कविता : मैं हूँ पीड़ा …
मैं हूँ पीड़ा
उस स्त्री की जो लहुलुहान हो
पड़ी सहती है
दर्द गर्भ में
मार देने वाले
अजन्में बच्चे की
अब मैं हो जाउंगी चुप
बोल रही हूँ
कितने युगों से
असर होता है कहाँ
फट जायेगा
एक दिन कंठ मेरा
बड़ा भरोसा था
अपनी आवाज़ पर
कर दूंगी
अपनी चीख पुकार
से सारा शहर इक्कठा
जगाए कितने अलख
कि कोई तो होता
पीड़ा की पीड़ा समझने वाला
जाने किस किस
घर से निकली
कहाँ कहाँ गूंजी
पर हर बार फेक दी गयी
किसी नाले में
किसी कचरे के डिब्बे में
जमाना भले ही जाएं मंगल पर
मैं तो हूँ पीड़ा
नहीं थमेगी तब तक
जब तक न समझे कोई मेरी पीड़ा
सरिता दास
अच्छी कविता .
बहुत अच्छी कविता !
सार्थक लेखन