उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 32)
29. दुर्भाग्य का आरंभ
निश्चित समय और बेला पर पिता और गुरुजनों से आशीर्वाद लेकर अपनी सखियों से गले मिलकर राजकुमारी देवलदेवी अपनी अंतरंग सखियों और विशेष दासियों के साथ कुमार भीमदेव के संरक्षण में अपने पति युवराज शंकरदेव से मिलने के लिए अपने बगलाना के महल से निकली। आँखों में पति की मनोहारी छवि बसाये हुए, वह डोली की ओर चली।
ज्यों ही देवलदेवी पालकी के पास पहुँची, वैसे ही माँस का लोथा लिए हुए चील आकाश मार्ग से निकली। और उसकी चोंच से माँस का लोथा छूटकर देवलदेवी के सामने गिरा। देवलदेवी ने ज्यों ही चंद्रमा के समान उज्ज्वल पैर पालकी में रखा, वैसे ही उसके बाई ओर बोलता हुआ सारस का जोड़ा नजर आया। ये अपशकुन देखकर, देवलदेवी की सखियाँ और भीमदेव के सैनिक विभिन्न प्रकार की चर्चा करने लगे।
यह सुन भीमदेव ने कहा ”सुनो सैनिको, सोच-विचार से क्या होगा! जो होनी है, वह होगी। इस नश्वर शरीर को सदा नहीं रहना।“ राजकुमार की ओजपूर्ण बातें सुनकर कहारों ने राजकुमारी की पालकी कंधों पर उठाई।
पालकी के चलते ही, राजकुमारी ने पालकी में अपने साथ बैठी अपनी अंतरंग सखी प्रमिला से कहा ”प्रमिले, न जाने क्यों आज किसी आशंका की अनहोनी से कलेजे में धुकधुकी मची है, अंग फरक-फरक रहे हैं।“
प्रमिला बोली, ”राजकुमारी धैर्य रखें और रामजी पर विश्वास वह जो करेंगे अच्छा करेंगे।“
राजकुमारी बोली, ”प्रमिले, आज रात्रि एक विचित्र स्वप्न से आँख खुल गई, फिर प्रातःकाल तक उस स्वप्न का अर्थ जानने का प्रयास करती रही। पर निष्फल रही।“
”राजकुमारी, स्वप्न का वर्णन करें, संभवतया हम कुछ अनुमान लगा सकें।“
”हमने देखा, एक देव अपने समस्त अंगों में भस्म लगाए हैं, उनकी जटाएँ बड़ी घनघोर और लंबी है। नेत्र दहकते हुए अग्नि के टुकड़े प्रतीत होते थे। उनके दायीं ओर सुअर और बायीं ओर काला कुत्ता चल रहा था। भौहें हल्के लाल रंग की थी और…“
अभी राजकुमारी देवलदेवी इतना ही वर्णन कर पाई थी, कि नेपथ्य से ‘अल्लाह-हो-अकबर’ की आवाज सुनाई पड़ी। फिर ‘अल्लाह-हो-अकबर’ का शोर सुनाई पड़ा। देवलदेवी ने पालकी पर पड़े रेशमी पर्दे को सरकाकर बाहर देखा तो उन्हें एक उमड़ता हुआ हुजूम आता दिखाई दिया। यह गुजरात के सूबेदार अल्प खाँ का लश्कर था। अगले कुछ ही क्षण लगे हो वह लश्कर आ धमका। चारों तरफ मारो-मारो और ‘अल्लाह-हो-अकबर’ का शोर मच रहा था।
राजकुमार भीमदेव एक वीर योद्धा था, उसके साथ कोई सात-आठ सौ यादव वीर थे। उसने तुरंत एक सैनिक बगलाना की ओर, और दूसरा सैनिक देवगिरी की ओर भेजा। मुस्लिम सेना के इस आकस्मिक आक्रमण की सूचना देने और सहायता भेजने के लिए।
हाथ में नग्न तलवार लिए वह वीर राजकुमार अपने सैनिकों को ललकारते हुए बोला ”ऐ देवगिरी के वीर सैनिकों, परीक्षा की घड़ी आ गई है। आज हम वैरियों को अपने शौर्य से भस्मीभूत कर देंगे, वीरो यह समय सोचने-विचारने का नहीं अपनी तलवार से शत्रुओं का शीश उतारने का हैं।“
भीमदेव की बात सुनकर उस छोटी सी टुकड़ी में उत्साह का संचार हुआ। सबने तलवार निकालकर अपने प्राण शेष रहते, धर्म और राजकुमारी देवलदेवी की रक्षा करने की शपथ ली। राजकुमार भीम अपने घोड़े को बढ़ाकर देवलदेवी की पालकी के समीप लाया और बोला ”भाभी आशीर्वाद दें, और मुझे युद्ध की अनुमति प्रदान करें। एक निवेदन और है भाभी!“
”कहो कुमार, क्या कहना चाहते हो?“
”हे यादव कुल की कुलवधू सहृदयी राजकुमारी देवलदेवी, मेरी मृत्यु से पूर्व यह विधर्मी आपको स्पर्श न कर सकेंगे। पर यदि कुछ अनहोनी हो गई तो आप स्वयं को जीवित रखेंगी, किन्हीं भी परिस्थितियों में और हमारे अपमान का प्रतिशोध लेंगी कभी सुअवसर आने पर।“
देवलदेवी कुछ देर सोचने के उपरांत, पालकी से बाहर सिर निकालकर बोली ”ठीक है कुमार, हम आपको वचन देते हैं, लाख अत्याचार सहने के बाद भी हम स्वयं को जीवित रखेंगे और प्रतिशोध लेंगे उस खिलजी राजघराने से जिन्होंने यूँ हमारे धर्म और कुल का अपमान किया। हम उस प्रतिशोध का सुअवसर स्वयं निर्मित करेंगे। अब जाओ कुमार धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करो, मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, युद्ध भैरव आपकी रक्षा और सहायता करें।“
जब राजकुमार वहाँ से जाने को उद्यत होता है तो प्रमिला पालकी से सिर निकालकर उसे देखती है। बस एक क्षण को राजकुमार भी उसे देखता है फिर घोड़े को ऐड़ लगाकर मुस्लिम सेना की ओर बढ़ जाता है।
बहुत मार्मिक उपन्यास है यह ! आक्रान्ताओं के सामने हिन्दू राज परिवार अलग अलग होने के कारण कितने असहाय थे. अगर वे मिलकर मुकाबला करते तो देश कभी विधर्मियों का गुलाम नहीं हो सकता था.