जानिए क्या है योग
कई आधुनिक बाबा लोग और धर्म के धंधेबाज जनता का ध्यान अपनी ओर खीचने और उन्हें मूढ़ने के लिए योग को अपना हथियार बना के पेश कर रहे हैं । वे दावा करते हैं की योग प्राचीन ऋषिमुनियों का अविष्कार है और हिन्दुओ की बहुमूल्य देन । एक धर्मगुरु टाइप का नेता तो चार कदम आगे जा के कहता है की दूसरे धर्म के प्रवर्तक भी योगी थे ।
पर वेद हिन्दुओ के सबसे प्राचीनतम लेख माने गए हैं उनमे ‘ योग’ शब्द तो उपलब्ध है पर उसका अर्थ दूसरा है । आज जो योग का अर्थ तरह तरह की शारीरिक क्रियाएँ बताइये गई हैं वह योग का अर्थ नहीं है । ऋग्वेद का यह मन्त्र देखिये-
क्वत्री चक्रा त्रिवित्रो रथस्य कवत्र्यो वन्धुरे ये सनीला:
कदा योगो वाजिनो रासभस्य येन यज्ञ नस्तयोप्यथ:
-ऋग्वेद 1/34/9
अर्थात – हे नासत्य ! तुम्हारे त्रिकोण रथ के तीन चक्र कँहा हैं ?बंधनाधारभूत नीड या रथ के उपवेशन स्थान के तीनो काठ कँहा हैं? कब बलवान गदर्भ तुम्हारे रथ में जोते जाते हैं , जिसके द्वारा हमारे यज्ञ में आते हो।
यंहा ‘ योग’ का अर्थ है ‘ रथ में गधो आदि को जोतना’ । आचार्य सायण ने लिखा है –
योग: रथे योजनम अर्थात योग का अर्थ है रथ में जोतना।
वास्तव में योग ( जिसे आज शरीरिक क्रियाएँ कहते हैं) भारत के अदिनिवासियो में प्रचलित कुछ आदिम प्रथाओं के रूप में मौजूद था । देवीप्रशाद चट्टोपाध्याय अपनी पुस्तक भारतीय दर्शन के पेज नंबर 52 में लिखते हैं ” जब हम इन यौगिक क्रियाओँ , विशेषत: आसान , प्राणायाम आदि के विस्तृत विवरण में उतरते हैं तो इनका प्रागितिहास आँख के सामने चमक जाता है , क्यों की ये क्रियाएँ हमें पीछे ले जाती हैं , आदिम युगों, वनचर जातियो के उन्मादपूर्ण कार्म्कांडो में जंहा भारीभरकम क्षमताये प्राप्त करने के इरादे से अनेक प्रकार की ऐसी चेष्टाएँ की जाती हैं जो वस्तुत: और कुछ नहीं जानबूझ कर अस्वस्थ , अस्वभाविक मानसिक अवस्थाये पैदा करने के सिरतोड़ तरीके हैं”
ऐसे कई और विद्धवनो ने माना है की योग वैदिक काल से पहले का है , पर वेदों में तथाकथित योग की कंही गंध तक नहीं है …. ऐस क्यों है की वेदों में यज्ञ आदि तो हैं पर योग नहीं ?
उत्तर बेहद सरल है जब वैदिक ब्राह्मण भारत आये तो वे यंही के कबीलो को जीत कर विजय बने तब वे अपने यज्ञो के कट्टर पक्षधर थे , वे विजेता होने के कारण अपना यज्ञवाद मत दुसरो पर थोपते औरकट्टरत से पालन करते। पर जैसे जैसे समय बीतता गया ब्रह्मणिक आर्यो की कट्टरता कुछ कम हुई , थोड़ी शांति हुई तो आपस में आदान प्रदान का सिलसिला शुरू हुआ जैसे की थोडा हम झुके थोडा तुम झुको। इसी दौर में वैदिक मतवालो ने योग ग्रहण किया और योग वालो ने वैदिक देवी देवताओ को पूजन आरम्भ किया । इस आदान प्रदान के दौरान दोनों पक्षो ने बिना सवाल जबाब किये एक दूसरे की प्रथाओ को जस का तस अपना लिए क्यों की यदि प्रश्न होते तो फिर शांति भंग होती ।
जैसा की सिंधु के अवशेषो में एक शिव की मूर्ति मिली है , जो योग मुद्रा में है यह वैदिकों के आने से पहले प्रचलित युग के देवता की है ।वैदिकों ने इसे सहज ही अपना लिये क्यों की यह उनके देवता रूद्र से काफी मिलता जुलता था । वैदिक यज्ञ वालो ने जब शिव को रूद्र के रूप में माना तो उसका योग भी अपना लिया और वेद मंत्रो से उसकी पूजा की जाने लगी।
इसके बाद उपनिषद आदि ग्रन्थ लिखे गए जिसमे योग को पूरा अपना लिया गया , योग से वैदिक ब्राह्मणों को समाज में और सम्मान मिलने लगा था क्यों की योग क्रियाओ से यंहा की जनता परचित थी और उन उलजलूल शारीरिक और मानसिक क्रियाओ को दैवीय मानती थी ।
योग का सही अर्थ है आत्मा को परमात्मा से जोड़ना. इसमें जो क्रियाएं सहायक हैं उनको योग का अंग माना जा सकता है. बाकी सब बकवास हैं.
आपने योग का अर्थ स्पष्ट करने की कोशिश की है, परन्तु हर शब्द की तरह इसके भी अनेक अर्थ होते हैं. बहुत से अर्थ नकारात्मक हैं या वैसा अर्थ ले लिया गया है. अनेक प्रकार की शारीरिक मुद्रा बनाना योग नहीं है. केवल आसन इसका एक अंग हैं. पर सभी मुद्राओं को आसन नहीं कहा जा सकता.
एक नृत्यांगना तमाम तरह की मुद्राएँ बनाती है, क्या उसकी मुद्राओं को योग कहा जा सकता है? नहीं!