गज़ल
आँखों में उनके दीदार की हसरत लिए हुए
राहों में पलकें बिछाये जानें कब से बैठे हैं
बह न जाये आँसूओं संग कहीं तस्वीर उनकी
आँखों में सैलाब छुपाये जाने कब से बैठे हैं
लौट न जायें कहीं वो देखकर घर में अँधेरा
चरागो को रौशन किये हुए जाने कब से बैठे हैं
दिन तो ढल जाता है तकते हुए राह-ए-महबूब
हुई रात तो गज़लों का साथ लिए जाने कब से बैठे हैं
बस इक उन्हें ही अपना बनाने की आरजू में
दुनिया को बेगाना किये हुए जाने कब से बैठे हैं ।
ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी.