यज्ञ – कर्मकांड के निंदक उपनिषद
कर्मकांड , यज्ञ आदि करना वैदिक धर्म का अभिन्न अंग माना गया है बिना इसके बिना वैदिक धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है । आर्य समाज तो पांच समय यज्ञ करने के लिए कहता है ।
ईश्वर तक पहुचने का मार्ग कहा जाता है यज्ञो और कम्र्कान्दो को
पर क्या वास्तव में वेदों में वर्णित यज्ञो को और भारतीय शास्त्र सही मानते हैं?
उपनिषदों में वेदों के यज्ञ कर्मकांड की निंदा की गई है , यज्ञ करने वालो को मूढ़ और अज्ञानी तक कहा गया है ।
देखें कैसे –
” प्लवा हयेते अद्रणा यज्ञरूपा अष्टादशोकत्मवर येषु कर्म।
येत्छेय येsभिन्न्द्ती मूढा जरामृत्यु ते पुनरेवापि यन्ति।।
– मुण्डकोपनीषद 1/2/7
अर्थात – ये यज्ञ रूपी नौकाए जिन की संख्या 18 बताई जाती है, अथवा जिन्हें 16 ऋत्विक , यजमान और यजमान पत्नी- इन 18 व्यक्तियों द्वारा साध्य बताया जाता है ,दृढ़ नहीं हैं । जो इन्हें कल्याणकारी मान कर इन्ही में निरत हो जाते हैं वे जन्म और मृत्यु से छुटकारा नहीं पा सकते । बार बार जन्म लेकर वृद्धावस्था और मृत्यु का कष्ट उन्हें सहना ही पड़ता है ।
इसके अलावा कर्मकांड करने वालो को मुर्ख और अज्ञानी कहा गया है-
“एतत श्रेयो येsभिनदंती मूढाः …. अँधा: बाला :
– मुंडकोपनिषद 1/2/7-9
अर्थात – कर्मकांड में ही श्रेय मानने वाले मूढ है, अपने आपको विद्वान समझने वाले ( पर वास्तव में अज्ञान) है, बार बार ठोकरे खाने वाले अंधे और छोकरे हैं।
उपनिषदों में स्पष्ट रूप से वैदिक कर्मकाण्डो और यज्ञो आदि की आलोचना की गई है पर आज भी वैदिक धर्म की दुहाई देने वाले लोग भारत में रोज हजारो किलो कीमती सामग्री यज्ञ आदि के नाम पर आग में जला देते हैं । इस सामग्री में देशी घी, मेवे आदि जला के बर्बाद कर दिए जाते हैं जबकि यही सामग्री जरुरतमंदो के देके उनकी सहायता की जा सकती है। देश कुपोषण मुक्त किया जा सकता है।
जहाँ तक आस्तिक – नास्तिक का प्रश्न है तो इतना ही कहना काफी होगा कि कौन नास्तिक सोता जगता नहीं है चाहे जिस किसी भी जाति सम्प्रदाय का हो और वेद हमेशा सत्य पर आधारित तथ्यात्मक ग्रन्थ है न कि कल्पनाओं पर आधारित | विशेष अध्ययन और ब्रह्मनिष्ठ श्रोत्रीय गुरु की आवश्यकता है |
जिस उपनिषद के माध्यम से यज्ञादि कर्मों के निषेधात्मकता की पुष्टि उपरोक्त लेख में बताई गयी है उसके और गहराई में जाने की आवश्यकता महसूस हो रही है | उपनिषदों को पांचवें वेद के रूप में जाना गया है जिसे वेदान्त भी कहा गया है | वेद के उद्घोष के अनुसार “आत्मैव वेदम सर्वम” के अनुसार-
“विशुद्धविज्ञानविरोचनान्चिता विद्यात्म वृतिश्चरमेती भण्यते | उदेति कर्माखिलकारकादिभिर्निह्न्ति विद्याखिलकारकादिकम ||”
वहीं “याच्छरीरादिषु माययात्मस्तवादिविधेयो विधिवादकर्मणाम | नेतीति वाक्येरखिलं निषिध्य तत ज्ञात्वा परात्मानमथ त्यजेतक्रिया||” – आध्यात्म रामायण-उ० का० पंचम सर्ग |
कर्म देहान्तर की प्राप्ति के निमित्त है न कि मोक्ष के निमित्त | मोक्ष के लिए तो मात्र ज्ञान ही समर्थ है | जिसके लिए इन्द्रिय ज्ञान नहीं | वेदान्त ज्ञान का विचार करते-करते विशुद्ध विज्ञान के प्रकाश से उद्भासित जो चरम आत्मवृत्ति होती है, उसीको विद्या या आत्मज्ञान कहते हैं | इसलिए यज्ञादि कर्म निषेध नहीं, तबतक आवश्यक है जबतक आत्मज्ञान नहीं हो जाता |
और जहाँ तक सामग्रियों के सन्दर्भ में कहा गया है वहाँ यही कहा जा सकता है कि “अधजल गगरी छलकत जाय” से अधिक कुछ नहीं |
अन्त में – भ्रम निवारण आवश्यक है न कि उथली जानकारी के आधार पर भ्रम फैलाने की |
तीन अंधे थे उन्हें एक हाथी मिल गया एक उसका पैर पकड़ कर बोला की यह खम्बा है दूसरा उसकी पुंछ पकड़ कर बोला की रस्सी है तीसरा उसका कान पकड़ कर बोला की पंखा है। नास्तिक लोग जब वेद आदि धर्म शास्त्रों पर अपनी प्रतिक्रिया देते है तब उनकी हालत ठीक वैसी ही होती है। तर्क के स्थान पर कुतर्क देते है। न संस्कृत का ज्ञान, न सत्य को जानने की जिज्ञासा और न ही अन्वेषण करने लायक बुद्धि। बस विरोध करना है, खंडन करना ही केवल मात्र उद्देश्य बन गया है। वैसी ही हालत इस लेख के लेखक की है।
हमेशा की तरह आपने गलत सन्दर्भों के मनमाने अर्थ करके गलत निष्कर्ष निकाले हैं. कोई भी पांच बार यज्ञ करने की बात नहीं करता बल्कि सुबह-शाम दो बार अग्नि-होत्र यानी हवन करने की बात करता है, वह भी समर्थ व्यक्तियों द्वारा. पञ्च प्रकार के यज्ञ अवश्य बताये गए हैं, जो वास्तव में समाज के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों के निर्देश हैं. यज्ञ शब्द का बहुत गहरा अर्थ है. केवल हवन करना यज्ञ नहीं है.
पर यह बात आप जैसे नास्तिकों की समझ में नहीं आएगी. इसलिए ज्यादा लिखना बेकार है.
मुझे संस्कृत तो आती नहीं लेकिन अगर यह सही है तो गलत हो रहा है.