ग़ज़ल – चैनलों की शाख पर…
चैनलों की शाख पर अब झूठ का अम्बार है ।
सिर्फ तारीफों की चर्चा में बिका अखबार है ।।
रोज कलमें हो रहीं गिरवीं इसी दरबार में ।
फिर कसीदों से कलम का हो रहा व्यापार है।।
कब्र से बोली ग़ज़ल मेरा तसव्वर खो गया ।
अब खुशामद के लिए बिकने लगा फनकार है ।।
नुक्कड़ो पर भेड़िये हैं नोचते हर जिस्म को ।
हर मुसाफिर को नकाबों की यहां दरकार है ।।
माँ की ममता बाप का साया कहाँ परदेश में ।
रोटियों के खौफ से टूटा हुआ ऐतबार है ।।
हम एक थे, हम एक हैं ,हम एक ही होंगे सदा ।
वोट का मजहब ये बातें कर गया इनकार है।।
जिसमें जितना दम था वो बोया जहर इस मुल्क में।
कातिलों के हाथ से गिरती कहाँ सरकार है ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
तिरपाठी जी, एक एक लाइन में बहुत कुछ कह दिया .