बाल कहानी – आतंकी फँस गया चक्कर में
बहुत पहले की बात है. नागपुर के जंगल में जहरीले सांपों का एक परिवार रहा करता था. उसके मुखिया नागराज का बेटा संपोलिया बड़ा ही शरारती और उपद्रवी स्वभाव का था. वह जबसे यह जानने-समझने लायक हुआ कि सांपों के खतरनाक जहर के कारण दुनिया के सभी जीव – जन्तु उनसे बहुत डरते हैं. तबसे उसे अपने आप पर बहुत घमण्ड हो चला था. वह आये दिन अपने फन फैलाकर, फुफकार लगाकर जंगल में सभी जानवरों को खूब डराने लगा. कई जीवों को उसने डस भी लिया, उनके शरीर में विषभरे दांत चुभो दिया. जिससे कुछ तो बेहोश हो गये और कुछ की मौत भी हो गयी. वह हर किसी को मुँह फाड़कर डरा देता या दौड़ा लेता. सारे जीव-जन्तु उससे डरकर भाग खड़े होते. कई बार तो उसकी खुराफात के चलते जंगल में भगदड़ भी मच जाती, मानों कोई दैवी आपदा आ गयी हो. भागते – दौड़ते घबराये जीवों को देखकर उसे बड़ा मजा आता और वह बहुत खुश होता.
आयु में बूढ़े हो चुके उसके माता – पिता नागराज और नगीना यह सब देख-सुनकर बड़े दुखी होते और उसे समझाते कि बेटे ! लोगों पर बादशाहत करने का यह कोई तरीका नहीं है. इससे लोग तुम्हारा सम्मान कभी नहीं करेंगे, बल्कि मौका पाकर तुम्हें भी चोट पहुँचा देंगे. लेकिन संपोलिये को माँ – बाप की यह सीख अच्छी नहीं लगती थी. वह कहता –“ तुम क्या जानो, बापू ! मैं तो दुनिया पर राज कर सकता हूँ. अभी तो मेरा दबदबा सिर्फ जंगल में है. जरा मुझे जंगल से बाहर तो निकलने दो. मुझे दुनिया का राजा बनते देर नहीं लगेगी. तुम देखना………..’’
उसके मन की बात भाँपते ही नागराज जैसे काँप उठे – “ नहीं बेटा ! तुम अपना भला चाहते हो तो कभी भी जंगल से बाहर निकलने की सोचना भी मत. बिना कारण किसी को डराने की कोशिश की तो तुम्हारा जीवन भी खतरे में पड़ सकता है. बेटे ! किसी को दुख देने वालों का कभी भला नहीं होता है.”
“हुंह…”-संपोलिये ने उपेक्षा से मुंह बिचकाया. जीभ लपलपा कर बोला “ आप लोग ‘सठिया’ गये हो. उमर बीत चुकी है इसी डर के कारण आज तक इसी जंगल में छुपे बैठे हो. पर मैं डरपोक नहीं हूँ. मैं दुनिया में तहलका मचाकर रहूँगा.’’
माँ – बाप मना करते रहे, पर संपोलिये को अच्छा नहीं लगा. वह उत्तेजना में बाँबी से बाहर निकल आया. -“आज देखता हूँ कौन मुझसे बचकर भागता है.”
बाहर निकलते ही उसे चीटियों का एक झुण्ड दिख गया. वह फुफकार कर बोला –“हटो मेरे रास्ते से, वर्ना सबको चट कर डालूँगा.”
झुण्ड की चींटी रानी भी बड़ी तेज तर्रार थी. तुनक कर बोली –“किसे आँख दिखाता है संपोलिये ! तेरे दादा तक को हम सब उठाकर ढो ले गये थे.”
“आंय..! पिददी सी चींटी मुझे आँख दिखाती है….ये ले..” – संपोलिये ने जोर की फुफकार लगायी तो कई चींटियाँ हवा में उड़ गयी. कुछ धुल में सन गयी और कुछ तो खौफ के मारे इधर – उधर भागने लगी. संपोलिया हँस कर बोला –“ देखा या और दिखाऊँ ?”
इतना सुनते ही चींटी रानी को भी ताव आ गया -“दुष्ट संपोलिये ! देख मैं क्या करती हूँ.” उसने पलट कर आवाज लगायी – “बहादुर चींटियों ! इस संपोलिये को भी इसके दादा की तरह ही टांग ले चलो.” चींटी रानी के ललकारते ही चींटियाँ एकजुट होकर पलटी और संपोलिये पर टूट पड़ी. उसे अपने पैने दांतों से पकड़ कर खींचने की कोशिश करने लगी.
संपोलिया सैकड़ों सुई जैसी चुभन के भयानक दर्द से चीख पड़ा. उसने इसकी तो कल्पना तक नहीं कि थी. “ अरे मैं मर गया..छोडो मुझे…”- संपोलिये ने तड़पकर जोरों की गुलाटी मारी तो एकबारगी चींटियों की पकड़ ढीली पड़ गयी और संपोलिया छूटते ही भाग निकला.–“अरे बाप रे !”—काफी दूर जाकर उसने राहत की साँस ली.
तभी कुछ दूरी पर उसे छछूंदर प्रजाति के चूहों का एक परिवार दिख गया. संपोलिया को देखकर डर के मारे सबकी घिग्घी बंध गई. संपोलिया रास्ता रोककर खड़ा हो गया. आज तो सबको खाकर ही मानूंगा. खूब ताकत भी आ जायेगी. कहने लगा-“कोई एक चुपचाप मेरे भोजन के लिये सामने आ जाये, वर्ना सभी को निगल जाऊंगा.” मुखिया छछूंदर ने डरे हुए बच्चों को अपने पीछे समेटते हुए कहा – “ संपोलिये ! मरना तो एक दिन सबको है. लेकिन तेरे जैसों से डरकर एक साथ कायरों की तरह क्यों मरें ?”
“ अच्छा…..?’’ संपोलिया गर्वीली हंसी हंसा. -“दो मिनट में तुझे निगल जाऊंगा. मौत को सामने देखकर भी जबान चलाता है.’’
कांपते हुए बच्चों को सम्भालते हुई छछूंदर ने हिम्मत से काम लिया. -“ हुंह, जिसके सिर पर खुद मौत खड़ी हो, वह हमारा क्या बिगाड़ेगा ?’’
“… मौत ?…किसकी मौत ?’’ – संपोलिया सकपका गया.
छछूंदर ने साहस बटोरकर कहा – “तेरी और किसकी ? लगता है तूने अपने बाप-दादा से सांप –छंछूदर वाली कहावत भी नही सुनी है.’’
संपोलिये की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई. फुफकार कर बोला – “ वह कैसे ?’’
छछूंदर बोला – “ सबको एक साथ तो खा नहीं पायेगा. किसी एक को भी निगलने में तुझे दो मिनट तो लगेगा न ? जैसे ही तूने किसी पर हमला बोला मैं या मेरी छछूंदर पत्नी अपने तेज दाँतो से तेरा गला कुतरकर रख देंगे. समझा तू ? बड़ा आया….”
संपोलिया को काटो तो खून नहीं. सच में…, यह तो सोचा ही नहीं था. फिर भी वह खिसियानी हंसी भरकर बोला – “ चल – चल मुझे डराने की कोशिश मत कर. आज मेरा मूड दुनिया घूमने का है. मैं अपने माँ – बाप की तरह तेरे भी मुंह नहीं लगना चाहता. वर्ना……….. जा भाग यहाँ से.’’ चीटियों से भय खाये संपोलिये ने उनका भी रास्ता छोड़ दिया. छछूंदरों का परिवार मौका पाते ही भाग निकला. आखिर…, जान बची तो लाखों पाये.
लेकिन संपोलिये का मूड और खराब हो गया. इन पिद्दी छछूंदरों की ये औकात ?
आगे बढ़ते ही उसको सामने से हाथी आते दिखाई पड़े. -“ ओह ! जंगल के सबसे बड़े प्राणी लगते हैं. छोटे छछूंदरों की बजाय इन पर रौब जमाने से ज्यादा दबदबा कायम होगा. वह तुरन्त फन काढ़कर रास्ते में जाकर बैठ गया.-“ मुझे सलामी दो, वर्ना एक – एक को डस कर मार डालूँगा.’’
“हट बे संपोलिये ! वरना एक लात पड़ेगी तो चटनी बन जायेगा.’’ हाथी गुर्राया तो संपोलिये को ताव आ गया – “ मुझे डराते हो. लो….. ऐसे नहीं मानोगे.’’ वह दांत निकाल कर डंसने के लिये दौड़ा तो हाथी भड़क गये. भगदड़ मच गयी. धूल का बवंडर उठ गया. संपोलिया बीच में फंस गया. उसे रास्ता नहीं मिल रहा था. तभी एक हाथी का पैर ठीक उसकी पूँछ के पास पड़ा. वह बाल – बाल बचा. ठीक उसके बगल में पड़ा एक नारियल का फल दबकर चटनी बन गया. संपोलिये की रीढ़ में भय की एक ठण्डी लहर दौड़ गयी. वह सरपट भाग निकला. समझ नहीं पाया कि किधर जा रहा है. डर के मारे पीछे पलट कर भी नहीं देखा.
काफी दूर तक भागने के बाद संपोलिया रुका भी तो, अचानक एक तेज रोशनी और शोरगुल कि आवाज से. वह जंगल के किनारे से निकलने वाली रेल की पटरी पर आ गया था और सामने से रेलगाड़ी आ रही थी. तेज रोशनी के साथ, भयंकर आवाज करती बिल्कुल आंधी – तूफान की तरह. संपोलिया की सिट्टी – पिट्टी गुम हो गयी. इस बार उसे सबसे ज्यादा डर लगा. मौत को सामने देखकर उसे पहली बार आभास हुआ कि दूसरों को डराने पर उन्हें कैसा दुख होता होगा. उसे कुछ न सूझा तो जान बचाने के लिये पटरियों के बीच की जगह में घुस गया. पलक झपकते पूरी की पूरी ट्रेन उसके ऊपर से धड़ – धड़ करते हुए गुजर गयी. उसका दिल भी धड़ – धड़ करके बजने लगा था.
उसे लगा कि वह बेहोश हो गया है. उसे होश नहीं कि वह कब तक वहाँ गुमसुम पड़ा रहा. घंटों बाद अचानक अपनी पूंछ में तेज दर्द से संपोलिये की बेहोशी टूट गयी. वे कुछ संपेरे थे, जिन्होंने रेलवे लाइन पार करते हुए संपोलिये को देख लिया था और पूंछ पकड़कर पटरियों के बीच से बाहर खींच लिया था. वे खुशी से चीख रहे थे – “ अरे बड़ा जहरीला सांप मिल गया है.’’ संपोलिया कुछ समझता – भागता तब तक किसी ने उसकी गर्दन जोरों से पकड ली थी. उसे अपनी साँस फंसती हुई सी जान पड़ी. लगा कि अब मौत पक्की है.
संपेरों ने चिल्लाकर कहा – “पहले इसका जहर निकाल लो. ” तभी उसकी गर्दन पर दबाव और बढ़ा, तो उसका मुँह अपने आप खुल गया. दांत बाहर की ओर आ गये. संपेरों ने किसी छोटे बर्तन में बंधे कपड़े पर उसके दांत गड़ा दिये. संपोलिये का सारा जहर “ टप – टप’’ करके उसी बर्तन में गिर गया. ढक्कन बन्द करने के बाद संपेरे बोले – “इसके दांत तोड़ दो वरना किसी को बाद में भी काट सकता है.’’
“ बाप रे…..!’’ संपोलिये की रूह काँप गयी. लेकिन उसे ज्यादा सोचने – समझने का समय नहीं मिला. एक संडसी उसके मुंह में घुसा कर सपेरों ने उसके दोनों दांत तोड़ दिया. वह ठीक से चीख भी नहीं सका और बेहोश हो गया. उसे पिटारी में बन्द कर दिया गया. कई दिन भूखा – प्यासा पड़ा रहा. संपेरे उसे कभी – कभी बाजार में ले जाकर निकालते, लोगों को दिखाते और पैसे कमाते. संपोलिये की हालत खस्ता हो गयी थी. अब उसे अपने माँ – बाप की बातें अच्छी तरह याद आने लगी थीं. काश ! उसने उनकी बातें मान लिया होता तो आज इतने बुरे दिन नहीं आते.
दुनिया का राजा बनने निकला था. दूसरों को डराने के चक्कर में खुद अधमरा हो गया था. उसे अपनी गलती पर बेहद पछतावा हो रहा था. वह हृदय से अपने माँ – बाप को याद करता और ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि उसे मुक्ति दे दो. वह दुबारा किसी को परेशान नहीं करेगा…… और तब शायद एक दिन ईश्वर ने उसकी भी सुन ली.
दुर्लभ जीवों की मुक्ति के अभियान में संपेरों पर भी वन–विभाग का छापा पड़ा. सारे जीवों को मुक्त करवाकर पुनः जंगल में छोड़ दिया गया. संपोलिये को भी मानो नया जीवन मिला. वह अपने माँ – बाप और परिवार से वापस मिल पाया या नहीं, यह तो नहीं पता, किन्तु उसे सीख जरूर मिल गयी कि किसी को डराने – धमकाने से किसी को कुछ नहीं मिलता. बल्कि स्वयं पर ही मुसीबत आ जाती है.
मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद कहानी.
बहुत अच्छी शिक्षाप्रद कहानी !