आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 12)
हमारे सेक्शन में एक मात्र मुसलमान आॅपरेटर थे श्री सैयद अब्दुल हसन रिजवी। वे शिया थे और किसी नबाबी खानदान से थे। देखने में बहुत सुन्दर लगते थे। उनकी पत्नी हिन्दू महिलाओं की तरह अपने माथे पर बिन्दी लगाती थीं और माँग भी भरती थीं। वे संजय नागर के पिताजी के आॅफिस में सेवा करती थीं। रिजवी साहब से मेरे सम्बंध बहुत घनिष्ट तो नहीं थे, फिर भी काफी अच्छे थे। एक बार हम उनके घर भी गये थे। रिजवी साहब ने एक बार मुझसे कहा था कि किसी दिन वे मुझे अपने साथ ले जाकर सारा लखनऊ घुमा देंगे। पर वह दिन कभी नहीं आया। आज तक भी मैंने पूरा लखनऊ नहीं देखा है। यों मुख्य-मुख्य जगहों को मैं देख चुका हूँ।
श्री विजय कुमार लाल अपनी राजनैतिक गतिविधियों के लिए जाने जाते थे। वे अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर ‘विजय कौशल’ के नाम से नेतागीरी किया करते थे। मंच पर अच्छा भाषण दे लेते थे, परन्तु एच.ए.एल. में चुपचाप रहते थे। मेरी उनसे बहुत राजनैतिक बातें हुआ करती थीं। उनकी विचारधारा कुछ स्पष्ट नहीं थी। बस जोड़-तोड़ की बातें ही किया करते थे। वास्तव में वे फैजाबाद के एक चर्चित नेता (शायद निर्मल खत्री) के साथ लगे हुए थे। वह नेता अवसरवादी था और प्रायः दल बदलता रहता था। उसके साथ ही लाल साहब की राजनैतिक विचारधारा भी बदल जाती थी। कहना कठिन था कि वे किस पार्टी में कब तक रहेंगे और किस में कब आ जायेंगे। इसलिए जब कोई परिचित उनसे दो-तीन महीने बाद मिलता था, तो पहला सवाल यही करता था कि आजकल वे किस पार्टी में हैं। लाल साहब ने एक बार विधानसभा चुनाव की टिकट लेने की पुरजोर कोशिश की थी और टिकट मिल जाने की स्थिति में पिछली तारीख से एच.ए.एल. की नौकरी छोड़ने तक की व्यवस्था कर ली थी, ताकि बाद में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जायें। परन्तु उनको टिकट नहीं मिली। मेरी जानकारी तक उनकी कोई राजनैतिक प्रगति नहीं हो सकी थी। वे मुझे बहुत मानते थे और एक बार मैंने उन्हें कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भी सिखाई थी।
श्री कृष्ण चन्द्र पंत से भी मेरे बहुत अच्छे सम्बंध थे। उनके पिताजी एच.ए.एल. की डिस्पेंसरी में नौकरी करते थे। इसलिए उनका बहुत सम्मान था। कर्मचारियों की रामलीला की व्यवस्था में वे बहुत हाथ बँटाते थे। रामलीला के अवसर पर एक छोटी सी पुस्तिका छापी जाती थी। उसमें मैंने कई बार अपने लेख छपवाये थे, ज्यादातर अपने नाम से और कभी-कभी दूसरों के नाम से। पन्त जी स्वयंसेवक भी थे और संघ के अधिकांश कार्यक्रमों में उपस्थित रहते थे।
बाकी कर्मचारियों से मेरा सम्बंध सामान्य ही था। हाँ, बाद में 8 लड़कों का जो नया समूह आॅपरेटर बनकर आया था, उनके साथ मेरी बहुत आत्मीयता थी। मैंने उन्हें बहुत कुछ सिखाया था, इसलिए वे मुझे अपना गुरु मानते थे। हँसी-मजाक भी चलती थी। उन लड़कों में से सभी किसी न किसी बात में विशेष थे। संजय नागर जूडो के जिला स्तरीय चैम्पियन रह चुके थे। पी.के. पांडे कविताएँ करते थे। मुकेश खरे बहुत अच्छा गाते थे। शंकर जयराज अच्छा क्रिकेट खेलते थे और एच.ए.एल. की क्रिकेट टीम में थे। सुशील द्विवेदी का ज्ञान अच्छा था और बाद में वे किसी बैंक की सेवा में चले गये थे। साकेत बिहारी त्रिपाठी, प्रवीण कुमार तथा धवन भी अन्य सभी की तरह बहुत अच्छा कार्य करते थे। यह पूरा समूह ही मेहनती था और सेक्शन का अधिकांश कार्य ये ही किया करते थे। पुराने आॅपरेटर लोग तो बस काम की खानापूरी ही करते थे।
संजय नागर से मेरा ज्यादा घनिष्ट सम्बंध था। मैं कई बार उनके निवास पेपर मिल कालोनी, निशातगंज पर गया था। उनके पिताजी उ.प्र. सरकार की सेवा में एक अच्छी पोस्ट पर थे। संजय नागर का विवाह दिल्ली में हुआ था। उनकी बारात में मैं भी शामिल हुआ था। उनकी पत्नी उनकी तरह ही काफी लम्बी हैं। इसलिए पीठ-पीछे लोग कहा करते थे कि यह तो दिल्ली से कुतुब मीनार उठा लाया है। एक बार संजय नागर और मैंने मिलकर कम्प्यूटर पर एक किताब लिखना शुरू किया था, परन्तु काम ठीक से नहीं हो पाया। इसलिए मामला वहीं समाप्त हो गया। बाद में उस किताब को मैंने अकेले पूरा किया था, परन्तु वह कभी नहीं छपी, क्योंकि वह किताब कोबाॅल पर थी और तब तक कोबाॅल का उपयोग कम होने लगा था।
हमारे सेक्शन में चार महिला आॅपरेटर भी थीं। उनमें से श्रीमती कैलाश विरमानी सबसे अधिक सुन्दर थीं, लेकिन बुढ़ापे का प्रभाव आने लगा था। इसलिए होली पर प्रायः उन्हें यह टाइटिल दिया जाता था- ‘खंडहर बताते हैं कि इमारत बुलन्द थी।’ उनके दो प्यारी-प्यारी बच्चियाँ हैं- मोना और सोना। वे नादान महल इलाके में रहती थीं। एक बार मैं उनके घर भी गया था। दूसरी, श्रीमती निर्मला दिनकर तमिल ईसाई थीं और एन.डी. के नाम से पुकारी जाती थीं। उनके पति एच.ए.एल. में प्रबंधक थे। बाद में वे दोनों कोरबा डिवीजन में चले गये थे और वहाँ से शायद बंगलौर। तीसरी, श्रीमती के.सी. उषा भी दक्षिण भारतीय थीं और अच्छा कार्य करती थीं। उनके पति श्री जी. कुमार भी एच.ए.एल. में अधिकारी थे। उनके एक प्यारी सी बच्ची थी, जिसका नाम उन्होंने ‘जीशा’ रखा था अर्थात् पिता के नाम का पहला अक्षर और माता के नाम का अन्तिम अक्षर मिलाकर उन्होंने उसका नाम बनाया था।
चौथी और सबसे ज्यादा लोकप्रिय आॅपरेटर थीं श्रीमती उषा पांडेय। उनके पति भी एच.ए.एल. में कार्य करते थे। उषा पांडेय देखने में कुछ साँवली थीं, परन्तु बहुत हँसमुख थीं। उनके चेहरे पर हर समय मुस्कान खेलती रहती थी। काम भी वे अच्छा करती थीं तथा गजलें बहुत अच्छी तरह गाती थीं। उनके ऊपर मैंने एक बार एक कविता लिखी थी, जो एक पत्रिका ‘खिले अधखिले’ में छप भी चुकी है। वह कविता इस प्रकार है-
तुम्हारी ये मोहक मुस्कान।
देती मौन प्रणय आमंत्रण, हर लेती है प्राण।।
एक महकता शीतल झोंका, आता है नित साथ तुम्हारे।
कण-कण को मदहोश बनाते, मदमाते नयना कजरारे।।
मँड़राते हैं भँवरे, करने को अधरों का पान।
तुम्हारी ये मोहक मुस्कान।।
श्याम केश घुँघराले करते हैं सबकी साँसों को सुरभित।
मचल-मचल जाता है मन, छूने को अंग तुम्हारे विकसित।।
तुम्हें देखकर, सुध-बुध खोकर, बन जाते नादान।
तुम्हारी ये मोहक मुस्कान।।
यह कविता मैंने पहले नये आॅपरेटर लड़कों को सुनायी थी। उनको यह बहुत पसन्द आयी थी। उन्हीं में से किसी ने यह कविता मुझसे लेकर उषा जी को सुना दी थी। उनकी प्रतिक्रिया क्या रही, यह तो मुझे पता नहीं, परन्तु वे मुझसे नाराज नहीं हुई थीं। एक बार उन्होंने अपनी पुत्री का जन्म दिन मनाया था और सबको बुलाया था। तब अधिकारियों में से केवल मैं उनके यहाँ पहुँचा था।
आॅपरेटर कर्मचारियों के अलावा वहाँ दो चपरासी भी थे। उनमें से एक थे श्री अशोक कुमार पांडेय। वे प्रारम्भ में तो ठीक थे, लेकिन बाद में बहुत कामचोरी करने लगे थे। सभी अधिकारी और प्रबंधक उनसे असंतुष्ट रहते थे। उनके पिताजी भी एच.ए.एल. में चपरासी थे और उनके सिर पर श्री तायल साहब का हाथ भी था, इसलिए वे किसी को कुछ नहीं समझते थे और काम में कोताही करते थे। वैसे मेरे साथ उनका संबंध ठीक था और वे मेरी बहुत इज्जत करते थे।
दूसरे चपरासी जो बाद में आये थे वे थे श्री श्याम लाल। वे बहुत सज्जन और मेहनती थे। प्रारम्भ में वे बिल्कुल अनपढ़ थे। ककहरा भी ठीक से नहीं जानते थे। इसलिए मैंने उनसे कहा कि आप मेरे साथ आधा घंटा रोज बैठा करो, मैं हिन्दी और गणित सिखा दूँगा। वे राजी हो गये और एक-दो हफ्ते तक मुझसे पढ़े भी। फिर वे अपने घर पर अपने ही बच्चों से पढ़ने लगे और कुछ महीने बाद अखबार भी पढ़ने लग गये थे।
एक बार हमारे विभाग में कम्प्यूटर की ट्रेनिंग का कोर्स हुआ। कोर्स लगभग एक-डेढ़ माह लम्बा था और एक-एक हफ्ते के कई भागों में बँटा था। हम सभी अधिकारी अलग-अलग भागों के लिए नामांकित किये गये थे। उस कोर्स में श्री श्याम लाल रोज तीन-चार बार सबके लिए चाय लेकर आते थे। कोर्स के समापन के दिन मैंने कहा था कि इस सेक्शन में श्री श्याम लाल अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सभी कोर्स नियमित रूप से और पूरी गम्भीरता से अटेंड किये हैं। इस पर सब लोग खूब हँसे थे।
(जारी…)
सैअद हसन रिज़वी की बात कि मैं लखनऊ घुमाऊँगा , कितना अच्छा होता अगर वोह सारा लखनऊ दिखा देता . आप के दोस्तों का दाएरा बहुत बड़ा और दिलचस्प है . बहुत दफा हम एक शहर में सारी जिंदगी गुज़ार देते हैं लेकिन सारा शहर देख नहीं पाते , इस का मतलब यह नहीं कि आप देख नहीं सकते , बस यों ही काम काज में बिजी या सुस्ती के कारण देख नहीं सकते . २००३ में जब हम गोया गए थे तो किसी अँगरेज़ ने बात कही कि उस का मन haimpi ruins देखने को करता है , वोह तो गिया नहीं लेकिन हम ने फैसला कर लिया कि जाना चाहिए . हम ने गाडी हाएर की और तीन दिन का प्लैन बना लिया . पुरानी विजय नगर ऐम्पाएर के खान्द्रात देखे तो हैरान रह गए कि कितनी ऊंची शान थी इस शहर की और किस तरह इस शहर को बर्बाद किया गिया , इस के ब्रीफ इतहास को गाइड के जरीए पता चला. मेरे लिखने का मकसद यह ही है कि बहुत दफा अचानक किसी शहर को देखते हैं तो मन में आ जाता है कि हम ने देख कर कितना अच्छा किया . रिजी साहिब आप को दिखा देते तो कितना अच्छा होता , कोई बात रह जाए तो बस रह ही जाती है.
धन्यवाद भाई साहब. लखनऊ में मुख्य चीजें तो मैंने देख ली हैं. लेकिन पुराना लखनऊ पूरा नहीं देखा. मेरे लिए अकेले वहां जाना कठिन है. किसी को साथ लेकर कभी जरुर जाऊंगा.
हम्फी विजय नगर के खंडहर मैं भी देखना चाहता हूँ. पर अभी तक मौका नहीं मिला. देखना है कब मौका मिलता है.
आत्मकथा की इस कड़ी में सहकर्मियों का रोचक वर्णन पढ़कर ज्ञाननुभव प्राप्त हुआ। आपकी कविता पढ़कर साहित्य की इस विधा में आपकी प्रवीणता से मैं प्रभावित हूँ। कविता करना अत्यंत कठिन कार्य है. इतनी अच्छी कविता लिखने तथा आज की किश्त के लिए धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद, मान्यवर !