मेरी कहानी- 1
कभी कभी सोचता हूँ कि अपनी कहानी लिखूं लेकिन कैसे, कभी समझ ही नहीं पाया …
यह पढ़कर आप बहुत हैरान होंगे कि मेरी सही जनम तिथि मुझे तो क्या मालूम होगी, मेरे घर वालों को भी पता नहीं, यहाँ तक कि मेरी माँ को भी नहीं. मेरा जनम राणी गाँव जो पंजाब के कपूरथला डिस्ट्रिक्ट में है हुआ . उस वक्त मेरे पिताजी ईस्ट अफ्रीका में थे जो आज केन्या के नाम से जाना जाता है. मेरे दादा जी और माँ कभी स्कूल नहीं गए, वोह बिलकुल अनपढ़ थे, शाएद यह वजह होगी कि उन्होंने कोई मेरा रिकार्ड नहीं रखा.
उस वक्त इंडिया अंग्रेजों का गुलाम था. भारत की जनसंख्या का रिकार्ड रखने का ढंग भी कुछ अजीब था जो गाँवों में एक ऐसे किसम का था जो किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता. हर गाँव में एक चौकीदार हुआ करता था जिस के काम तो बहुत हुआ करते थे, लेकिन एक काम था, जो भी बच्चा गाँव में पैदा हो, वोह एक महीने में जितने बच्चे पैदा हुए हों, उनके नाम, माता पिता के नाम लिख कर पुलिस स्टेशन जा कर दर्ज करा देता था और पुलिस वाले सारे रिकार्ड डिस्ट्रिक्ट कपूरथला को भेज देते थे. जो नाम चौकीदार लिखाता था बहुत दफा वोह अपनी मर्ज़ी से लिख देता था क्योंकि बर्थ सर्तीफीकेट की तो किसी को जरुरत होती नहीं थी. बहुत दफा ऐसा भी होता था कि चौकीदार पुलिस स्टेशन जाता ही नहीं था, इस लिए बहुत नाम ऐसे ही रह जाते थे और जब बच्चा सकूल जाता था तो माँ बाप जो मर्ज़ी जनम तारिख लिखा देते थे.
यह मुझे उस वक्त पता चला जब मैं अपनी सही जनम की तारिख मालूम करने के लिए १९५८ में कपुरथले गया . मैं हैरान हो गिया जब मेरा कहीं भी नाम नहीं था. एक बात और भी थी कि उन दिनों कोई सड़क तो होती नहीं थी, और बरसात के मौसम में तो चौकीदार कई महीने जाता ही नहीं था. हमारे गाँव को पोलिस स्टेशन फगवाड़ा शहर लगता था, जो तकरीबन दस किलोमीटर दूर है लेकिन उन दिनों फगवाड़े जाना भी एक मुहिम होती थी . गाँव में पढ़े लिखे लोग दो चार ही होते थे , बाकी सब गाँव में ही काम करते थे जो अनपढ़ ही होते थे. लेकिन सभी लोग एक दुसरे पर निर्भर हुआ करते थे.
हमारे गाँव में बहुत जातिआं थीं, जैसे जट जो खेती करते थे, तरखान जो लकड़ी का काम करते थे, लुहार जो लोहे का काम करते थे, झीवर या मिश्र थे जो सुबह सुबह कूएँ से पानी भर कर हर घर के घड़े भर देते थे, नाई होते थे जो बाल काटने के अलावा शादी समारोहों में भी काम करते थे, आप तौर पर लोग उन्हें इज्जत से राजा जी कहा करते थे , छीम्बे होते थे जो अक्सर लोगों के कपडे सी कर गुज़ारा करते थे , कुछ घर ब्राम्हणों के थे जिन में ज़िआदा खेती ही करते थे , सिर्फ एक घर था जो जोतिश और शादी विवाह में काम करते थे . इस के इलावा आह्लुवालिए जो बाकी लोगों से कुछ सभ्य थे, कुछ घर घुमिआरों के थे जो मट्टी के बर्तन बनाते थे और दिवाली के समय मट्टी के दिए बनाते थे.
गाँव के इर्द गिर्द तीन बस्तिआ चर्मकार लोगों की थीं जो गाँव से मरे हुए पशुओं को ले जा कर उन की खलड़ी उतारते थे जिस से वोह चमड़ा बनाते थे और जूते बना कर गाँव में बेच देते थे और जब काम न हो तो दरख्त काटने का काम करते थे. और चूहड़े या भंगी होते थे जिन के अपने अलग घर थे , यह लोग घरों में पशुओं की जगह को साफ़ करते थे. दो घर सुनिआरों के होते थे जो शादीओं के लिए गहने बनाते थे, दो हकीम थे, जो दवा दारू का काम करते थे. इन में से एक डाक्टर, जिस को हकीम ही कहते थे, पोस्ट ऑफिस भी चलाता था और उस के साथ एक पोस्ट मैन था जो गाँव की डाक दुसरे गाँव छोड़ने जाता था और वहां से हमारे गाँव की पोस्ट ले आता था और सारे गाँव में बांट देता था और कोई मनी आर्डर हो उस को भी जिस का हो उस के घर पुहंचा देता था.
सारे गाँव में एक हलवाई की दूकान होती थी जिस में लड्डू बेसन जलेबिआं सीरनी पकौड़े ही होते थे क्योंकि ज़िआदा खरीदने की लोगों की हिम्मत नहीं होती थी. हर गली में एक छोटा सा कूआं जिस को खूही कहते थे, होता था. और जब की बात मैं करता हूँ यह आजादी से पहले की है और तब मुसलमानों के इलग्ग से दो कूएँ होते थे और एक मस्जिद और दो उनके मज़ार होते थे. यों तो मुसलमानों का इलग्ग मुहल्ला हुआ करता था, लेकिन कुछ उन के घर हमारे मुहल्ले में भी थे . हम उन के घरों में उन के बच्चों के साथ खेलते रहते थे लेकिन हम उन को छू नहीं सकते थे, अगर हमारे घर वालों को पता चल जाता कि हम ने उन को छूया है तो वोह हमारे ऊपर पानी छिडकते थे ताकि हम शुद्ध हो जाएं , यह एक वहम ही था जो अब ख़त्म है. इस का मतलब यह नहीं कि उन को नफरत से देखते थे लेकिन एक तरह की परम्परा ही थी जिस को कोई नहीं जानता था कि ऐसा क्यों है.
हमारे घर के नज़दीक एक मुसमान तेली रहता था जो कोहलू से सरसों का तेल निकाला करता था और पास ही दो जुलाहों के घर थे जो खादी का कपडा बनाते थे. लोगों में पियार बहुत था. मेरे दादा जी के खेत और एक मुसलमान, जिस का नाम गुलाम नबी था, जिस को दादा जी सिर्फ नबी कह कर ही बुलाते थे उन के खेत पास पास थे. इसी लिए नबी और दादा जी ने आधे-आधे पैसे खर्च के सांझा कूआं लगाया था. नबी दादा जी के पक्के दोस्त थे और मुझे याद है नबी और उसकी पत्नी मुझ से बहुत पियार किया करते थे. अक्सर मैं उन के एक लड़के के साथ खेला करता था जिस का नाम था नीफ या हनीफ था. मुझे याद है मुसलमान लोग कोई तिओहार मनाते थे और गुड से बने चावल बांटते थे और चुपके से हम भी ले लेते थे लेकिन हम घर नहीं बताते थे क्योंकि डांट पड़ने का डर होता था.
गाँव में हर जात का अपना गुरदुआरा होता था और हमारे गाँव में छे गुरदुआरे थे और एक मंदिर भी था. आप हैरान होंगे कि गाँव में एक ठेका भी था जिस में पोस्त और अफीम बेचीं जाती थी. अक्सर हम पोस्तिओं को पोस्त पीते हुए देखने जाते थे. हर पोस्ती का अपना अपना मट्टी का बना बड़ा सा बर्तन होता था जिस को वोह दौरा बोलते थे. इन लोगों को पोस्ती बोलते थे, वोह ठेके जाते, पोसत खरीदते और वहीँ से रखे हुए दौरे में पोसत डालते और साथ ही पानी पा देते, फिर उस को खूब हाथों से मलते. जब पोसत का असर पानी में निकल आता फिर उस में शक्कर डाल कर हाथों से ही मलते . आखिर में कपडे में से छान कर ग्लासों में डाल कर सभी मिल कर एक-एक करके उस पोसत को पीते , उन की आँखें नशे से बंद होने लगती. उन को झूमते देख हम हँसते.
चलता …
यह लगभग कौन से सन की बात होगी?
आदरणीय भाई साहब आपकी जीवन कथा बहुत रोचक है और आपकी लेखनी में जादू है काफी समय से इसे पड़ने का इंतजार था । बहुत सुन्दर ढंग से अपने जनम स्थान और वहां रहने वाले लोगो का वर्णन किया है , बहुत बढ़िया ! जीवन कथा की शुरुआत के लिए आप को बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाए |
मंजीत , बहुत बहुत धन्यवाद , मैं पुरी कोशिश करूँगा कि इस को अंत तक ले जाऊं .
८ दिवसीय यात्रा से २२ फ़रवरी को लोट यह कड़ी पढ़ सका। आपने लगभग ७० वर्ष पूर्व की सामाजिक ग्रामीण अंचलों की स्थिति का सजीव वर्णन किया है। इसके लिए आपको बधाई। सभी घटनाएँ बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत की हैं। आपको हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , आप का धन्यवाद .
काफी रोचक संस्मरण अनूठे अंदाज में.
भाई साहब, आपकी लेखनी में जादू है. जो एक बार पढना शुरू करता है वह पूरी किये बिना छोड़ ही नहीं सकता. आप इसी तरह लिखते रहिये और हम छापते रहेंगे. आपका जीवन हजारों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है.
धन्यवाद विजय भाई , मैं कोशिश करता रहूँगा.
आपकी लेखनी गाँव का अच्छा दृश्य बनाई भाई जी ….. अगली कड़ी का इंतजार
विभा बहन, आप का बहुत बहुत धन्यवाद . बहुत देर से मन में कुछ कुछ हो रहा था कि अपनी कथा लिखूं लेकिन न तो मुझे को इस का कोई ढंग आता था कि इतनी अनगिनत बातें कैसे लिखूं ना ही सिहत इजाजत देती थी किओंकि ना तो मैं बोल सकता हूँ ना फ्रेम के बगैर चल सकता हूँ , आखिरकार रात को हौसला किया और शुरू कर दिया . इसी तरह आप लोगों का हौसला मिलता रहा तो मन का गुबार निकाल सकूँगा .
gurmel sinh bhamra ji ….aapka svagat hai ….aatm katha ka apna alag hi mahtv hai ….sach ka sach se samna hota hai ..aasha hai shuru se ant tak aapki kahaani rochak hogi .. kishor
मेरा जनम राणी गाँव जो पंजाब के कपूरथला डिस्ट्रिक्ट में है हुआ..ek uttar to mila ..hahaha
किशोर भाई , आप भी कहीं पड़ोसी तो नहीं ?
किशोर भाई , आप का बहुत बहुत धन्यवाद . मैं पूरी कोशिश करूँगा कि एक एक बात को लिखूं जो मैं इतने वर्षों से संभाल कर रखे हुए हूँ . एक और सच भी लिख दूँ कि सब से पहले मैं ने अपनी कहानी इंग्लिश में १९९७ में शुरू की थी , उस का मतलब सिर्फ इतना ही था कि मैं अपने बच्चों को अपने फैमिली ट्री के बारे में बता सकूँ किओंकि वोह यहाँ ही पैदा हुए हैं और भारत सिर्फ दो दफा ही गए हैं . जब मैंने उस वक्त लिखना शुरू किया था तो मन में सिर्फ यह ही था कि एक दो पेजज्ज में लिख दूंगा लेकिन जब मैंने शुरू किया तो पता ही नहीं चला कि २२ पेजज लिख दिए और अभी तक मैं बचपन से ही नहीं निकला था . फिर मैंने सोचा कि जो मैं पंजाबी में लिख सकता हूँ वोह अंग्रेजी में नहीं . हिंदी तो मुझे इतनी आती नहीं थी किओंकि सिर्फ दो साल ही पड़ी थी , यह तो बाद में हिंदी की किताबें पड़ी तो कुछ कुछ पता चला . फिर सब वहीँ छोड़ कर कापी अलमारी में रख दी और भूल ही गिया . उस के बाद गोवा में समुन्दर में एक एक्सीडैंट की वजह से डिसेबल हो गिया , फिर तो सवाल ही पैदा नहीं होता था . पिछले हफ्ते अचानक वोह कापी मुझे नज़र आई तो कुछ पेजज पड़े तो फिर मन में उबाल आ गिया , अब देखो भगवान् की कृपा से अगर कम्प्लीट हो जाए तो मुझे अपनी डिसेबिलिटी का कोई रंज नहीं रहेगा.