यशोदानंदन-७
अब वसुदेव को अपने शिशुओं को लेकर कंस के पास नहीं आना पड़ता था। शिशु के जन्म का समाचार पाते ही वह क्रूर स्वयं बन्दीगृह में पहुंचता था। देवकी की गोद से शिशु को छीन उनके सम्मुख ही पत्थर पर पटक देता था। छोटी बहन बिलखती रहती। अत्यधिक दुःख के कारण चेतनाशून्य हो जाती लेकिन उसपर कोई असर नहीं पड़ता। एक-एक कर देवकी के छः शिशु अत्याचारी कंस की क्रूरता के शिकार हो गये।
नियति की लीला! देवकी सातवीं बार गर्भवती हुई। आकाशवाणी तो उन्होंने भी सुनी थी। मन-मस्तिष्क में कभी-कभी आशा की एकाध किरणें अनायास ही कौंध जाती थीं, अन्यथा कौन माँ अपने आने वाले शिशु की निश्चित मत्यु ज्ञात होने के पश्चात्भी गर्भ-धारण कर सकती है? इस बार पता नहीं क्यों देवकी विषाद से कम, हर्ष से अधिक अभिभूत थी। उन्हें ऐसा आभास हो रहा था कि किसी दिव्य शक्ति ने उनके गर्भ में स्थान ग्रहण किया है। उनकी अपेक्षा उचित ही थी। चतुर्भुज भगवान श्री विष्णु के आदेश से स्वयं शेष ने देवकी-पुत्र के रूप में अवतार लेने का निर्णय लिया था।
कंस के बढ़ते अत्याचारों से भयभीत वसुदेव जी ने बन्दीगृह में आने के पूर्व अपनी प्रथम पत्नी रोहिणी को गोकुल में अपने परम मित्र नन्द बाबा के यहाँ सुरक्षा की दृष्टि से भेज दिया था। भगवान ने योगमाया को एक अद्वितीय कार्य सौंपा। अपनी गोपनीय योजना से योगमाया को अवगत करते हुए उन्होंने कहा —
“हे योगमाया! ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां तुममें समाहित हैं। इस विश्व में ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो तुम्हारे संकल्प लेते ही पूर्ण न हो जाय। एक विशेष प्रयोजन के लिए मैंने तुम्हें निमंत्रित किया है —
“आज्ञा करें देवेश्वर! यह योगमाया आप ही की विभूतियों में से एक है। मुझे आपने किसी कार्य के योग्य समझा, यह मेरा परम सौभाग्य है। अब विलंब न करें, अनन्त। कृपया आदेश दें।” योगमाया ने उत्साह के साथ अपनी सहमति दी।
“इस समय पृथ्वी, मथुरा के राजा कंस के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रही है। कंस के वध के लिए मैं स्वयं उसकी भगिनी देवकी के गर्भ में अवतरित होने जा रहा हूँ। कंस ने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर रखा है। अबतक उस हत्यारे ने देवकी के छः अबोध शिशुओं को मृत्युदंड दिया है। इस समय स्वयं शेष देवकी के सातवें गर्भ में आश्रय पा रहे हैं। तुम शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित करने में सक्षम हो। संकर्षण और बलराम के नाम से पूरे संसार में प्रसिद्ध होनेवाला वह शिशु रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न होगा। इस व्यवस्था के बाद मैं स्वयं अपनी समस्त शक्तियों के साथ देवकी-वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा। ठीक उसी समय तुम्हें नन्द-यशोदा की पुत्री के रूप में प्रकट होना है। चूंकि तुम मेरी भगिनी के रूप में जन्म लोगी अतः संसार में सबके लिए पूजनीय होगी। सभी लोग मूल्यवान भेंटों यथा — अगरू, धूप, दीप, पुष्प तथा यज्ञ की हविष्य से तुम्हारा पूजन करेंगे। वे तुम्हारे अंश के विभिन्न रूपों में जो दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चंडिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, इशानी, शारदा तथा अंबिका नाम से अभिहीत होंगे, तुम्हारी पूजा करेंगे।”
योगमाया ने भगवान विष्णु का आदेश शिरोधार्य किया और अपने गंतव्य पर निकल पड़ीं। उचित समय पर उन्होंने देवकी और रोहिणी, दोनों को योगनिद्रा के वशीभूत कर शेष को देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानान्तरित किया। कंस के कारागार के चिकित्सकों ने घोषणा कर दी कि देवकी का सातवां गर्भ विनष्ट हो गया। कंस ने राहत की सांस ली।
मनुष्य अपनी सुरक्षा के लिए लाख जतन करे, नियति की लीला को कभी रोक पाया है? मृत्यु को चुनौती देता कंस समस्त राजोचित भोगों का आनन्द लेते हुए भी कभी-कभी चिन्तित हो ही जाया करता था। देवकी के छः पुत्रों के निर्दयी हत्यारे को जब अपने वध की चिन्ता सताने लगती थी, तो रातों में रेशमी नरम शैया पर शयन करते हुए भी उसकी आँखों में आई नींद पता नहीं कहां चली जाती थी। पलकें बोझिल हो जाती थीं। ऐसा लगता कि नींद अब आई तब आई, लेकिन आती नहीं थी। झलक दिखलाकर विलुप्त हो जाती थी। अनिद्रा की स्थिति ने कंस को चिड़चिड़ा और विक्षिप्त-सा बना दिया था। जिन अबोध शिशुओं का उसने वध किया था, वे निरीह तो अपना विरोध व्यक्त करने कभी आए भी नहीं लेकिन अपराध बोध? मनुष्य के अचेतन में बैठी यह ग्रंथि उसे जीवन भर सामान्य नहीं होने देती।
उधर राजकीय कारागर के प्रत्येक कोने में बांसुरी के मधुर धुन के गुंजन की अनुभूति सबने की। अमावश्या की रात्रि में पूर्णिमा जैसी ज्योति! बिना कुछ प्रज्ज्वलित किए अगरू की सुगन्ध! सूरज की निर्मल परन्तु तीक्ष्ण किरणों में भी चन्द्रिका की शीतलता! कारागार क्या, पूरे मथुरा के मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तन को सबने लक्ष्य किया।
वसुदेव जी के व्यक्तित्व में अचानक आए परिवर्तन से बंदी रक्षक आश्चर्यचकित थे। उनका मुखमंडल देदीप्यमान सूर्य की भांति दिन और रात, दोनों में प्राकाशित होता रहता था। जो नेत्र वर्षों से अविरल अश्रु-प्रवाह के कारण सदैव दुःख के सागर की भांति दिखाई पड़ते थे, अब ज्योति-पूंज में परिणत हो चुके थे। मुखमंडल पर एक अव्यक्त प्रसन्नता का भाव आठों पहर विद्यमान रहता था। हो भी क्यों नहीं? जब स्वयं भगवान विष्णु ने उनके हृदय में समस्त कलाओं के साथ अपना बसेरा बना लिया हो, तो ये शुभ परिवर्तन कैसे नहीं आते? स्वयं परम पिता परमेश्वर एक निर्धारित शुभ मुहूर्त में वसुदेव के शरीर से देवकी के शरीर में प्रविष्ट हुए। देवकी परम सत्य का वासस्थान बन गईं। उनका संपूर्ण शरीर दिव्य सौन्दर्य से खिल उठा। वे जन्म से लेकर उस समय तक उतनी सुंदर कभी दृष्टिगत नहीं हुई थीं। कंस तक इस परिवर्तन की सूचना पहुंचनी ही थी। उसने कारागृह में आकर वसुदेव और देवकी के प्रत्यक्ष दर्शन किए। आँखें चौंधिया गईं। प्रथम दृष्टि में कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। दोनों नेत्र इस तीव्र ज्योति को सहने में सर्वथा असमर्थ थे। उसने जल के छींटे मारे, आँखें मीचीं और धीरे-धीरे नेत्र खोले। सामने शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए स्वयं चतुर्भुज की छाया दिखाई पड़ी। उसके नेत्र पुनः बंद हो गए। परन्तु नेत्र बंद कर लेने मात्र से सत्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, वह भलीभांति जानता था। पूरी आँखें खोलकर प्रत्यक्ष देवकी को देख पाना असंभव था। उसने दिशा बदली और चोर-दृष्टि से देवकी को देखा — बाल रवि सा दिव्य सौन्दर्य! ऐसा रूप तो अपने पूरे जीवन में उसने कभी देखा ही नहीं था। मन के एक कोने से यह ध्वनि आई – प्रणाम कर नीच! हृदय से प्रणाम कर। तेरा उद्धार संभव है। परन्तु तत्क्षण अहंकार ने वृहद्रूप ग्रहण कर लिया। प्रणाम? और वह भी देवकी को जिसके गर्भ से मेरा काल जन्म लेनेवाला है? असंभव। कंस से बड़ा कोई नहीं। वह दिन अब अधिक दूर नहीं जब समस्त सृष्टि विष्णु को नहीण, कंस को प्रणाम करेगी। कंस सर्वशक्तिमान है, सबका भाग्यविधाता …..। अचानक बिना किसी घनगर्जन के विद्युत कौंध गई। उसने दृष्टि चहुं ओर दौड़ाई, परन्तु नेत्र खुले हों, तब तो कुछ दिखाई पड़े। मन में अंधेरा तो जग भी अंधेरा। विचलित कंस कारागार के उस कक्ष में और अधिक नहीं रुक सकता था। सामान्य बन्दी रक्षकों के सम्मुख कही उसके मन की कमजोरी उजागर न हो जाय। उसने बंदी गृह से वापस लौटने का निर्णय लिया। परन्तु वह स्पष्ट रूप से समझ गया कि देवकी के गर्भ में कोई असाधारण जीव अवश्य आ गया है।
घटना के वर्णन में आपको कल्पनाशीलता की प्रतीति हो रही होगी, क्योंकि शब्द, शैली और भाव मेरे हैं. परन्तु घटनाएँ वही हैं, कहानी वहीँ है जिनका वर्णन भागवत पुराण में हुआ है. शून्य विचलन रखते हुए, नए परिवेश में कृष्ण-चरित्र प्रस्तुत करने का एक छोटा प्रयास है मेरा.
कहानी रोचक है, हालांकि लेखक की कल्पनाशीलता का प्रभाव स्पष्ट मालूम पड़ता है.