मेरी कहानी – 2
मेरी माँ अक्सर बहुत बातें किया करती थी। वोह स्कूल तो गई नहीं थी लेकिन थोड़ी सी पंजाबी लिखना पढना जानती थी और मज़े की बात यह कि वोह कुछ कुछ हारमोनियम भी बजाना जानती थी. शायद यह उस ने मेरे पिता जी से सीखा होगा क्योंकि पिता जी गुरदुआरे में कीर्तन किया करते थे और गाँव में बहुत सी शादियां भी उन्होंने कराई थी। और मेरे पिता जी अफ्रीका में भी काम के अलावा गुरदुआरे में पार्ट टाइम ग्रंथि भी थे जिस से उसकी आमदनी में इज़ाफ़ा हो जाता था।
बहुत सी बातें मुझे मेरी माँ से ही पता चलीं। हमारे घर में बहुत स्त्रीआं आ कर चरखा चलाती थीं और कभी गातीं, कभी गप्प शप्प करतीं और मैं वहां बैठा उनकी बातें सुना करता था, यह आदत मुझे शुरू से ही पड़ चुकी थी, मुझे इस में बहुत आनंद आता था। कभी कभी वोह भूत चुड़ैलों की बातें करती और मैं मन ही मन में भूत चुड़ैलों की तस्वीरें बनाने लगता। मेरी माँ को कहानीआं भी बहुत आती थी, एक तो अभी तक याद है और वोह इतनी भावुक हो कर कहानी सुनाती थी कि मैं एक भी लफ़ज़ मिस ना करता. उन दिनों इस्त्रीआं घर में ही चक्की से आटा पीसती थीं और अक्सर कुछ लड़किआं हमारे घर में ही रात को आ कर आटा पीसती और हमारे घर में ही सो जाती। क्योंकि गाँव में आटा पीसने की मशीन ही नहीं थी, इस लिए आटा घर में ही पीसा जाता था।
एक रात मेरी माँ ने कहानी सुनाई जो मुझे कभी भूली नहीं. पिता जी दो या तीन साल अफ्रीका में काम करके इंडिया आ जाया करते थे। इंडिया आ कर मेरे दादा जी के साथ काम कराते क्योंकि वोह अपने खेतों में काम किया करते थे. फिर कुछ देर रह कर वापिस अफ्रीका चले जाते। इस दफा जब पिता जी ने इंडिया आना था तो उन्होंने हमेशा की तरह आने के बारे में खत लिखा। घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। उस समय सारी डाक बाई सी आती थी और बहुत हफ्ते लग जाते थे खत को इंडिया पहुंचने में. जब पिता जी उन के बताये वक्त पर नहीं पुहंचे तो घर में चिंता होनी सुभावक ही थी। कई हफ्ते हो गए लेकिन पिता जी नहीं आये. कोई टेलीफून सिस्टम भी नहीं होता था। आखिर पिताजी दो हफ्ते लेट आये। सारा गाँव उन को मिलने के लिए आया और सभी देर से आने का कारण पूछ रहे थे।
मेरे पिता जी सारे गाँव में पहले शख्स थे जो बिदेस गए थे इस लिए जब भी पिताजी अफ्रीका से आते सारा गाँव मिलने को आता। तो पिताजी ने सब कहानी बताई कि जब वोह किसंमू सी पोर्ट से चले तो वोह २५ इंडियन थे जिस में कुछ मुस्लिम, कुछ हिन्दू और कुछ सिख थे। उस समय अंग्रज़ों की तरफ से इंडियन लोगों के साथ वितकरा बहुत किया जाता था , इस लिए वोह सभी एक साथ ही रहते थे। हिन्दू सिख हर सुबह शाम पाठ पूजा करते और मुस्लिम अपनी नमाज पड़ते। स्वेज कैनाल पार करते ही समुन्दर रफ हो गिया और जहाज़ डिको डोले खाने लगा, लगता था कि जान खतरे में पड़ रही है। सब भगवान को याद करने लगे। जब कुछ शांत हुआ तो जहाज़ की रफ़्तार बहुत धीमी हो गई थी। इस तरह कई दिन लग गए शायद जहाज़ का रास्ता बदल दिया गिया था। कई लोग बीमार पड़ गए। सभी ने मानत मानी कि अगर वोह सुख शान्ति से बौम्बे सीपोर्ट पौहंच गए तो घर जाने से पहले वोह सी पोर्ट से उत्तर कर गुरदुआरे जाएंगे और अखंडपाठ रखवाएंगे। जब वोह सीपोर्ट से बाहिर आये तो बहुत लोग आये हुए थे शायद लोगों को पता चल गिया होगा की जहाज़ खतरे से बाहिर आया है. वोह लोग उन लोगों को गुरदुआरे ले गए और अखंडपाठ रखवा दिया जो तीन दिन चला और फिर कुछ दिन आराम करके वोह पंजाब की ट्रेन पकड़ कर घर आये. यह कहानी कितनी सच्ची है कितनी मनघडंत मुझे नहीं पता, लेकिन मैंने हूबहू उसी तरह लिखी है जैसे माँ ने बताया था।
गाँव में वापिस आ कर कुछ दिनों बाद पिता जी को एक मकान बनाने का ठेका मिल गिया और वोह इस काम में मसरूफ हो गए। माँ बताया करती थी कि पिता जी बेकार में वक्त बर्बाद करने के आदी नहीं थे, उनको मकान बनाना और कारपेंटर का काम करना आता था, इसके इलावा वोह गुरदुआरे में कीर्तन भी करते। कुछ महीनों में जब काम खत्म हुआ तो पिता जी अफ्रीका जाने के लिए फिर सोचने लगे, तो दादा जी बोले, “क्यों नहीं तू यहां ही इंडिया में काम ढून्ढ ले, बच्चे छोटे हैं और मैं भी ज़्यादा धियान नहीं दे सकता.” पिता जी कई दिन सोचते रहे, फिर अचानक उन का कोई दोस्त देहरादून को काम के लिए जा रहा था। उस दोस्त ने पिताजी को भी वहां जाने के लिए कहा , पिताजी ने सोच कर वहां जाने का फैसला कर लिया। और कुछ दिनों के बाद वोह दोस्त के साथ देहरादून चले गये.
एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मुझ से दो साल बड़ी मेरी बहन थी और उस से दो साल हमारा बड़ा भाई था, मुझ से छोटे भाई ने १९४७ में जनम लिया जिस का मुझे काफी पता है. कुछ महीने पिताजी देहरादून काम करके मेरी माँ और मुझे दोनों को वहां ले गए, बड़े भाई और बहन पीछे दादा जी के पास रहे। यह देहरादून मेरी ज़िंदगी का वोह हिस्सा है जो मुझे बहुत पियारा है. अक्सर लोगों को बचपन की घटनाएं याद रहती हैं लेकिन बाद में हुई बहुत सी घटनाएं भूल जाती हैं. जो मुझे याद हैं , मेरी माँ बहुत हैरान होती थी कि मैं तो उस वक्त मुश्किल से दो ढ़ाई वर्ष का हूँगा, फिर मुझे यह बातें कैसे याद रह सकती हैं ? लेकिन यह सही है कि एक तो मुझे यह भी याद है कि माँ अक्सर मुझे कंधे पर बिठाया करती थी , दूसरे जिस मकान में हम रहते थे हम उस के एक चुबारे में रहते थे और दूसरे चुबारे में एक और मिआं बीवी रहते थे जो आपिस में लड़ते झगड़ते रहते थे। एक दिन उस औरत ने गुस्से में आ कर जोर से दीवार में रोटीआं बनाने वाला वेलन मारा जिस से वेलन टूट गिया और फिर उस का पति दूसरे दिन उस वेलन को रिपेअर कर रहा था और हंस रहा था।
एक और घटना जिस को तो भूलना ही मुश्किल होगा, वोह था एक मंगता जिस का नाम था बाला। वोह बहुत गंदे कपडे पहनता था और उसके हाथ में होता था एक लोहे का बर्तन जिस में वोह भीख मांगता था। एक दिन माँ उस बाले को कहने लगी ,ए बाले ! हमारा गेली रोटी बहुत खाता है ( बचपन में मुझे गेली बोलते थे). बाला मुझे लाल लाल आँखों से देखता हुआ बोला ” रोटी ना बहुती खाया कर, नहीं तो मारूंगा ” मैंने रोते हुए कहा, नहीं खाऊंगा। इस बात को ले कर मेरी माँ जब मैं बड़ा हुआ तो बहुत दुहराती थी और जिस तरह मैंने डर कर बाले को बोला था “नहीं खाऊंगा” माँ हंस कर मेरी मिमक्री करती।
एक आख़री बात जो याद है वोह थी मेरे पिता जी और माँ किसी ऐसी जगह पर गए थे जो मुझे लगता है जैसे कोई जंगल हो और एक खूबसूरत चश्मा बह रहा था, जिस का पानी बहुत ही साफ़ था, एक बहुत बड़ा पत्थर था जिस पर बैठ कर हमने किसी सब्जी के साथ परौठे खाए थे। कौन सी जगह थी वोह, मुझे कोई गियान नहीं लेकिन मेरी माँ का वोह चेहरा अभी तक याद है, मेरी माँ बहुत सुन्दर थी, उस का रंग बिलकुल गोरा था, वोह हरे रंग की साड़ी लगाती थी और माथे पर बिंदी लगाती थी, जिस से वोह बहुत सुन्दर दिखाई देती थी, उस पत्थर पर बैठी का वोह चेहरा कभी नहीं भूल सका। इस से ज़्यादा मुझे याद नहीं लेकिन मैं समझता हूँ इतनी छोटी उम्र में यह यादें याद रहना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है. इसके बाद सिर्फ यह ही याद है कि हम गाँव में वापिस आ गए थे और जब घर पुहंचे तो मेरी बहन और बड़े भैया मुझे एक दूसरे से छीन रहे थे .
………….चलता
आपके छोटे भाई कहां थे उस समय?
बहन जी ,जब मेरे छोटे भाई पैदा हुए तो कुछ कुछ याद है मुझे जिस को मैंने एक एपिसोड में लिखा है .
आप छोटी उम्र में माता पिता व बहिन के साथ देहरादून आकर रहे थे, यह पढ़कर अच्छा लगा. मैं देहरादून में ही जन्मा और जीवन के विगत ६२ वर्ष देहरादून में ही गुजारे हैं। आपने शायद सहस्त्रधारा स्थान की बात लिखी है, वहां जल के श्रोत भी हैं और बड़े बड़े पत्थर भी हैं। वहां जाकर लोग पिकनिक मानते हैं। मैं भी वहां अनेक बार गया हूँ। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी अपने जीवन काल में कई बार वहां गए थे। वेदो के अनुसार माँ का स्थान ईश्वर के बाद दूसरा है। आपको ढाई वर्ष की उम्र की बाते याद हैं, यह आश्चर्यजनक है। जीवन की इन घटनाओं को प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
मनमोहन जी, यह जान कर बहुत अच्छा लगा कि आप देहरादून के ही हैं , आप की बात से मुझे यकीन हो गिया कि जो मेरे मस्त्क्षिक्त में पुरानी तस्वीर वसी हुई है वोह १००% सच है. जरुर माता पिता जी वहां पिकनिक के लिए ही गए होंगे किओंकि मेरे डैडी शुरू से ही घूमने फिरने के बहुत शौक़ीन थे .
हार्दिक धन्यवाद श्रद्धेय श्री गुरमेल जी। सहस्त्रधारा, देहरादून पिकनिक स्पॉट पर बहुत पहले चलचित्र “होली आई रे’ के एक गाने की शूटिंग हुई थी. इसमें वहां के कुछ सीन्स हैं। मैं आपको youtube पर इस गाने का लिंक भेज रहा हूँ। कभी इस गाने को सुने तो लगता है आप स्वयं के देहरादून में होने का अनुभव कर सकते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=WIZRexTPjJ8
https://www.youtube.com/watch?v=UTKnDbp8_SM
मैं यह बताना भूल गया कि सन १९७१ में मैंने यह शूटिंग सहस्त्रधारा स्थान में साइकल पर जाकर देखी थी। साईकिल पंचर हो गई थी। जेब में पैसे नहीं थे। उधार पंचर लगवाया था। इस गाने को सुन कर मैं भावविभोर हो जाता हूँ। आप भी शायद पसंद करेंगे।
मनमोहन भाई , आप के साइकल के पंक्चर वाले गाने को सुन देख रहा हूँ , आप का बहुत बहुत धन्यवाद . माला सिन्हा के गाने के सीन देख कर कुछ कुछ सीन दिमाग में आए . यह भी कमाल की बात हो गई कि जिस सीन को सारी उम्र याद किये रखा आप ने रूबरू करवा दिया . एक बात और याद आई कि जिस मकान में हम रहते थे वोह एक बहुत खुली रोड पर था यानी चौड़ी रोड थी . एक बात और पूछना चाहता हूँ कि सोचता हूँ मेरे पिता जी देहरादून ही कियों गए , कहीं अंग्रेजों की छावनी तो नहीं थी किओंकि अक्सर कारीगर लोग वहां जाया करते थे वहां अँगरेज़ रहते थे , वहां उन को काम मिल जाया करता था . इसी तरह मेरे दादा जी कभी शिमले काम करने के लिए गए थे और वोह शिमले की कहानिआन सुनाया करते थे .
नमस्ते श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी, आपकी ईमेल पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। देहरादून में गढ़ी-डाकरा तथा क्लेमनटाउन दो स्थानों पर छावनियां हैं. यह आज़ादी के समय से पहले से हैं। क्लेमनटाउन की छावनी मुख्य मार्ग से काफी अंदर है। मुख्य मार्ग की सड़क काफी चौड़ी है। गढ़ी – डकरा की छावनी में भी सड़के चौड़ी हैं। यह मेरे घर के पास ही है वाकिंग डिस्टेंस पर। सड़क मार्ग से सहस्त्रधारा की दूरी लगभग १० km है। सहस्त्रधारा का एक लिंक और भेज रहा हूँ.
https://www.youtube.com/watch?v=8oc1kQhqIzA
इसके अलावा youtube पर आप सहस्त्रधारा की अनेक विडिओ सर्च कर देख सकते हैं। आपका हार्दिक धन्यवाद।
बड़ी अच्छी लगी आपकी कहानी आपकी जुबानी …माँ की बातें हम सबको याद रखनी चाहिए! माँ दुनिया की सबसे खूबसूरत और बेहतरीन औरत होती है…
धन्यवाद भाई साहिब, मेरे खियाल में माँ ही ऐसी है जिस को कोई भी इंसान कभी भूल नहीं सकता.
भाई साहब, आपके बचपन की कहानी पढ़कर अच्छा लग रहा है. आपके पिताजी ने बहुत संघर्ष किया था.
विजय भाई धन्यवाद , मेरे पिता जी ने बहुत संघर्ष किया था , बचपन के दिन उन्होंने अकेले दादा जी के साथ गुज़ारे , जब वोह पांच वर्ष के थे तब दादी यानी पिता जी की माँ इस दुनीआं से चली गई इस लिए छोटी उम्र में ही शादी करानी पडी किओंकि घर में खाना बनाने के लिए कोई नहीं था .
लेकिन मेरी माँ का वोह चेहरा अभी तक याद है, मेरी माँ बहुत सुन्दर थी, उस का रंग बिलकुल गोरा था, वोह हरे रंग की साड़ी लगाती थी और माथे पर बिंदी लगाती थी, जिस से वोह बहुत सुन्दर दिखाई देती थी, उस पत्थर पर बैठी का वोह चेहरा कभी नहीं भूल सका। ….maa ke prti lagaav
किशोर जी बहुत बहुत धन्यवाद , वैसे तो सब को माँ से लगाव होता है लेकिन मेरी माँ बहुत भोली हंसमुख और मुहल्ले की सभी औरतों में हर्मन पियारी थी .
maine bhi padha bahut achcha lga
शान्ति बहन , बहुत बहुत धन्यवाद .
मैं पढ़ा अच्छा लगा।
रमेश जी , बहुत बहुत धन्यवाद .