उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 35)
31. कटु संवाद
दिल्ली सल्तनत का शाही हरम का एक कक्ष, बिना साज-श्रृंगार के। कक्ष में न तो शय्या है और न ही बैठने हेतु कोई आसन। कक्ष की एक दीवार के सहारे राजकुमारी देवलदेवी बैठी है और दूसरी दीवार के सहारे उनकी अंतरंग सखी प्रमिला।
”प्रमिला, यह क्या हुआ, यह किस त्रुटि का परिणाम है जो यूँ एक यवन सुल्तान के रनिवास में मुझे दासियों के समान ढ़केल दिया गया। मेरे देवगिरी न पहुँचने पर युवराज ने क्या अनुमान लगाया होगा मेरे बारे में, कहीं उन्होंने यह न सोच लिया हो कि हम भी रानी कमलावती के समान स्वेच्छा से यवन राजमहल में आए हैं और पिताजी संभवतः उन्होंने भी यही अनुमान लगाया होगा। हाय रे भाग्य का फेर, हाय रे समय का दुष्चक्र।“
”राजकुमारी, महाराज कर्ण और युवराज को वास्तविकता पता चल गई होगी, कुमार भीम के भेजे हुए सैनिक ने उन्हें सूचना अवश्य दे दी होगी। अब प्रलाप करके क्या राजकुमारी, कुछ सोचिए इस कैदखाने से छुटकारा पाने के बारे में।“
”प्रमिला, यहाँ से स्वतंत्र होने की बात सोचने वाला मूर्ख ही होगा, यह कोई कहानी नहीं जिसमें राजकुमारी कैद से भाग जाती है। यह वो दुर्ग है प्रमिला जहाँ से छुटकारा पाना असंभव है।“
प्रमिला राजकुमारी देवलदेवी की बात सुनकर घुटनों पर सिर रख लेती है और थोड़ी देर बाद उसके सिसकने की आवाज कक्ष में गूँजने लगती है। तभी दासी कक्ष के अंदर आकर कहती है ”देवगिरी के माल के साथ लूटकर लाई गई राजकुमारी सावधान, मलिका-ए-हिंद कक्ष में तशरीफ ला रही हैं।“
रानी कमलावती (मलिका-ए-हिंद) गर्व की चाल से चलती हुई कक्ष में प्रवेश करती है। उनके पीछे-पीछे सोलह दासियाँ हैं, आठ-आठ की पंक्तियों में। मलिका-ए-हिंद कक्ष के मध्य में आकर खड़ी हो जाती है, सिर गर्व से तना हुआ। उन्हें देखकर देवलदेवी खड़ी होती है, उनके साथ प्रमिला भी। देवलदेवी मलिका-ए-हिंद के पास आकर उनके पैरों में झुककर बोली ”अजीमोशान दिल्ली सल्तनत की मलिका, सुल्तान मलिका-ए-हिंद के चरणों में देवगिरी से लूटकर लाई गई गुर्जर दासी देवलदेवी प्रणाम करती है।“
देवलदेवी को इस तरह अपने पैरों में झुका देख, रानी कमलावती का सिर अभिमान से थोड़ा और तन जाता है। रानी कमलावती बाबुलंद आवाज में बोलती है ”देवलदेवी, हम तुम्हारे इस तरह के व्यवहार से खुश हुए। तुम जानती हो कि हिंद की मलिका का सम्मान कैसे किया जाता है। देखो सिर उठाकर हमारा ऐश्वर्य देखो, ऐसा ही ऐश्वर्य तुम्हारा भी इंतजार कर रहा है। शीघ्र ही तुम भी शाही हरम में मेरी तरह मलिका के खिताब से पुकारी जाओगी।“
देवलदेवी सिर उठाकर कुछ देर निर्निमेष रानी कमलावती को देखती रही और फिर उन्हें देखती हुई बोली ”किसी यवन की यौन दासी रात्रि में उसकी शय्या सहचरी, इसे आप मलिका का खिताब कहती हैं। धिक्कार है ऐसे मलिका के खिताब पर।“
”देवलदेवी, वाणी पर संयम रखें यह अन्हिलवाड़ का तुम्हारा राजमहल नहीं है यह दिल्ली सल्तनत का शाही हरम है जहाँ मलिका-ए-हिंद के साथ बद्तमीजी से पेश आने वाले को सजाएँ दी जाती हैं।“
”सजा, बुला तो लिया है आपने, अपने नए पति अलाउद्दीन की क्रीतदासी बनाने के लिए। इससे बढ़कर भी कोई सजा क्या मलिका-ए-हिंद ने सोच रखी है हमारे लिए।“
रानी कमलावती अपना हाथ लहराती है और वह देवलदेवी के कपोल से टकराता है। थप्पड़ के वेग से देवलदेवी असंतुलित हो फर्श पर गिरती है। रानी कमलावती तनिक रोष में बोली ”बद्तमीज लौंडी, क्या अब भी सिर पर अन्हिलवाड़ की राजकुमारी होने का भ्रम सवार है जो तू सुल्तान का नाम यूँ बद्तमीजी से ले रही है। याद रहे सुल्तान का नाम यूँ बद्तमीजी से लेने वालों की जुबानंे खींच ली जाती हैं।“
”अवश्य मलिका-ए-हिंद, आप हमारी जुबान खिंचवा लें। जिस पुत्री की माता ही उसे क्रीतदासी बनाने को आतुर हो उसका और हो भी क्या सकता है। हम प्रतीक्षा करेंगे, मलिका-ए-हिंद जिन्होंने हमें कभी जन्म दिया था वह हमारा किस प्रकार से और कितना हित कर सकती हैं। कदाचित् मलिका-ए-हिंद ने पूर्व में ही सोच लिया होगा हमें किस म्लेच्छ की शय्या पर सेवा करनी है।“
रानी कमलावती एक घूरती नजर देवलदेवी को देखती है और फिर कक्ष से बाहर चली जाती है। देवलदेवी पुनः दीवार से पीठ सटाकर आँखें बंद करके बैठ जाती है।
रोचक कहानी ! माँ और बेटी की मानसिकता में जमीन आसमान का अंतर है !