महिला और मीडिया जगत की संवेदनहीनता !
आज देश के अन्दर महिलाओं के साथ होने वाला व्यवहार चिन्ता का सबब बना हुआ है। महिलाओं के साथ होने वाले, दुराचार, बलात्कार, छेड़खानी दहेज प्रथा आदि ऐसी घटनाएं अखबारों, चैनलों में लीड स्टोरी हैं। आखिर इन घटनाओं का जिम्मेदार कौन है? सरकार, समाज, या फिर आधुनिक जीवनशैली। खैर इसका जिम्मेदार जो भी हो घुमा फिरा कर पुरूषों की ओर उंगली उठने लगती है। जबकि कई घटनाएं ऐसी देखने को मिलती हैं जिसमें एक महिला को बदनाम करने के लिए दूसरी महिला सहयोग करती है। दहेज के विषय में बेटे से ज्यादा बहू पर सास का प्रभाव रहता है। जिसका स्वयं उस घर में बहू के रूप में पदार्पण हुआ है। यह सच है कि महिलाऐं समाजिक कुप्रथाओं का शिकार होती रही हैं। लेकिन इस बात को भी कतई नहीं टाला जा सकता कि ऐसी परिस्थितियों का दंश झेल रही महिलाओं का कोई सहायता नहीं करता है।
महिलाओं को याद होना चाहिए कि राजा राम मोहन राय जी ने सतीप्रथा को समाप्त कर महिलाओं को नया जीवन दिया, महात्मा गांधी जी अपने लेख में महिला उत्थान का जिक्र किया करते थे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर समाज में व्याप्त महिला विरोधी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए समाचार पत्रों के माध्यम से महिला उत्थान के लिए लेख लिखा करते थे। ताकि महिलाओं को सम्मान से जीने का अवसर प्राप्त हो सके। महिलाओं को लगभग वो सारे अवसर प्राप्त हुए जिनकी उन्हे जरूरत थी। लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिस दुनियां (आधी दुनिया) के आंखों से परदा हटाने का अभियान चलाय है वे कुछ इस हद तक पहुंच जायेंगी।
सिफारिश थी आंखों से पर्दा हटाने की
तूने जिस्में दीदार की दुकान खोल दी।
वहीं आज मीडिया में महिलाओं को रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और प्रोडक्ट मॉडल के रूप में भी प्रस्तुत किया जा रहा है। चाहे प्रिन्ट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया। सेविंग क्रीम हो या पानमसाला इन्हें बेचने में महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। उपभोक्तावादी व्यवस्था में एक हथियार के रूप में महिलाओं को आकर्षण की वस्तु बना कर प्रस्तुत कर रहा है। आज कल समाचार पत्रों में महिलाओं के चित्र से मौसम का यह अहसास कराया जाता है कि आज कितनी गर्मी है और कितनी ठंड है। ये हाल है आज की मीडिया की। जो देश का चौथा स्तम्भ माना जाता है। यह स्थिति महिलाओं के लिए खतरनाक है और चिंतनीय है क्योंकि इससे महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया उन्हें एक वस्तु या मनोरंजन के साधन के रूप में देखने को विकसित हो जाता है। मीडिया के सकारात्मक पहलू भी हैं। जो कामकाजी महिलाएँ, राजनीतिक, सशक्तिकरण द्वारा शासन का संचालन करती हैं। महिलाएं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष भी करती है। ऐसी संघर्षशील महिलाओं की सकारात्मक छवि भी मीडिया समाज तक पहुंचाने में अपनी अहम भूमिका निभाता है।
अच्छा लेख. आज का मीडिया बहुत गैर-जिम्मेदार है.