धन्य घासें हो रही हैं…
आज आँचल पर्वतों का मानो जैसे खिल गया है
जंगलों को नया यौवन स्वतः जैसे मिल गया है
पुष्प सहसा महकते हैं, पंछी सहसा चहकते हैं
नदी का जल बहे कल कल, कहीं झरना बजे छल छल
दूर तक फैला है नभ भी जैसे खुलकर तन गया है
और धरती पर ये पतझड़ आज सावन बन गया है
पत्थरों में फूल मुझको नजर सहसा आ रहे हैं
गीत पंछी मधुर कोई आज जैसे गा रहे हैं
पत्तियां जो सो रही थीं एकदम से जागती हैं
रुकी सी जो पवन थी, चूम धरती भागती है
क्या हुआ है क्यों हुआ है देखते सब रह गए हैं
और जिनके नयन देखें अश्रु में वो बह गए हैं
उधर देखो मन वो दोनों युवकों का तेज कैसा
है दमकता दिव्य जो वो सैंकड़ों सूरज के जैसा
देखो जिनके मध्य दुर्गा स्वयं लक्ष्मी चल रही है
छवि उनकी ही है महि को जैसे माया छल रही है
धरा ये आनंद ले ले नित प्रफ्फुलित हो रही हैं
राम जी के चरण चूमें धन्य घासें हो रही हैं
— सौरभ कुमार दुबे
अत्यन्त खूबसूरत रचना
रहस्यमयी कविता !