जाने वाले, फिर कब आओगे ?
सिसकता गाँव, बिलखती गलियाँ
पूछ रही पगडंडियाँ
जाने वाले, फिर कब आओगे ?
इस मिट्टी में बचपन बीता,
बीत गयी जवानी
सुकूँ के पल कहाँ पाओगे
क्या तुम भी आँसू दे जाओगे।
कोठा वाला मकान धरासायी हो गया,
टूट गए पुरखों के अरमान,
पगडंडियाँ उदास,
सूना पड़ा दलान।
कहाँ जा रहे हो छोड़,
वो खेत और खलिहान,
यादें बेशुमार।
शर्मा जी का घर, वर्मा जी का ओसारा
उदास हैं उनके जाने से,
है इंतज़ार
शायद! वो लौट आयें किसी बहाने से।
वो वीरान आम का बाग़,
नहीं सुनायी पड़ती अब फाग,
खत्म हुआ चौपाल का चमक,
बुझा-बुझौव्वल, बड़ो की सीख,
गाँव रहा है चीख।
ओ जाने वाले…
फिर कब आओगे ?
इस कविता से मैं सीधा अपने उस गाँव में पौहंच गिया जो अब है नहीं.