तुम्हारी अंतरात्मा
मेरे मन की किताब का
तुम एक कोरा पन्ना हो
कभी उसमे तुम्हारी
काल्पनिक तस्वीर बना लिया करता हूँ
कभी तुम्हारे द्वारा अनलिखे शब्दों को
पढ़ लिया करता हूँ
जिसका न कोई शीर्षक होता है
न ही जिसके हाशिये पर
तुम्हारा नाम अंकित होता हो
तुम्हारा मौन रहना ही
मेरे प्रत्येक प्रशनो का
सही उत्तर है
इसीलिए तो मैं
जब चाहूँ तब
तुम्हारे जवाबों को कविता के छंदों में
ढाल लिया करता हूँ
कभी लगता है कि
तुम मेरे अंतर्मन की अनुकृति हो
शहर के कोलाहल से दूर
नदी के दो किनारों को
जोड़ने वाले पुल की तरह
मुझे तुम अपने दुखों के साथ
नितांत अकेली नज़र आती हो
रेत पर लहरों के द्वारा
छोड़ गयी सीपियों सी
तुम्हारी मूंदी हुई पलकें
सपनों से भरी हुई लगती हैं
मंथर वेग से बहते हुए जल की खामोशी में
तुम्हारी अंतरात्मा
संध्या के सिंदूरी रंग की तरह
घुली हुई सी लगती है
किरणों की तरह तुम्हारा सौन्दर्य
हर तरफ बिखर जाता है
सागौन वृक्षों की छांवों के सदृश्य
तुम मेरे आगमन का
स्वागत करना चाहती हो
लेकिन मैं
समय की डाल से
टूट कर गिरे हुए
एक पत्तें के समान
खुद को अनन्त काल के लिए
तुम्हारे पास छोड़ आता हूँ
फिर कभी न लौटने के लिए
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब !
shukriya
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
shukriya vibha ji