ग़ज़ल
ख्वाब फिर अंगड़ाई लेकर आ रहे हैं।
दर्द की परछाईं लेकर आ रहे हैं।
दर्द की कैसे दवा मुझको मिलेगी,
इस कदर महंगाई लेकर आ रहे हैं।
भीड़ में भी हर घड़ी तनहा करे,
हर लम्हा तन्हाई लेकर आ रहें हैं।
मुझको ठोकर मार जो आगे बढे,
मेरी खातिर खाई लेकर आ रहे हैं।
लूटकर पैसा जो घर में भर रहे,
दान को एक पाई लेकर आ रहे हैं।
क़त्ल करके उनको न कोई सजा,
पर मेरी रुसवाई लेकर आ रहे हैं।
“देव” जिसने उम्र भर आंसू दिये,
आज वो शहनाई लेकर आ रहे हैं। ”
……..चेतन रामकिशन “देव”……….
बहुत अच्छी कविता.