आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 5)

एच.ए.एल. में अपनी सेवा प्रारम्भ करने के तीन-चार माह बाद ही मेरी नौकरी खतरे में पड़ गयी। कारण बने ज.ने.वि. में हमारे खिलाफ लगाये गये झूठे केस। सरकारी नौकरी शुरू करने वालों को अन्य सूचनाओं के साथ ही अपने ऊपर लगे हुए सभी केसों की भी जानकारी देनी पड़ती है और उस सूचना का पुलिस से सत्यापन भी कराया जाता है। मैंने भी एक फार्म में जानकारी दी थी। ज.ने.वि. के केस मेरी दृष्टि में महत्वहीन होने के कारण मैंने उनका उल्लेख नहीं किया था। परन्तु पुलिस सत्यापन में एच.ए.एल. को पता चल गया कि ऐसे केस मेरे ऊपर लगाये गये हैं। इसलिए मुझे कारण बताओ नोटिस दिया गया कि यह सूचना क्यों छिपायी गयी। मैंने इसका लीपापोती भरा जवाब श्री रमेश राव की सहायता से तैयार किया और दे दिया। मैंने यह भी लिखा था कि ये सारे केस झूठे हैं, इनकी एक भी तारीख अभी तक नहीं पड़ी है और इनको वापस लेने की प्रक्रिया चल रही है।

केस वास्तव में झूठे थे, इसलिए वापस होने ही थे। मुश्किल से एक साल के अन्दर सारे केस वापस हो गये और इस बात के आदेश की प्रति मेरे ज.ने.वि. के मित्रों के माध्यम से मुझे प्राप्त भी हो गयी। वह मैंने एच.ए.एल. में जमा कर दी और अपनी नौकरी पक्की करने का अनुरोध किया। उन्होंने उस आदेश का भी सत्यापन कराया और जब दिल्ली से उत्तर आ गया कि वे केस वास्तव में वापस ले लिये गये हैं, तो मैं नौकरी में पक्का कर दिया गया।

प्रारम्भ में हमारे सेक्शन में काम बहुत था, क्योंकि विभाग, कम्प्यूटर और हम सभी नये थे। मेरे आने से पहले इसेंटिव के अलावा कोई भी काम कम्प्यूटरीकृत नहीं था। धीरे-धीरे हमने कार्यों को आपस में बाँटकर कम्प्यूटरीकृत करना प्रारम्भ किया। पहले मुझे कम्प्यूटर चलाने और बन्द करने वाले समूह में रखा गया था। परन्तु उसमें मेरा मन नहीं लगा और एक दिन उस समूह के प्रमुख श्री हरमिंदर सिंह से मेरी झड़प भी हो गयी, इसलिए मैं उस समूह से हटा दिया गया और एक अन्य अधिकारी श्री राजीव किशोर के साथ प्रोडक्शन प्लानिंग एंड कंट्रोल समूह में रखा गया। इस समूह में हम दो अधिकारी थे और एक आॅपरेटर था।

मैंने अपने समूह के कार्यों के लिए तो प्रोग्राम लिखे ही, दूसरे समूह वालों के लिए भी प्रोग्राम लिखे या उनमें सहायता की। प्रत्येक समूह का सबसे जटिल प्रोग्राम लिखने का कार्य मुझे ही दे दिया जाता था। मेरे आने से पहले वहाँ प्रोग्रामों को सबसे पहले कागज पर लिखा जाता था, जिसमें 2-3 दिन लगते थे। फिर उसे किसी ऑपरेटर से कार्डों पर पंच कराया जाता था। उसमें भी 2-3 दिन लग जाते थे। अन्त में उसे कम्प्यूटर पर चलाकर ठीक किया जाता था। इस प्रकार एक मध्यम आकार का प्रोग्राम तैयार करने में लगभग एक सप्ताह लग जाता था। बड़े प्रोग्रामों में ज्यादा दिन भी लगते थे। लेकिन मैंने प्रोग्रामों को कागज पर लिखे बिना सीधे कम्प्यूटर में टाइप करने की परम्परा शुरू की। इसमें मेहनत भी कम थी और एक सप्ताह का कार्य केवल एक या दो दिन में हो जाता था। बाद में अन्य सभी लोगों ने भी ऐसा ही करना प्रारम्भ कर दिया।

हम सब अपने प्रोग्राम कोबाॅल नामक प्रोग्रामिंग भाषा में लिखा करते थे। उस समय ऐसे कार्यों के लिए यही सर्वश्रेष्ठ भाषा थी। कोबाॅल मैंने ज.ने.वि. में पढ़ते समय सीखी थी। वहां उसका एक सर्टिफिकेट कोर्स भी किया था, परन्तु उसका पूरा उपयोग एच.ए.एल. में ही हुआ। शीघ्र ही मैं एच.ए.एल. में कोबाॅल का सर्वश्रेष्ठ प्रोग्रामर माना जाने लगा था और लगभग सभी अधिकारी अपने प्रोग्रामों में मेरी सलाह लेते थे। वैसे मैं कभी-कभी फॉरट्रान भाषा का भी उपयोग करता था, जो मेरी सबसे अधिक पसन्दीदा प्रोग्रामिंग भाषा थी।

एच.ए.एल. में सेवा करते हुए मैंने कुछ ऐसे कार्यों के लिए भी सामान्य प्रोग्राम बनाये थे, जो बार-बार करने पड़ते हैं। उन प्रोग्रामों की सहायता से वे कार्य बिना नया प्रोग्राम लिखे किये जा सकते थे। ऐसे प्रोग्रामों को यूटिलिटी कहा जाता है। मेरी लिखी हुई यूटिलिटी मेरे एच.ए.एल. छोड़ने के बाद भी वहाँ काफी समय तक चलती रही थीं।

प्रारम्भ में वहाँ का माहौल बहुत खुशगवार था। कम्प्यूटर टर्मिनल कम होने के कारण आधे अधिकारी ही एक समय में कार्य कर पाते थे। शेष लोग बेकार बैठे गप्पें मारते रहते थे। अधिकतर अधिकारी कुँवारे थे, इसलिए खूब मस्ती करते थे। एक बार हम 7-8 अधिकारी स्कूटरों पर सवार होकर पिकनिक मनाने चिनहट गये थे। वहाँ गोमती नदी पर एक बड़ा पुल बनाया गया है, जिसे ‘इन्दिरा सेतु’ कहते हैं। उसके आसपास घोर जंगल है। हम उसी पुल के पास जंगल में देर तक घूमते रहे थे। वहाँ खाने-पीने की वस्तुएँ उपलब्ध नहीं थीं, इसलिए 2-3 घंटे बाद ही लौटना पड़ा। वहाँ से कुकरैल पिकनिक स्पाॅट भी गये। फिर एक सिनेमा हाॅल ‘नोवेल्टी’ में ‘शराबी’ पिक्चर देखी।

एच.ए.एल. में यों तो वेतन अपेक्षाकृत कम था, लेकिन वहाँ मिठाई बाँटने की अच्छी परम्परा थी। कई अवसरों पर मिठाई बाँटी जाती थी, जैसे विभाग में पहली बार आने पर, स्कूटर या कार खरीदने पर, प्रोमोशन होने पर, मकान का ऋण मिलने पर, बच्चे की प्रथम श्रेणी आने पर आदि-आदि। एक बार तो ऐसा हुआ कि विभिन्न कारणों से लगभग 10-12 लोगों को मिठाई बाँटनी थी। तो हमने एक कार्यक्रम बना दिया था कि कौन किस दिन मिठाई लाएगा। इसका परिणाम यह हुआ कि हम लगातार 15 दिन तक रोज ही मिठाई खाते रहे। केवल एक अधिकारी (पी.एम. चौबे) को छोड़कर सबने उस कार्यक्रम का पालन किया था।

दीपावली से एक दिन पहले वहाँ लाटरी का कार्यक्रम होता था। सभी कर्मचारी और अधिकारी मिलकर 2-2 रुपये के शेयर अपनी मनचाही संख्या में लेते थे। फिर उनकी राशि के अनुसार 4 या 5 इनाम रखे जाते थे। अन्त में नामों की पर्चियाँ डालकर लाटरी निकाली जाती थी और इनाम दिये जाते थे। मैं हमेशा एक शेयर लेता था। एक बार मुझे दूसरा इनाम मिल गया था, जो शायद 30 रुपये का था।

यहाँ अपने साथी अधिकारियों के बारे में बता देना उचित रहेगा।

श्री विष्णु कुमार गुप्त संघ के बड़े कार्यकर्ता थे। हालांकि यह बात मुझे 2-3 महीने बाद ही मालूम हुई थी। हुआ यों कि एक बार भूतनाथ मंदिर मार्केट में घूमते हुए मुझे संघ का खाकी नेकर पहने हुए दो व्यक्ति दिखाई पड़ गये। मैं समझ गया कि वे स्वयंसेवक हैं। वे दोनों व्यक्ति थे- श्री कृष्ण पाल सिंह तथा श्री अवधेश कुमार सिंह, जो दोनों ही इन्दिरा नगर के सरस्वती शिशु मंदिर में आचार्य थे। मैंने उनसे परिचय करके पूछा कि शाखा कहाँ लगती है। उन्होंने बताया कि शाखा तो पानी के टंकी के पास तिकोने पार्क में लगती है, लेकिन अगले दिन (रविवार को) सभी शाखाओं की सम्मिलित शाखा सरस्वती शिशु मंदिर के सामने वाले पार्क में होने वाली है। मैंने उन्हें अपना निवास का कमरा दिखा दिया, जो भूतनाथ मंदिर के पास ही था और उनसे कह दिया कि कल सुबह मुझको अपने साथ ले जायें।

दूसरे दिन मैं उनके साथ शाखा गया, तो वहीं मुझे पता चला कि विष्णुजी संघ के स्वयंसेवक हैं। उन्हें भी पहली बार पता चला कि मैं भी स्वयंसेवक हूँ। इसके बाद हम दोनों एक ही सेक्शन में होने के कारण संघ के कार्यों में साथ-साथ भाग लेने लगे। दूसरी बात यह थी कि उनके पास स्कूटर भी था और मैं उस पर पीछे बैठकर आराम से सब जगह चला जाता था। धीरे-धीरे हममें काफी घनिष्टता हो गयी और वे मुझे अपने छोटे भाई जैसा प्यार देते थे और आज भी देते हैं। उस समय तक वे विवाह कर चुके थे और एक पुत्र के पिता बन चुके थे। उनके पुत्र के पहले या दूसरे जन्म दिन समारोह में मैं भी सम्मिलित हुआ था। बाद में वे एक पुत्री के भी पिता बने। वह थोड़ी मंद बुद्धि है, लेकिन अब काफी ठीक है। आजकल श्री विष्णु जी एच.ए.एल., लखनऊ में ही एक विभाग में मुख्य प्रबंधक के रूप में सेवा कर रहे हैं। बीच-बीच में उनके दर्शन होते रहते हैं।

(पादटीप : श्री विष्णु जी अब उपमहाप्रबंधक पद से अवकाशप्राप्त कर चुके हैं और लखनऊ में ही रहते हैं. उनसे मेरी खूब भेंट होती है, क्योंकि हम दोनों ही मालवीय मिशन में सक्रिय हैं. इसकी कहानी आगे लिखूंगा.)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 5)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , अभी तक तो मज़े ही मज़े दिख रहे हैं , हों भी कियों नहीं , वोह जवानी के दिन , साथिओं के साथ मज़े . वोह दिन तो कभी भूल ही नहीं सकते.

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब आपने. एच ए एल में हमारे शुरू के दिन बहुत आनंदमय थे.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, सुधीर जी.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की किश्त का पूरा विवरण पढ़ा। आपकी जीवनी को पढ़कर कर अनेक नए विषयों का ज्ञान होता है। आपके हाल के कार्यों, पिकनिक, आरएसएस सम्बन्धी व अन्य विवरण पढ़कर सुखद अनुभूति हुई। धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, महोदय ! आगे की कहानी और भी रोचक है. पढ़ते जाइये.

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