“कविता एवं स्त्री”
कविता तुम्हारे सुने दिलों में संगीत भरती है।
स्त्री भी तुम्हारे उबे हुए दिलो को बहलाती है।
पुरुष जब सूखी चट्टानों पर चढते-चढते थक जाता है।
चलो मन बहलाव ही कर ले, तब यही सोचता है ।
स्त्री पर सारा प्यार,अरमान,निछावर कर देता है।
मानो दुनिया में कुछ हो ही न ऐसा महसूस करता है।
धिरे-धिरे चाँदनी का बित जाना कविता का भी नीरिव हो जाना।
पुरुष चट्टानों का फिर बुलाना,ऐसा ही कुछ एहसास होना ।
मानो पिजरों से छुटा हुआ पंछी,इस प्रकार भागता है।
और स्त्री के लिये फिर वही अंधेरा,वही सूनापन हो जाता है।
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वाह बहुत खुब रमेश सर
शुक्रिया निवेदिता जी।