कलयुग में सुदामा
कहते हैं कि दो सांडो़ं की लड़ाई में बाड़ी उजड़ जाती है। लेकिन मैंने पहली बार दो नहीं बल्कि तीनों सांढ़ों को एक बिंदू पर एकमत होते देखा है। धर्म कहता है कि कलयुग चल रहा है, विज्ञान और इतिहास भी इस दौर को कलयुग कहते हैं। विज्ञान और इतिहास कहते हैं कि इस दौर मे सारा काम मशीनों और कलपुर्जों से होता है, इसलिए- कलयुग। और धर्म कहता है इस दौर में पाप बहुत बढ़ गया इसलिए- कलयुग। दोनों की डफली अलग-अलग है पर राग दोनों एक ही गा रहे हैं- कलयुग का। ये सांड़ जानते थे कि आनेवाले समय में समलैंगिकों को कानूनी मान्यता मिलनेवाली है। अतः इन्होंने पहले से ही गठबंधन कर लिया। और अब तो इस कलयुग में कलयुगी संतानें प्रगति के नये आयाम गढ़ रही है।
अपना क्या? अपन तो दोनों ही विचारधाराओं में गोते लगा रहे हैं और मज़े लूट रहे हैं भैया। मुझे कलयुग बड़ा अच्छा लगता है। लोेग मूर्ख ही नहीं, अहसानफरामोश हैं। इधर अकेले में कलयुग के सारे मज़े लूटते हैं और उधर सबके सामने गरियाते रहते हैं। मुझे तो लगता है प्रभु को भी सबसे ज्यादा मज़ा कलयुग में ही आ रहा होगा। कितनी सुविधा दे रखी है इस कलयुग ने। देखिए तो। भगवान तक वातानुकूलित कमरों में विराजते है और भक्त वातानुकूलित कारों में जाते है दर्शन करने। भक्त भी खुश और भगवान भी प्रसन्न। नहीं तो कहाँ प्रभु क्षीरसागर में ‘शेष-खटिया’ डाले अद्र्धांगिनी से चरण-सेवा करवाते रहते थे और कहाँ तो भक्तों ने उन्हें सोने-चाँदी और हीरे-मोती लाद दिया। वास्तव में प्रभु ‘लक्ष्मी-पति’ तो अब बने हैं। यह कमाल है-कलयुग का, आम के आम और गुठलियों के दाम।
हमारे देष में कलयुग का पदार्पण बाबा परीक्षित की खोपड़ी के माध्यम से हुआ। और देशों के बारे में नहीं पता। शायद मोटर-सायकिलों के माध्यम से हुआ हो। वास्तव में कलयुग चालाक और दूरदर्शी था। उसे अपने बुरे दिन सालते रहते थे। मेनका-रंभा-उर्वशी के पुराने और एक जैसे सेंसर्ड डांस देख-देखकर वह ऊब गया था। देवताओं की ‘सोमरस’ का कसैला स्वाद याद कर उसे मितली आती थी। चैपड़ जैसा युगों से खेले जा रहा जूआ अब उसे रास नहीं आता था। अतः उसने एक तीर से तीन लक्ष्य साधे। वह जानता था कि आनेवाले समय में मनुष्य कितना ही फटीचर क्यों न हो जाए वह सोने को अवश्य धारण करेगा। इसलिए उसने बाबा परीक्षित को अपने झाँसे में लिया और उनके राज्य में इन चारों स्थानो पर अपना प्लाट कटवा लिया। सोने का मुकुट परीक्षित बाबा ने धारण कर रखा था, इसलिए वही उसे यात्रा का सबसे सुलभ, सुगम और संुदर साधन लगा। और मज़ा देखिए, कलयुग कें……। एक ही स्थान पर बैठकर बढ़िया देशी-विदेशी सुरा और संुदरियों का भोग भी करता है और आधुनिकतम जुआघरों का आनंद भी लेता है।
सच भाई! मुझे तो कलयुग बड़ा अच्छा लगता है। ऐसी आज़ादी और कहाँ? कर लो दुनिया मुट्ठी में! न वर्षों तक धूप-सरदी और बरसात से जूझकर एक टाँग पर खड़े होने का चक्कर और न झाड़ पर उल्टे लटके चमगादड़ के समान प्रभु से लौ लगाने का टेंशन। कितनी सुविधा है। रम-व्हिस्की-वोडका, देषी-विदशी पियो। बढ़िया देशी-विदेशी अप्सराओं के साथ रंगरेलियाँ मनाओ। तीन पत्ती से लेकर घुड़दौड़ में जूआ खेलो। और दूसरी ओर सत्संग में ‘नारायण-नारायण’ का जाप कर लो। नारियल फोड़ दो मंदिर में। भक्त भी खुश और भगवान भी। अगर पापों का बोझ संभाले न संभल रहा हो तो अपनी गंगा किस काम में आएगी। बाबा भगीरथ ने सारी व्यवस्था इस दिन के लिए ही तो कर रखी है। जब चाहे जितनी डुबकियाँ लगा लो गंगा जी में। राम तेरी गंगा मैली लेकिन अपन, एकदम झकास्।
इस कलयुग में कम लागत के दो धंधे सबसे अधिक फले-फूले और फैले- बाबागिरी और दादागिरी के। मुझे भक्तों से बड़ा भय लगता है। लेकिन कलयुग में उत्तम क्वालिटी के भक्त या तो बाबा लोग हुए या दादा लोग। अब भक्त प्रह्लाद, ध्रुव और शबरी टाइप भक्तों का कोई भविष्य नहीं। आप बैठकर तपस्या करते रह जाएँगे और भगवान यू-टर्न मारकर पड़ोसी के घर चले जाएँगे। हमारे देश के बाबाओं और दादाओं ने इस कलयुग में बाबागिरी और दादागिरी कों अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचा दिया। जिसमें सिर्फ आय-ही-आय है। इन धंधों के माध्यम से भक्तों का भरपूर हित सधा। धर्म, अर्थ और काम तीनों एक साथ सध गए। और मोक्ष तो हंड्रेड परसेंट मिलना ही है। हमारे प्राचीन साधु और संत अज्ञानी थे। उन्होंने ‘काम’ को मोक्ष और ईश्वर प्राप्ति में बाधक मान रखा था। अब बताइए, ऐसे में भला क्या मोक्ष मिलता है? हाँ मोक्ष की चाह में अंतिम सांस तक भक्त ‘मोक्षधाम’ तक जरूर पहुँच जाते हैंै। पर कलयुगी बाबाओं ने सुविधा कर दी। अपनी कुटिया में वे सशरीर भगवान और मोक्ष दोनांे ही से मिलवा देते हैं। बस आपके पास ‘अथर्’ होना चाहिए, धर्म अपने आप सिद्ध हो जाएगा।
मैं भ्रम मे था कि गोले-बमों और चाकू, तलवार तथा पिस्तौलों का सहारा लेकर दादा लोग भगवान से भेंट और मोक्ष में प्लाट दिलवाते हैं। गलत है। अब यह काम बाबा जी करते हैं और आपको सषरीर ‘प्रभु-सुख’ करवाते हैं। सशरीर मोक्ष प्राप्ति का फार्मूला हमने विष्व को दिया है। भक्त लोगों को यह कलयुग का प्रकोप लगता है, पर वे नहीं जानते कि यही तो कलयुग का प्रसाद है। हर्रा लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा का चोखा। पूजा के समय भगवान को सुपारी चढ़ाए जाने का मर्म मेरी समझ में इस कलयुग में तब आया जब उस दिन दो परम भक्तों के वाक्-युद्ध में मैंने यह सुना। एक बोला-‘हनुमान जी तेरा सत्यानाश करें। तेरी अर्थी उठ जाए।’ दूसरे ने नहले पर दहला मारा-‘काली मैया, तेरा सारा खानदान निगल लें। तुझे कच्चा खा जाएँ।’ वे दोनों एक-दूसरे की ‘सुपारी देने’ में लगे थे, अपने-अपने आराध्यों को। मुझे लगा भगवान भी बेरोजगारों के पेट पर लात मारने काहे तुले हैं। बचे-खुचे एक-दो धंधे पुरुषार्थियों के लिए बचे थे, प्रभु उसे तो छोड़ दो।
बस कलयुग में एक ही चीज़ मुझे खटकती है। बेचारा सुदामा!! हाँ साहब सुदामा। उसे भगवान के दर्शन नहीं मिलते इस कलयुग में। भक्त आते हैं, टिकट कटाते है, और दो मिनट में भगवान के दर्शन कर चल देते हैं। सुदामा देखता रहता टुकुर-टुकुर और द्वारपाल से मनुहार करता हुआ कहता है-‘द्वार खड़ो द्विज-दुर्बल एक, बतावत आपनों नाम सुदामा।’ द्वारपाल उसे धक्का देकर हटाता है और इंपोर्टेड कार में से उतरी स्लीवलेस पहनी मेडम से टिकट लेकर उन्हें प्रभु-दर्शन के लिए मंदिर में भगवान की ओर का रास्ता दिखा देता है….और सुदामा देखता रहा जाता है, कलयुग में….।