आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 6)
एच.ए.एल. में मेरे समूह के प्रमुख थे श्री राजीव किशोर। आप यों तो ‘अग्रवाल’ थे, परन्तु जातिवाद में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने विवाह भी अन्तर्जातीय किया था। उनकी पत्नी श्रीमती सुजाता शर्मा या पाण्डेय, जो बाद में अपना नाम ‘सुजाता किशोर’ लिखने लगी थीं, एच.ए.एल. में ही एक अन्य विभाग में ग्रेड-2 अधिकारी थीं। वास्तव में वे दोनों मैनेजमेंट ट्रेनी थे। ये लोग प्रायः इंजीनियर होते हैं और उनको 2 साल की विशेष ट्रेनिंग देकर सीधे ग्रेड 2 में रख दिया जाता है। दोनों ट्रेनिंग के दौरान ही निकट आये थे और प्रेम विवाह किया था। उनके दो पुत्र भी हुए, जिनके नाम क्रमशः ‘अनन्त किशोर’ और ‘असीम किशोर’ रखे गये थे। एक बार जातिवाद पर श्री राजीव किशोर से बात करते हुए मैंने कहा कि अन्तर्जातीय विवाह तक तो ठीक है, परन्तु इससे जातिवाद समाप्त कहाँ हुआ? राजीव किशोर, सुजाता किशोर, अनन्त किशोर, असीम किशोर, यह किशोर, वह किशोर- यह तो किशोर नाम की नई जाति बन गयी। उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं था और वे चुपचाप उठकर चले गये।
वैसे श्री राजीव किशोर बहुत सज्जन थे, जिसे अंग्रेजी में ‘परफैक्ट जेंटिलमैन’ कहा जाता है। वे अपने विषय के योग्य और निष्ठावान अधिकारी थे। उनका व्यवहार भी सभी के साथ सन्तुलित रहता था। जब मैं एच.ए.एल. में ही था, तभी वे प्रोन्नत होकर एक अन्य विभाग में चले गये थे। मैंने लगभग 2-3 साल उनके साथ कार्य किया था और उनसे बहुत आत्मीय सम्बंध बन गये थे। उनकी बहिन के विवाह में मैंने भी थोड़ा बहुत कार्य किया था और उनके छोटे भाई के विवाह में शामिल होने मैं भी बरेली गया था। मेरे एच.ए.एल. छोड़ने के समय वे वहीं थे, परन्तु बाद में वे अमरीका चले गये। अब कहाँ हैं, मुझे ज्ञात नहीं है।
श्री हरमिंदर सिंह खेड़ा, जैसा कि उनके नाम से स्पष्ट है, सिक्ख थे और पगड़ी बाँधते थे। प्रारम्भ में मैं उनके साथ एक ही समूह में था, जिसे आॅपरेशंस समूह कहा जाता था। किसी बात पर कहा-सुनी हो जाने के कारण मैं उनके समूह से अलग हो गया था। वैसे हरमिंदर जी का व्यवहार लगभग सभी के साथ साधारण ही था। वे अपने से जूनियरों को आवश्यक सम्मान भी नहीं देते थे। केवल अपने सीनियरों को खुश रखते थे। इसलिए विभाग के लगभग सभी कर्मचारी और बहुत से अधिकारी उनसे असंतुष्ट रहते थे। लेकिन मेरे साथ कहा-सुनी होने के बाद से उनके व्यवहार में धीरे-धीरे सुधार हुआ, क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने उनके सामने खुलकर बोलने की हिम्मत की थी। पीठ पीछे लोग उन्हें आतंकवादी कहा करते थे।
मुझे याद है कि एक बार वे किसी काम से रामपुर गये थे। वहाँ उन्हें 10-15 दिन लग गये। इसी बीच अखबारों में एक समाचार छपा कि रामपुर में दो आतंकवादी पकड़े गये हैं। किसी कर्मचारी ने चुपके से उस समाचार की कतरन हमारे सेक्शन के नोटिस बोर्ड पर लगा दी थी, जिसे पढ़कर सब खूब हँसे थे। शरारत किसी और की थी, परन्तु सभी अधिकारियों ने समझा कि यह हरकत मैंने की है। उनका कहना था कि किसी और में इतनी दूर तक सोचने की अक्ल है ही नहीं। जब हरमिंदर जी लौटे, तो उन्हें इस मजाक की जानकारी हुई। वैसे उन्होंने भी इसे मजाक में ही लिया। बाद में पंजाब में आतंकवाद अधिक बढ़ जाने पर उन्होंने अपने बाल कटा दिये थे और केवल साधारण दाढ़ी रखने लगे थे। मेरे सामने ही उनकी शादी हुई थी और हम सब उनके रिसेप्शन में भी सम्मिलित हुए थे। उनकी श्रीमतीजी योग की अच्छी जानकार थीं और इन्दिरा नगर के सेंट डोमिनिक विद्यालय में कुछ समय तक योगा टीचर भी रही थीं।
एक मजेदार बात और है। जब हम उनके रिसेप्शन में जाने को तैयार हो रहे थे, तो उन्हें गिफ्ट में देने के लिए कोई वस्तु खरीदनी थी। हमने अपना-अपना चन्दा देकर एक अधिकारी श्री गौरी शंकर दास को गिफ्ट खरीदने के लिए भेज दिया। वे खरीदकर लाये एक मोमबत्ती स्टैंड, जिस पर चारों ओर सात-आठ मोमबत्तियाँ एक साथ लगाई जा सकती थीं। जब यह गिफ्ट आई और उस पर चर्चा हो रही थी, तो मैंने मजाक में पूछा- ‘इस पर मोमबत्ती वहाँ जाकर लगायेंगे कि यहीं से लगाकर ले चलेंगे?’ इस बात पर एक जोरदार ठहाका पड़ा। दास बाबू खिसिया गये। डिप्टी मैनेजर श्री आर.के. श्रीवास्तव ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा- ‘यह तो बेवकूफ है। हमेशा ऐसी ही बातें करता है। इसकी बातों पर ध्यान मत दो।’ बात समाप्त हो गयी, लेकिन उसके बाद किसी ने ऐसी बेकार की गिफ्ट खरीदने की हिम्मत नहीं की।
(पादटीप : श्री हरमिंदर सिंह अब अमेरिका के नागरिक हैं और सपरिवार वहीँ रहते हैं. मेरी उनसे दो-तीन बार लखनऊ में भेंट हुई है और मेरे फेसबुक संपर्क में हैं.)
श्री रघुनाथ प्रसाद बाजपेयी सेना से रिटायर्ड अधिकारी थे। उम्र लगभग 52 वर्ष थी और कुछ ही वर्षों में अवकाश प्राप्त करने वाले थे। जब मैंने एच.ए.एल. में सेवा प्रारम्भ की थी उस समय वे एलटीसी पर दक्षिण भारत घूमने गये हुए थे। वहाँ से लौटकर उन्होंने अपनी यात्रा का पूरा वृत्तांत केवल मुझे सुनाया था। उनके साथ मेरी अच्छी घनिष्टता थी। वे बहुत मस्तमौला आदमी हैं, बहुत हँसमुख और मिलनसार। जब चाय आती थी, तो वे एक बार चाय लेकर जल्दी-जल्दी पी जाते थे और चाय वाले के जाने से पहले ही एक और कूपन देकर दूसरी बार फिर चाय ले लेते थे। इस बात पर मैं बहुत हँसता था और उनसे मजाक में कहता था कि एक लोटा रखा करो, उसी में दो गिलास चाय डलवा लिया करो।
बाजपेयी जी के कोई पुत्र नहीं है, केवल तीन पुत्रियाँ हैं- गीता, इन्दु और ज्योति। तीनों बहुत होशियार हैं और अपने पिता की तरह ही हँसमुख हैं। मेरे साथ सभी खूब बातें करती थीं। मेरी दी हुई कठिन पहेलियों को वे तीनों मिलकर मिनटों में हल कर देती थीं। उनकी प्रतिभा का यह हाल था कि सबसे छोटी लड़की जब मुश्किल से 16-17 साल की थी अर्थात् 18 की नहीं हुई थी, तो शौकिया बैंक की लिपिकीय परीक्षा में बैठी और मजा यह कि पास भी हो गयी। परन्तु उम्र कम थी, इसलिए पोल खुल जाने के डर से इंटरव्यू में नहीं गयी। वैसे उनकी दो लड़कियाँ बैंकों में ही हैं। सबसे बड़ी गीता स्टेट बैंक में आफीसर है और छोटी ज्योति पंजाब नेशनल बैंक में लिपिक है। शायद अब वह भी आफीसर हो गयी हो। बीच वाली इंदु मेरी अन्तिम जानकारी तक पाॅलीटैक्निक में डिप्लोमा कर रही थी। अब कहाँ है पता नहीं। मेरे पास दोनों बड़ी लड़कियों की शादी के कार्ड आये थे, परन्तु मैं उस समय वाराणसी में था, इसलिए शामिल नहीं हो सका।
इन तीनों बहनों के मस्तमौलापन के कई किस्से मुझे याद हैं। जब मैं पहली बार उनके घर गया था, तो बीच वाली (इन्दु) मुझे कुछ लिखकर बता रही थी। वह उल्टे हाथ से लिखती है। मैंने नोट किया, लेकिन चुप रहा, तो बड़ी (गीता) ने उसकी तरफ इशारा करते हुए मेरा ध्यान खींचा कि देखो यह उल्टे हाथ से लिख रही है। मैंने कहा- ‘मैं देख चुका हूँ।’ इसके साथ ही हम दोनों हँस पड़े।
बाजपेयी जी की आँखें कुछ कमजोर थीं। मोटा चश्मा तो पहले से ही लगाते थे, लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि उनकी दोनों आँखों की रोशनी एकदम कम हो गयी। लखनऊ के किंग जार्ज मेडीकल कालेज में उनका इलाज चल रहा था। हम सब अधिकारी घबड़ा गये थे कि पता नहीं क्या होगा, लेकिन उनकी लड़कियों को कोई चिन्ता नहीं। अस्पताल में भी सब हँसती-मुस्कराती रहती थीं। किसी तरह बाजपेयी जी की एक आँख बच गयी। जब हम एच.ए.एल. की एंबुलेंस गाड़ी में उनको अस्पताल से घर ला रहे थे, तो डाॅलीगंज-निरालानगर होकर आ रहे थे। रास्ते में आईटी कालेज पड़ा, जो लखनऊ में लड़कियों का मशहूर डिग्री कालेज है। जब एंबुलेंस उसके पास से निकली, तो गीता ने उसकी तरफ इशारा करके मुझसे पूछा कि यह क्या है? मैंने हँसते हुए कहा- ‘मुझे मालूम है कि यह लड़कियों का कालेज है।’ ऐसी लड़कियों की मस्ती का क्या ठिकाना?
बाजपेयी जी अपनी लड़कियों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए उनके नाम से राष्ट्रीय बचत पत्र, फिक्सड डिपोजिट, किसान विकास पत्र आदि खरीदा करते थे और उनके परिपक्व हो जाने पर दोगुनी राशि के फिर खरीद लेते थे। इस प्रकार उन्होंने काफी बड़ी राशि इकट्ठी कर रखी थी। जब वे मुझे इनके बारे में बताते थे तो मैं मजाक में कहता था कि यह सब दामाद ले जायेंगे। उन्होंने इन्दिरा नगर में सी-ब्लाॅक में अस्पताल के सामने एक मकान बना लिया है और उसमें आनन्दपूर्वक रहते हैं। अब वे रिटायर हो चुके हैं। मैं बहुत दिनों से उनसे मिला नहीं हूँ।
(पादटीप : दिसंबर २०१४ में श्री बाजपेयी जी के स्वर्गवास का समाचार मिला है.)
bahut achhi jivan katha ja rahi hai.
बहुत बहुत धन्यवाद, भाई साहब !
सुंदर है आपका जीवन सफर।
धन्यवाद, रमेश जी.
padh rahaa hun ………..tarif ke kaabil hai aapka jivan vritant ..
बहुत बहुत धन्यवाद !