नि:शब्द
किसी शब्द के माथे पर
बिंदु सी बिंदी लगाना
भूल जाता हूँ
तो बिंदु नाराज हो जाती है
अक्षर कहते हैं हमें जोड़ो
शब्द कहते हैं हमें बोलो
वाक्य कहते हैं हमें पढ़ों
छंद कहते है हमें गाओ
शरीर रूपी बोगी में
बैठकर मेरा एकाकी मन
अपनी आत्मकथा लिख रहा है
जो कभी खत्म नहीं होगी
इस कथा में
न अल्प विराम हैं न पूर्ण विराम है
बिना पटरियों के ही
मानों ख्यालों की रेल
अबाध गति से दौड़ रही है
लेकिन
तुम्हारी मुस्कराहट को
तुम्हारी आंखों में समाये
मौन को
मेरा मन नहीं लिख पाता है
सौभग्य की लहरों के आँचल की तरह
तुम मेरे करीब आकर लौट जाती हो
जाते हुए आँचल के छोर को मैं
कहाँ पकड़ पाता हूँ
असहाय सा बेबस सा
निर्मम वक्त के समक्ष
निरुत्तर हो जाता हूँ
अपने मन से भी ऊपर
परे
उसका नियंत्रक
“मैं “जो हूँ
इसलिए मेरी तरह
वे सारे अक्षर
वे सभी शब्द
वे लंबे वाक्य
वे मधुर छंद
समुद्र की तरह हाहाकार करता
हुआ सा मेरा एकाकी मन
उस मैं के समक्ष
सब चुप हो जाते हैं
नि:शब्द हो जाते हैं
स्तब्ध हो जाते हैं
नतमस्तक हो जाते हैं
सत्य को अक्षरस:
अंकित नहीं कर पाता हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बढ़िया !