आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 7)
श्री सैयद शकील परवेज़ चिश्ती (संक्षेप में एसएसपी चिश्ती) बहुत सज्जन व्यक्ति हैं। देखने में कुछ खास नहीं, लेकिन दिल के बहुत अच्छे हैं। मेरी काफी मदद किया करते थे। वे धीरे-धीरे उन्नति करते हुए वरिष्ठ प्रबंधक के पद पर पहुँच चुके हैं। हमने लखनऊ में साथ-साथ मकान खरीदे थे और उनका घर हमारे ही सेक्टर में है। ईद के अवसर पर हम प्रायः उनके घर जाया करते थे और सेवइयाँ खाते थे। मैं उनसे भी बहुत दिनों से मिल नहीं पाया हूँ।
श्री आर.के. पाणी हमारे सेक्शन में एक अन्य दक्षिण भारतीय थे। छोटा कद और भरा-भरा शरीर। वे कम्प्यूटर विषय के अच्छे जानकार थे और काफी मेहनती भी। लेकिन एच.ए.एल. में संतुष्ट नहीं थे। मौका मिलते ही वे उषा सिलाई मशीन कम्पनी में साॅफ्टवेयर इंजीनियर बनकर चले गये, हालांकि उनका प्रोमोशन एच.ए.एल. में हो चुका था। उनका कार्यालय नेहरू प्लेस, नई दिल्ली में था। एक बार जब हम 7-8 अधिकारी यूनिक्स की ट्रेनिंग लेने दिल्ली गये थे तो श्री पाणी से मुलाकात हुई थी। तब तक उनका विवाह हो चुका था और वे करोलबाग में रहते थे। उनका आग्रह था कि एक दिन हम सभी अधिकारी उनके यहाँ रात्रि भोजन पर पधारें, परन्तु समय की कमी के कारण हमने उनसे क्षमा माँग ली।
श्री संजय मेहता गुजराती मूल के थे और भोपाल के रहने वाले थे। उनसे मेरी सबसे अधिक घनिष्टता थी। वे अपने स्वभाव के अनुसार मेरी सबसे अधिक सहायता करते थे। उनके विवाह में शामिल होने हम कई अधिकारी उज्जैन गये थे। उनकी श्रीमतीजी अमिता बहुत सुन्दर, सौम्य और स्नेहशील हैं। वे वैसे तो गाँधीवादी थे और खादी के कपड़े पहनते थे, परन्तु एच.ए.एल. में असंतुष्ट होने से अधिक वेतन की नौकरी मिल जाने पर दुबई चले गये थे। उस समय तक मैं भी एच.ए.एल. छोड़ चुका था और बैंक में लखनऊ में ही था। हालांकि वे दुबई जाकर भी खुश नहीं थे, लेकिन किसी तरह उन्होंने अपने काॅण्ट्रैक्ट का समय पूरा किया और फिर मौका मिलते ही अमरीका चले गये। आजकल शायद अमरीका में ही हैं। जब तक वे दुबई में थे, तब तक उनसे पत्र-व्यवहार होता था, परन्तु अमरीका जाने के बाद सम्पर्क कट गया है। उनका ई-मेल पता भी मेरे पास नहीं है। उस समय उनके केवल एक पुत्री थी, जिसका नाम ‘भक्ति’ है। अब कितने बच्चे हैं मालूम नहीं।
(पादटीप : मेहता जी से लगभग २५ वर्ष बाद मेरा संपर्क हो चुका है. लेकिन अभी उनके दर्शन नहीं हो पाए हैं. वे अमरीका के नागरिक बन गए हैं और वहां विश्व हिन्दू परिषद् के बड़े कार्यकर्त्ता हैं. उनके एक पुत्री और एक पुत्र हैं. श्री आर के पाणी भी अमेरिका में ही हैं. उनसे ईमेल से मेरा संपर्क बना हुआ है.)
श्री रवि आनन्द हमारे वित्तीय सलाहकार थे। अधिक उम्र के बावजूद अविवाहित थे और मेरे एच.ए.एल. छोड़ने के बाद ही उनका विवाह हुआ था। परन्तु तब मैं बनारस में था, इसलिए उनके विवाह में शामिल नहीं हो सका। श्री संजय मेहता के साथ वे भी दुबई गये थे उसी कम्पनी में। जब तक वे एच.ए.एल. में रहे, तब तक हमारे वित्तीय सलाहकार का दायित्व निभाते रहे। वास्तव में वे रुपये-पैसों के मामले में बहुत कुशल थे। एच.ए.एल. में उन्हें काम भी ऐसा ही मिला हुआ था अर्थात् सबके वेतन की गणना करने और कम्प्यूटर से उसकी रिपोर्ट निकालने का। वे अपने इस दायित्व को बहुत कुशलता से निभाते थे। मैं भी कभी-कभी उनकी मदद करता था। जब तक वे वेतन गणना करते रहे, तब तक एक भी शिकायत ऐसी नहीं आयी थी कि किसी का वेतन गलत बन गया हो। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। एच.ए.एल. छोड़ने पर जिन दो व्यक्तियों से बिछुड़ने का मुझे सबसे अधिक दुःख हुआ था, वे दोनों श्री संजय मेहता और श्री रवि आनन्द हैं।
उस समय हमारे सेक्शन के अधिकारियों ने एक सोसाइटी सी बना रखी थी, जिसके इंचार्ज भी श्री रवि आनन्द थे। इस सोसाइटी में हम प्रतिमाह 50 रु. या उसके गुणकों में राशि जमा करते थे और आवश्यकता पड़ने पर वहीं से ऋण भी ले लेते थे। इन ऋणों का जो ब्याज आता था, वह साल के अन्त में शेयरों के अनुपात में सबमें बाँट दिया जाता था। मैंने 4 शेयर खरीद रखे थे अर्थात् रु. 200 प्रतिमाह जमा करता था। मैंने एक-दो बार कर्ज भी लिया था, लेकिन जल्दी ही वापस कर दिया था। इस सोसाइटी से ब्याज के रूप में सबसे अधिक आय मुझे होती थी, क्योंकि मैं सामान्यतया कर्ज नहीं लेता था और सबसे ज्यादा शेयर मेरे ही थे। इस सोसाइटी में वेतन मिलते ही सबको अपने शेयरों की राशि और कर्ज की किस्तें जमा करनी पड़ती थीं। यदि कोई व्यक्ति अपनी राशि समय पर नहीं देता था, तो उस पर भी ब्याज लग जाती थी। श्री रवि आनन्द इस सोसाइटी का हिसाब-किताब बहुत अच्छी तरह रखा करते थे। उनसे कभी किसी को कोई शिकायत नहीं हुई और आवश्यकता पड़ने पर कितना भी ऋण आसानी से मिल जाता था। साल में एक बार सोसाइटी की बैठक होती थी, जिसमें हिसाब बताया जाता था और जलपान भी होता था।
दोपहर में हम लोग साथ मिलकर खाना खाते थे। मैं प्रायः केवल रोटियाँ बना ले जाता था। श्री रवि आनन्द सब्जी बहुत लाते थे, इसलिए मैं खूब आराम से खा लेता था। वहाँ दोपहर के भोजन में बहुत आनन्द आता था। ज्यादातर अधिकारी तो पास में ही रहते थे, इसलिए खाना खाने अपने घर चले जाते थे। जो लोग दूर रहते थे, वे खाना लेकर आते थे। एक मेज पर कम्प्यूटर का कागज बिछाकर सब अपनी-अपनी सब्जियाँ उलट देते थे और फिर उनसे अपनी- अपनी रोटियाँ खाते थे।
(पादटीप : श्री रवि आनंद से भी मेरा संपर्क लगभग २५ वर्ष बाद हुआ. अब वे भी अमेरिका के नागरिक हैं, लेकिन हर साल लखनऊ आते रहते हैं. लखनऊ में ही मैंने पुनः उनके दर्शन किये हैं.)
श्री शशिकांत लोकरस मराठी थे। उनके बड़े भाई भी एच.ए.एल. में अधिकारी के रूप में सेवा कर रहे थे। उनके साथ भी मेरे अच्छे और घनिष्ठ सम्बंध थे। मेरे एच.ए.एल. छोड़ने के कुछ समय बाद ही वे भी एच.ए.एल. छोड़कर ग्वालियर में बिरला की किसी कम्पनी शायद ग्वालियर रेयंस में चले गये थे।
श्री ज्ञानेन्द्र कुमार गुप्ता, श्री आलोक खरे और कु. किरण मालती अखौरी ग्रेजुएट इंजीनियर ट्रेनी के रूप में एक साथ एच.ए.एल. में आये थे। इनमें श्री गुप्ता लखनऊ के ही थे और लखनवी स्टाइल के नमूना थे अर्थात् वे बोलते तो बहुत मीठा थे, लेकिन काइयांपन दिखाने से बाज नहीं आते थे। इसलिए मैं उनसे सुरक्षित दूरी पर ही सम्बंध रखता था। बाद में वे मुझसे पहले ही एच.ए.एल. छोड़कर किसी अन्य सरकारी कम्पनी में चले गये थे। मैं उनके विवाह में शामिल होने जमशेदपुर नहीं जा पाया था, परन्तु रिसेप्शन में शामिल हुआ था।
श्री आलोक खरे रीवा (म.प्र.) के रहने वाले थे और काफी हँसमुख और मिलनसार थे। उनका विवाह जबलपुर में हुआ था, जिसमें मेरेे सहित 3-4 अधिकारी शामिल हुए थे। विवाह के बाद हमने नवदम्पति को पार्टी भी दी थी। वे भी मेरे सामने ही एच.ए.एल. छोड़कर रीवा की किसी कम्पनी शायद रीवा सीमेंट में चले गये थे।
(पादटीप : सर्वश्री लोकरस, गुप्ता एवं खरे आजकल अपनी-अपनी कंपनियों में ऊंचे पदों पर हैं. श्री गुप्ता एवं श्री खरे से मेरा फेसबुक पर संपर्क है.)
(जारी…)
विजय भाई , आप के साथिओं और मित्रों का पड़ कर मज़ा आता है किओंकि यह सब मिलें या ना मिलें लेकिन जिंदगी का एक अहम् हिस्सा होते हैं . मेरा एक दोस्त अचानक ४० साल बाद मिला था , यह भी एक अजीब घटना है . बाराह तेराह साल की बात है मैं टाऊन की पारक में वॉक के लिए जाया करता था . पार्क के राऊंड चक्कर से एक किलोमीटर हो जाता था . मैं जब चलता तो दुसरी तरफ से एक सरदार जी बहुत लम्बी दाह्ड़ी में आते और हम समाइल करते हुए आगे बड जाते . जितने भी चक्कर लगाते हर दफा हम समाइल करते आगे बड जाते . इस तरह कई महीने चलता रहा . एक दिन मैंने उस को खड़ा करा लिया और कहा , सरदार जी हम अपनी सिहत के लिए चलते हैं, कियों ना हम दोनों एक तरफ चलने लगें ? वोह मुस्करा पड़े और हम एक तरफ इकठे चलने लगे . कुछ दूर जा कर वोह बोले ! अगर बुरा ना मनाओ तो एक बात पूछूं ? आप गुरमेल सिंह तो नहीं हैं ? मैंने उस की तरफ धियान से देखा लेकिन कुछ समझ नहीं आया . फिर वोह बोला , मेरा नाम जोगिन्दर सिंह है , हम दसवीं में A सैक्शन में पिछली बैंच पर बैठते थे . एक दम मुझे पुरानी याद आ गई और मैं उस के गले लिपट गिया . इस के बाद तो हम रोजाना मिलते लेकिन उस की अब मृतु हो चुक्की है. जितने देर हम मिलते रहे बस सकूल की और टीचरों की बातें कर कर हंसा करते . बस वोह दिन वोह ही होते हैं.
हा हा हा भाई साहब, आपका संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा.