अंतिम हो ख़त ·
अब नहीं है मुझे
तुमसे कोई शिकायत
हो सकता है
यह मेरे द्वारा
तुम्हें प्रेषित
अंतिम हो ख़त
लिखता आया था
वह मेरा
एक तरफ़ा प्रेम था
अब तक
कोहरे के पीछे देखा था तुम्हें कभी
महुए के रस से सनी लगी थी तुम तभी
तुम भोर के किरणों से बनी
एक आकृति थी
या सौन्दर्य का
वन मे ..अवतरण सच
तुम पर लिखी मेरी कविताओं कों तबसे
सुनता रहा गगन
पढ़ता रहा निर्जन
मेरा मन करता रहा
कभी फूलों से
कभी तितलियों से
पूछकर तुम्हारा सृजन
कभी तुम्हारे रूप कों छिपाए से लगे
अपने में शबनम
कभी लगा तुम्हें
गुनगुना रहा हो
मधुप का गुंजन
कभी तुम लौट गयी
संध्या सी ओढ़ लाल चुनर
कभी आयी
सुबह सुबह खिल एक सुमन
तुमने मुझे पहचाना हो या न पहचाना हो
मैं करता रहा
सदैव पगडंडियों सा तुम्हारा अनुगमन
अमराई में …..
तुम छाँव में ,धूप का डाले घूँघट
छिपी हुई सी लगी थी
मुझे हरदम
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब .