कविता

जाने वाले, फिर कब आओगे ?

सिसकता गाँव, बिलखती गलियाँ
पूछ रही पगडंडियाँ
जाने वाले, फिर कब आओगे ?

इस मिट्टी में बचपन बीता,
बीत गयी जवानी
सुकूँ के पल कहाँ पाओगे
क्या तुम भी आँसू दे जाओगे।

कोठा वाला मकान धरासायी हो गया,
टूट गए पुरखों के अरमान,
पगडंडियाँ उदास,
सूना पड़ा दलान।
कहाँ जा रहे हो छोड़,
वो खेत और खलिहान,
यादें बेशुमार।

शर्मा जी का घर, वर्मा जी का ओसारा
उदास हैं उनके जाने से,
है इंतज़ार
शायद! वो लौट आयें किसी बहाने से।

वो वीरान आम का बाग़,
नहीं सुनायी पड़ती अब फाग,
खत्म हुआ चौपाल का चमक,
बुझा-बुझौव्वल, बड़ो की सीख,
गाँव रहा है चीख।
ओ जाने वाले…
फिर कब आओगे ?

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.

One thought on “जाने वाले, फिर कब आओगे ?

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    इस कविता से मैं सीधा अपने उस गाँव में पौहंच गिया जो अब है नहीं.

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