यशोदानंदन-४
गर्गाचार्य के पास कोई विकल्प शेष नहीं रहा। उन्होंने समस्त उपस्थित जन समुदाय को अपना-अपना स्थान ग्रहण करने का निर्देश दिया और स्वयं अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात्अपना कथन आरंभ किया –
“पुत्री यशोदा और प्रिय नन्द जी! तुम दोनों समस्त शरीरधारियों में अत्यन्त भाग्यशाली और स्राहनीय हो। जो अवसर सृष्टि के आरंभ से लेकर आजतक किसी दंपती को प्राप्त नहीं हुआ, वह तुमलोगों को प्रभु की कृपा से प्राप्त हुआ। जब बच्चे घुमरी-परेवा खेलते हैं, तो वे बड़े वेग से हाथ फैलाकर गोल चक्कर लगाते हैं। उन्हें तब अपने साथ सारी पृथ्वी घूमती हुई प्रतीत होती है। वैसे ही सबकुछ करनेवाला वास्तव में चित्त ही है। मनुष्य इस चित्त के वश में होकर गोल-गोल चक्कर लगाता है और सारे विश्व को अपने साथ-साथ घूमता हुआ पाता है। इस भ्रम को वह सत्य समझ पूरा जीवन बिता देता है। वह प्रत्येक क्रिया में स्वयं को कर्त्ता समझ बैठता है। श्रीकृष्ण केवल तुम दोनों के पुत्र नहीं हैं। वे समस्त प्राणियों के आत्मा, पुत्र, पिता, माता और स्वामी भी हैं। जो देखा या सुना जाता है – वह चाहे भूत से संबंध रखता हो, वर्तमान से या भविष्य से, स्थावर हो या जंगम, महान्हो अथवा लघु – ऐसी कोई वस्तु ही नहीं जो श्रीकृष्ण से पृथक हो। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं जिसे वस्तु कह सकें। वास्तव में सब वे ही हैं, वे ही परम सत्य हैं। पुत्री यशोदा! तुम विश्व की सबसे सौभाग्यशाली माँ हो। तुम्हारे हृदय में समस्त चराचर जगत के निर्माता के प्रति जो अभूतपूर्व पुत्र-भाव और वात्सल्य-स्नेह है, वह दुर्लभ है। जो जीव मृत्यु के समय भी अपने शुद्ध मन को एक क्षण के लिए भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओं को धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परम गति को प्राप्त होता है। वे परब्रह्म ही श्रीकृष्ण के रूप में भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने, पृथ्वी का भार उतारने के लिए तथा धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मनुष्य योनि में प्रकट हुए हैं। उस परम नियन्ता को तुमने अपने स्तनों का दूध पिलाया है, गोद में शरण दी है और अपने आँचल से उसका मुंह पोछा है। तुम मक्खन-मिश्री लेकर दिन भर उसके पीछे दौड़ती थी — वह आगे-आगे, तुम पीछे-पीछे। अपनी बाल सुलभ क्रीड़ाओं से वह तुम्हें थका डालता था। कभी-कभी तुम रुआंसी भी हो जाती थी। परन्तु क्या तुमने उसपर कभी वास्तविक क्रोध किया? उसने तुम्हें जीवन का वह सुख दिया जिसे पाने के लिए देवर्षि, महर्षि, देवी, देवता और मनुष्य जन्मों-जन्मों तक तप करते हैं। पुत्री यशोदा और प्रिय नन्द जी! उस कृष्ण के प्रति आप दोनों के हृदय में जो अनुकरणीय और सुदृढ़ वात्सल्य भाव है, उससे मुझे भी ईर्ष्या हो रही है। आप दोनों के लिए अब कौन-सा शुभ कार्य करना शेष रह जाता है? आप दोनों प्रातःस्मरणीय हैं, वन्दनीय हैं, पूजनीय हैं।”
महर्षि गर्ग अचानक ध्यानस्थ हो गए। पूरे कक्ष में सर्वत्र शान्ति थी। सभी उपस्थित जनों की आँखों से अश्रु-प्रवाह रुक गया। सबके नेत्रों के सम्मुख कृष्ण ही कृष्ण थे। यशोदा ने देखा, नन्द जी ने देखा, गोपियों ने देखा। अचानक बाँसुरी की मधुर स्वर लहरी ने संपूर्ण वातावरण को आप्लावित कर दिया। कौन था वहां जिसने अपना सुधबुध न खो दिया हो? यह स्वप्न था या साकार? जो भी था कोई इस मंत्रमुग्धता से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं था। परन्तु यशोदा की अन्तर-उदधि की ज्वारभाटा फिर से तट तोड़ने के लिए विकल हो उठी। महर्षि गर्ग का प्रवचन सुना उन्होंने, बहुत ध्यान से सुना पर उनका प्रश्न अभी अनुत्तरित था। उन्हें अपने प्रश्न का स्पष्ट उत्तर चाहिए था। दर्शन-ज्ञान की भूलभुलैया में उलझाकर उन्हें बहुत देर तक शान्त रखना किसी के वश में था क्या? कृष्ण की महानता पर उन्हें पहले भी कोई शंका नहीं थी परन्तु जब कोई भी, यहाँ तक कि नन्द जी भी कन्हैया के चमत्कारी कार्यों के कारण भूलवश भी उन्हें नारायण का अवतार कह देते, तो यशोदा का मातृत्व विद्रोह कर देता। वे उन्हें भी उपालंभ देने से नहीं चुकतीं, कहतीं — “होगा परमात्मा कृष्ण आपके लिए, आपके मित्रों के लिए, गोप-गोपियों के लिए। लगा दीजिए उसकी प्रतिमा गोकुल के चौपाल में। जो इच्छा हो वह कीजिए, परन्तु कृपा कर मेरे सम्मुख मेरे कृष्ण को परमात्मा मत कहिए। कृष्ण मेरा पुत्र है, वह सिर्फ मेरा है। मैंने उसे जना है, अपने स्तनों का दूध पिलाया है। उसे मुझसे विलग न करें स्वामी! मैं उसे लेकर पाताल चली जाऊंगी लेकिन उसे परमात्मा नहीं बनने दूंगी। उसपर मेरा ही अधिकार है, सर्वाधिकार। वह मेरा सर्वस्व है। मैं उसे परमात्मा बना सार्वजनिक नहीं कर सकती। पिता का हृदय तो कठोर होता है। जब भी दस जनें उसकी प्रशंसा करते हैं, आपकी आँखें चमकने लगती हैं। कभी आपने मुझसे भी पूछा है – मुझपर क्या बीतती थी, जब किसी भी असुर या दैत्य से मेरे लाल का सामना होता था? निस्संदेह वह हर बार विजयी होता था, परन्तु उस अवधि में मैं कई बार मरती थी, कई बार जीती थी। जबतक मेरा नन्हा लाल मेरे पास नहीं आ जाता था, मेरे प्राण मेरे गले में अटके रहते थे। गोद में बैठाकर उसके सारे वस्त्र उतार उसके समस्त शरीर, सारे अंग-उपांगों का सूक्ष्मता से निरीक्षण करती थी – मेरे कान्हा को कही खरोच तो नहीं आई? जबतक वह शिशु था, सबके सामने ही उसका वस्त्र उतार देती थी। वह बालक हुआ, फिर किशोर हुआ। सबके सामने वस्त्र उतारने में संकोच करने लगा। मैं समझ गई। उसे अपने कक्ष में ले जाकर निर्वस्त्र कर मैं उसका निरीक्षण करती। अपने हाथों से औषधि का लेप करती। भेज दिया उसे मथुरा – अत्याचारी कंस से युद्ध करने के लिए? सभी हर्षित होकर कई दिनों से कंस-वध की कथा सुना रहे हैं। किसी ने यह ज्ञात करने का प्रयास किया है कि उस महाबली के साथ भीषण द्वन्द्व-युद्ध में मेरे लाल के कोमल शरीर में कहाँ-कहाँ खरोंचें आई हैं? ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि उस अत्याचारी महाबली कंस ने बिल्कुल ही हाथ-पांव न चलाया हो? एक चूहे को भी पकड़ने का प्रयास करने पर वह भी अपने नाखूनों से प्रहार करता है। और कोई उपाय नहीं दीखने पर आक्रान्ता के हाथ में अपने दांत गड़ा देता है। कंस के साथ युद्ध में मेरे कान्हा को कहाँ-कहाँ चोटें आईं, वहां कोई भी देखने वाला नहीं था। सब नारायण, परमात्मा, परब्रह्म की बातें कर रहे हैं। कोई मेरे कृष्ण का समाचार क्यों नहीं देता? वह कुशल से तो है? मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर कोई क्यों नहीं देता?”
“श्रीकृष्ण अगर सकुशल नहीं होते तो हम इतने प्रसन्न कैसे रह सकते थे? उन्होंने कंस को बात की बात में ही यमलोक का अतिथि बना दिया। महाबली कंस उनके सम्मुख एक चूहे से भी कमजोर सिद्ध हुआ। इस सृष्टि में श्रीकृष्ण का बाल भी बांका करने वाला आजतक नहीं जन्मा है‘ और न जन्म लेगा।” महर्षि ने मातु यशोदा की शंका का समाधान किया।”
बहुत सुन्दर !