखा हूँ मैं
तुम्हारी एक झलक
सूना नहीं लगता
अपरिचित इमारतों का यह शहर
न उदास सी लगती है
इंतज़ार की तरह लम्बी यह सड़क
जब से तुम्हारी निगाहों के इशारों ने
समझाया है
मुझे इश्क का मतलब
तुम्हारा ही हुस्न
नज़र आता है मुझे हर तरफ
मेरी सांसों में घुली हुई है
तुम्हारे चन्दन से बदन की महक
मेरी तकदीर गयी है बदल
लिखने लगा हूँ तुम पर ग़ज़ल
चहकने लगी हैं कलम
इजहारे इश्क के लिए
बेताब हो उठे हैं हरफ़
दो अजनबी
उल्फ़त में कही जाए न बहक
मैं उड़ता हुआ हूँ एक विहग
तुम्हारी बांहों का घेरा है
मेरे लिए सुरक्षित सा कफ़स
यूँ तो
तुम्हारे और मेरे दरमियान
बहुत हैं फ़र्क
तुम सब्ज : जमीं हो
बादलों से घिरा
मैं हूँ फ़लक
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब .
thank u
बढ़िया !
thankx a lot