यज्ञ शुद्ध प्राणवायु उत्पन्न कर सबको स्वस्थ-निरोग रखता है
10 ग्राम गोघृत की यज्ञ में आहुति से 1 टन प्राणवायु–आक्सीजन उत्पन्न होती है
अब घृत के कुछ गुणों पर भी दृष्टि डालते हैं। गोघृत सुगन्धियुक्त, पुष्टिवर्धक, बलवर्धक, रोगनिवारक, कीटाणुनाशक, आयुवर्धक, सर्वविषनाशक, रेडियोधर्मितानिरोधी आदि अनेकानेक गुणों वाला है। यह भी एक तथ्य है जिसका उल्लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी किया है कि ठोस व द्रव अवस्था में किसी पदार्थ में जो गुण होते हैं व उनसे जो लाभ होते हैं वह उनके सूक्ष्म होने पर कहीं अधिक होते हैं या उनका प्रभाव कई गुणा अधिक होता है। अतः यज्ञ एक ऐसा उपक्रम वा कार्य है जिसमें गोधृत व अन्य आहुत द्रव्यों मिष्ट पदार्थ, सुगन्धित पदार्थ, पुष्टिकारक पदार्थ, रोग निवारक वनस्पतियां व ओषधियांे को सूक्ष्म बनाकर स्वयं व सभी प्राणियों को अधिकाधिक लाभ पहुंचाया जाता है।
हमारे ऋषि मुनि आजकल के विद्वानों, विचारकों, चिन्तकों व वैज्ञानिकों से कहीं अधिक बुद्धिमान थे। इसी कारण उन्होंने वेद प्रतिपादित यज्ञ का आविष्कार किया और इससे विश्व का कल्याण करने का सबसे उत्तम साधन जानकर प्रचार किया। आज यज्ञ ईसाई व मुस्लिम आदि मत-मतान्तरों के पक्षपात का शिकार है। हमारे पौराणिक भाई वेदों में कुछ-कुछ श्रद्धा तो रखते हैं परन्तु वह वेदों से कहीं अधिक दूर है। उन्होंने भी वेद विरोघी व अविद्याजनित पुराण आदि मनुष्य कृत ग्रन्थों को अपने धर्म-कर्म का आधार बना रखा है। यज्ञों के प्रति उनमें जो प्रेम व श्रद्धा होनी चाहिये वह दिखाई नहीं देती। उनकी यज्ञ पद्धति भी वेद व आर्ष नहीं है। यज्ञ का सत्य स्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द को प्रत्यक्ष हुआ था। उन्होंने यज्ञों का न केवल महिमागान ही किया अपितु यज्ञ की सत्य व सर्वोपयोगी पद्धति भी हमें प्रदान की। उनका लिखित ग्रन्थ ‘संस्कारविधि’ संसार के सभी ग्रन्थों में अतीव महत्वपूर्ण व अनुपमेय-यूनिक है। हम आग्रह करते हैं सत्याभिलाषी अध्येता व जिज्ञासु बन्धुओं को महर्षि दयानन्द रचित उनका समस्त साहित्य पढ़कर धर्मलाभ प्राप्त करना चाहिये।
दैनिक अग्निहोत्र 5 महायज्ञों में से एक महायज्ञ जिसे मात्र 15 से 20 मिन्टो में सम्पन्न किया जाता है। इसे प्रतिदिन प्रातः सूर्योदय व सायं सूर्यास्त के समय करने का विधान है। यज्ञ श्रेष्ठतम् कर्म अर्थात् सबसे महान कार्य को कहते हैं। इसलिए कि इसमें ईश्वर, माता-पिता, विद्वानों, अतिथियों सहित जड़ देवों की पूजा व सत्कार भी होता है। उनसे संगतिकरण के द्वारा उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त भी किया जाता है। यज्ञ में दान दिया व लिया भी जाता है। इसके साथ दैनिक यज्ञ में जो हव्य-द्रव्य प्रयोग में लाये जाते हैं उनमें गोघृत मुख्य है। इसके अतिरिक्त मिष्ठ पदार्थ शक्कर व मोहनभोग आदि, वनस्पतियां व ओषधियां तथा केसर व कस्तूरी जैसे सुगन्धित पदार्थो से भी वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ में आहुतियां दी जाती है।
आहुतियां देने का क्या प्रयोजन है? इसका प्रयोजन है कि अग्नि देवताओं का मुख है। यह प्राकृतिक जड़-देवताओं को हमारे हव्य पदार्थों का भोजन कराता है। भौतिक विज्ञान के आधार पर विचार करें तो अग्नि गोघृत व हवन सामग्री को जला कर अत्यन्त सूक्ष्म व हल्का कर देती है। अग्नि में जलने पर सूक्ष्म हो जाने पर यह सभी पदार्थ वायुमण्डल में दूर-दूर तक फैल जाते हैं। इनके फैलने से इन सूक्ष्म हव्य पदार्थों, जो कि एक प्रकार से गैस व परमाणुओं की अवस्था में होते हैं, वह एक स्थान पर किये जाने वाले यज्ञ से कई किलोमीटर दूर तक के वातावरण में फैल कर उसे अपने सुगन्धित-पुष्टि-वायुशुद्धि आदि नाना गुणों से प्रभावित करते हैं। हमें वेदों व शास्त्रों में पढ़ने को मिलता है कि यज्ञ में दी गई आहुतियां सूर्य की किरणों के साथ सूर्य तक पहुंच जाती हैं और वायुमण्डल को लाभ पहुंचाती हैं।
यह यद्यपि कुछ-कुछ अविश्वसनीय प्रतीत होता है परन्तु यह पूर्ण सत्य भी हो सकता है। अभी तक इसकी वैज्ञानिक पुष्टि या खण्डन सम्भवतः नहीं हुआ है। अतः 50 प्रतिशत तो यह शास्त्रीय वचन सत्य सिद्ध हो ही रहा है। यह तो सर्वविदित है कि सूक्ष्म व हल्के पदार्थं जो पृथिवी के गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त होते हैं वह पृथिवी द्वारा आकर्षण बल से प्रभावित न होने के कारण पूरे सूर्य लोक व ब्रह्माण्ड में फैल सकते हैं। यदि ऐसा है तो यज्ञ वस्तुतः एक चमत्कार पूर्ण वैज्ञानिक व श्रेष्ठतम कार्य सिद्ध होता है।
आज की इन पंक्तियों को लिखने का हमारा उद्देश्य यज्ञ के बारे में एक नया तथ्य प्रस्तुत करना है। हम 14 फरवरी से 22 फरवरी, 2015 तक अहमदाबाद, टंकारा, सोमनाथ मन्दिर, द्वारका तथा पोरबन्दर के भ्रमण पर गये। हमारे साथ हमारे दो मित्र, एक वैदिक विद्वान श्री कृष्णकान्त वैदिक तथा दूसरे श्री ललित कृष्ण अग्रवाल थे। सभी की धमपत्नियां भी साथ थीं। यात्रा करते हुए हमने यज्ञ की चर्चा की तो श्री अग्रवाल ने हमें सूचित किया कि उन्होंने नैट पर कहीं वैज्ञानिक शोध के बारे में पढ़ा है कि यज्ञ में 10 ग्राम की गोधृत की आहुति देने से 1 टन प्राणवायु आक्सीजन बनती है। उनकी यह बात हमें अतीव ज्ञानवर्धक, रूचिकर व सत्य प्रतीत हुई। हमने इसका सन्दर्भ उनसे पूछा तो उन्हें वह याद नहीं आया। इसके बाद यात्रा में व देहरादून पहुंच कर हमने नैट पर सर्च किया परन्तु हमें इसमें सफलता नहीं मिली।
23 फरवरी, 2015 को वेबसाइट www.yuvasughosh.com पर सर्फिगं करते समय हमें वहां एक लेख “गाय को माता क्यों कहते हैं” दृष्टिगोचर हुआ। हमने वह लेख पूरा पढ़ा। इस लेख में भी नेशलन रिसर्च इंस्टिट्यूट, करनाल के इस वैज्ञानिक अध्ययन वा स्टडी की चर्चा है कि 10 ग्राम की गोघृत आहुति से 1 टन प्राणवायु उत्पन्न होती है। गोघृत के अन्य लाभों का भी लेख में वर्णन है। हमने लेख पर अपनी प्रतिक्रिया में लेखक महानुभाव डा. अ. कृति वर्धन का धन्यवाद किया और उनसे इसका विस्तृत प्रमाण व सन्दर्भ सूचित करने का अनुरोध किया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उनसे कोई उत्तर प्राप्त न होने पर हमने वेबसाइट के संचालकगणों से अनुरोध किया कि वह लेखक का इमेल हमें प्रदान करें जिससे हम उनसे सीधा सम्पर्क कर सकें। लेख का सम्बन्धित भाग हम नीचे प्रस्तुत कर रहें हैं।
”नेशनल रिसर्च इंस्टिट्यूट, करनाल–हरियाणा से प्रकाशित एक आलेख में गाय के घी का वैज्ञानिक विश्लेषण बताया गया है जिसके अनुसार इस घी में वैक्सीन एसिड, ब्युटिक एसिड, वीटा कैरोटीन जैसे तत्व पाये जाते हैं जो शरीर में पैदा होने वाले कैंसरीय तत्वों से लड़ने की क्षमता रखते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा यह भी माना गया है कि गाय के 10 ग्राम घी को दीपक में जलाने, गोबर के जलते उपलों पर डालने अथवा यज्ञ में आहुति डालने से लगभग एक टन प्राण वायु उत्पन्न होती है तथा उससे वायुमंडल में एटोमिक रेडियशन का प्रभाव कम हो जाता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण भोपाल में 1984 में यूनियन कार्बाइड कारखाने से गैस रिसाव के समय देखने को मिला। जिन घरों में गाय के गोबर, मूत्र, दूध व घी का प्रयोग था वहां गैस का प्रभाव कम पाया गया था।“
हम समझते हैं कि यज्ञ द्वारा गोधृत से प्राणवायु उत्पन्न करने पर अभी और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है। अन्य मत व धर्मों के वैज्ञानिक व विद्वान सम्भवतः सप्रयोजन इस वैदिक ज्ञान की उपेक्षा कर रहे हैं वा करेंगे परन्तु आर्य जगत के रसायन विज्ञान के अध्येता, प्रोफेसर व वैज्ञानिक बन्धुओं को इस ओर अधिक से अधिक ध्यान देना चाहिये और इसकी पुष्टि में जितने भी प्रमाण प्राप्त हो सकें, उनको वैज्ञानिक रीति से सिद्ध कर संसार के सामने डंके की चोट पर रखना चाहिये और वैदिक धर्म व यज्ञ को अपनाने का आग्रह करना चाहिये। इन पंक्तियों के साथ ही हम इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख. यज्ञ का मनुष्यों के साथ सभी जीवों और पेड़ पौधों पर भी बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. यह मैंने स्वयं देखा है.
नमस्ते आदरणीय श्री विजय जी। हार्दिक धन्यवाद। लेख का प्रथम पैरा किसी कारण प्रकाशन से छूट गया है। सूचनार्थ निवेदन है।
मनमोहन भाई,लेख बहुत अच्छा लगा . पुरातन युग में जो यग्य आदी होते थे , उन का मकसद तो होना ही चाहिए था लेकिन अंग्रेजों के आने से यह बातें ख़तम सी हो गई. दुसरे आज की खुराक जो ज़िहरीली कैमिकल से भरपूर है इस का सीधा असर हमारी सिहत पर पड़ता है . गाड़िओं और कारखानों से निकला धुआं हमारे शरीर पर सीधा असर डालता है. अगर आज के सएंस्दान इस पर रीसर्च करें तो हमें बहुत कुछ प्राप्त हो सकता है.
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल जी। हार्दिक धन्यवाद। मैं आपसे पूरी तरह से सहमत हूँ। आपके आशीर्वाद की कामना है।