धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

भक्ति का स्वरूप

ईश्वर भक्ति ईश्वर की पूजा व उसका सत्कार है। भक्त अपने जिन कृत्यों से अपने अराध्य देव को प्रसन्न करने की चेष्टा करता है वह सब भक्ति के अन्तर्गत आता है। भक्त का अराध्य ईश्वर है जो चराचर जगत का स्वामी है। यह स्वामी भक्त की तरह एकदेशी न होकर सर्वव्यापक है। वह भक्त के साथ हर क्षण रहता है। अन्तर्यामीस्वरूप से भक्त के हर कृत्य को देखता व जानता है। यहां तक की भक्त के मन में जो भाव व विचार आते-जाते रहते हैं, उसका भी पूरा-पूरा ज्ञान ईश्वर को रहता है। भक्त कुछ सोच कर व निर्णय कर भूल सकता है परन्तु ईश्वर को सब कुछ स्मरण रहता है, वह कुछ भी भूलता नहीं है। अतः इन तथ्यों के जानकर भक्त को अपनी भक्ति का स्वरूप निर्धारित करना होता है। भगवान ने भक्त को बनाया है अथवा यह कह सकते हैं कि मनुष्य का जन्म दिया है। यह जन्म उसने दिया है तो इसका कुछ कारण तो अवश्य होगा। विचार करने व शास्त्रों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह सब हमारे प्रारब्ध के कारण होता है। हमने पूर्व जन्मों में अच्छे व बुरे अथवा पुण्य व पाप कर्म किये होते हैं उनमें से जो कर्म व पाप-पुण्य भोगे जाने शेष होते हैं उनका भोग करने के लिए ईश्वर अपनी शाश्वत प्रजा – जीवात्माओं को जन्म अर्थात् जाति-आयु-भोग देता है। जाति से तात्पर्य मनुष्य, पशु व पक्षी आदि योनियां हैं। आयु से तात्पर्य जीवनकाल है तथा भोग से तात्पर्य सुख व दुःख से है। इससे यह समझ में आता है कि सभी मनुष्यों को इस जीवन में अपने पूर्व अवशिष्ट कर्मों के फलों को भोगना है और नये श्रेष्ठ कर्मों को करके भावी जन्म व जन्मों के लिए प्रारब्ध में गुणात्मक वृद्धि अर्थात् पुण्यों की वृद्धि करनी हैं जिससे हमें कम से कम दुःख भोगने पड़े और सुख की मात्रा हमारे इस व भावी जीवन में अधिक हो।

​कर्म-फल सिद्धान्त और श्रेष्ठ कर्मों का महत्व समझ में आने पर मनुष्य अपने से कुछ अधिक ज्ञानी धार्मिक मनुष्यों की संगति करता है और धार्मिक पुस्तकों का स्वाध्याय करता है। वह लोग बड़े भाग्यशाली होते हैं तो ढ़ोगी-पाखण्डी-अज्ञानी-स्वार्थी गुरूओं के चक्कर में न पड़कर किसी योग्य सद्गुरू को प्राप्त होते हैं जो अपने शिष्यों को सत्यपथानुगामी बनाता है। अधिकांश धार्मिक पुरूष जिन्हें धार्मिक गुरू कहते हैं, ऐसे हैं जो स्वयं ही ईश्वर भक्ति के सत्यस्वरुप से परिचित नहीं हैं। ऐसे पाखण्डी गुरुओं का अज्ञान के साथ अपना निजी हित व स्वार्थ भी होता है। वह भक्तों को गुमराह कर अपने जाल में फंसा लेते हैं जिससे भक्तों को जीवन का लक्ष्य, अर्थात् ईश्वर-साक्षात्कार, प्राप्त होने के स्थान पर सह सत्य मार्ग से दूर हो जाते हैं। अतः गुरू चयन के मार्ग में खतरें बहुत ज्यादा हैं। इसके स्थान पर यदि भक्तजन घर में रहते हुए सत्यार्थ प्रकाश, पंचमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, ग्यारह उपनिषद, छः दर्शन और महर्षि दयानन्द व आर्य विद्वानों के वेद भाष्यों का अध्ययन करें तो इससे भक्ति क्षेत्र में बहुत लाभ होता है। भक्ति और ईश्वर की उपासना दोनों समानार्थक शब्द हैं। भक्ति उपासना की विरोधी न होकर सहयोगी या पूरक है। भक्ति में भी उपासना निहित होती है। सच्ची भक्ति के लिए भक्तों को योग दर्शन के भाष्यों का अध्ययन करना चाहिये। इसके लिए पं. उदयवीर शास्त्री, महात्मा नारायण स्वामी जी आदि आर्य विद्वानों के योगदर्शन के हिन्दी भाष्य सहायक हो सकते हैं। इसके साथ ही दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड, साबरकाण्ठा, गुजरात से प्राप्य “बृहति ब्रह्म मेधा-तीन भाग” ग्रन्थ भी बहुत उपयोगी है। यदि भक्ति मार्ग के पथिक इन ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो उन्हें इनसे बहुत लाभ हो सकता है।

​भक्ति के नाम पर आजकल कुछ अन्धविश्वास भी प्रचलित हैं। बहुत से लोग परम्परागतरुप से देवों की मूर्तियों की पूजा करते हैं। इस मूर्तिपूजा का आधार अवतारवाद का अवैदिक सिद्धान्त है। ईश्वर अजन्मा, निराकार व सर्वव्यापक होने के कारण अवतार नहीं ले सकता और न ही अवतार की उसे किंचित भी आवश्यकता है। यह मूर्तिपूजा हिन्दुओं ने जैनियों का अन्धानुकरण कर आरम्भ की थी। बौद्ध और जैनियों से पूर्व भारत में मूर्तिपूजा का नाम व निशान भी नहीं था। अतः शुद्ध भक्ति का मूर्तिपूजा से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। मूर्तिपूजक भक्त नाना प्रकार के अनुष्ठान व कर्मकाण्ड करते हैं। वस्तुतः यह भक्ति न होकर भक्ति का एक विकृत रूप होता है। भक्ति तो ईश्वर की प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार व ब्रह्म साक्षात्कार के लिए किया जाने वाला ज्ञान व विवेक पूर्वक कृत्य है जो अष्टांग योग के अन्तर्गत आता है। इसके लिए यम व नियमों का पालन अनिवार्य है। पांच यम अर्थात् अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह तथा पांच नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान हैं। इनका जीवन में पूरी तरह आचरण करना आवश्यक व अनिवार्य है। यदि यम व नियमों के पालन में किंचित भी शैथिल्य होगा तो भक्ति फलीभूत नहीं होगी। अतः इसे प्रातः व सायं सन्ध्या में बैठकर परीक्षक की भांति प्रातः की सन्ध्या में अपने पूर्व दिन व सायं की सन्ध्या में उससे पूर्व दिन भर के कार्य कलापों का परीक्षण करना चाहिये और देखना चाहिये कि क्या हमने यम व नियमों का पूरी तरह से पालन किया है अथवा नहीं। आसान व प्राणायाम शरीर को स्वस्थ रखने व मन को एकाग्र करने के लिए किए जाते हैं। प्रत्याहार व धारणा भी ईश्वर का स्थिर होकर ध्यान करने में सहायक होते हैं। यदि योग के 6 अंगों को साध लिया तो फिर ध्यान व साधना को सिद्ध करना आसान व सम्भव हो जाता है ऐसा वैदिक विद्वानों व साधकों का मत है। हमारा अध्ययन व ज्ञान यह बताता है कि योग दर्शन के अनुसार योग के आठ अंगों का पालन करते हुए ईश उपासना को ही सच्ची भक्ति कह सकते हैं।

​भक्ति का एक स्वरूप यह भी हो सकता है कि ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसके विचार, चिन्तन, स्तुति, प्रार्थना व निरन्तर ध्यान आदि में अपना अधिकांश समय व्यतीत करना। इससे लाभ यह होता है कि दिन-प्रतिदिन हमारे दोषों का शमन होने लगता है एवं भक्ति करने के समय में ईश्वर के सान्निध्य से ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावानुसार भक्त के गुण-कर्म-स्वभाव सुधरते जाते हैं। ऐसा होने पर भक्त की अपने अराध्य से निकटता बढ़ जाती है। भक्त जितना अधिक ईश्वर का विचार-चिन्तन- स्तुति-प्रार्थना- ध्यान-उपासना आदि करेगा उतनी ही उसकी निकटता ईश्वर से हो जायेगी और ऐसी स्थिति में उसे ईश्वर का अहसास व अनुभव भी औरों की तुलना में उस भक्त को कहीं अधिक हो सकता है। हम समझते हैं कि यह स्थिति समाधि प्राप्त योगी की तुलना में समाधि के निकट की अवस्था हो सकती है। सभी जिज्ञासु भक्तों, उपासकों व अध्यात्म प्रेमियों को इस प्रकार से भक्ति साधना कर ज्ञान साधना के समान ही ईश्वर को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये। यह ध्यान रहे कि भक्ति यदि विवेक पूर्ण होगी तो फलदायक होगी और विवेकरहित भक्ति को अन्धविश्वास ही कह सकते हैं।

​भक्ति ईश्वर को अपने स्तुति वचनों व आचरण से प्रसन्न करने को कहते हैं। अतः सच्चा भक्त ईश्वर की स्तुति के गीतों व प्रार्थनाओं को ईश्वर से मन ही मन कह कर व उस ईश्वर से अपना स्वरूप प्रकाशित करने की प्रार्थना कर अपनी भक्ति को सफलता व सि़िद्ध के सोपान तक पहुंचा सकते हैं। ईश्वर के गुणों का वर्णन और प्रार्थना के भजन गाने से भी भक्त ईश्वर से जुड़ा रहता है। इसका भी उपयोग भक्ति में किया जा सकता है।

-मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “भक्ति का स्वरूप

  • मनमोहन जी , आप का लेख अच्छा है लेकिन आज कल पाखंड बहुत बड गिया है . अगर हर इंसान अपने आप को अन्दर से झांके और अन्दर झाँक कर जो गंदगी उस को दिखाई देती है उस को साफ़ कर दे तो मैं समझता हूँ कि यही भगवान् की मर्जी है . मैंने जिंदगी में बहुत लोग देखे हैं जो पाठ पूजा भी करते हैं चोरी भी करते हैं . चोरी बहुत किस्मों की होती है , सिर्फ समझने की ही जरुरत है . मेरे विचार में भगवान् कोई इतना लालची या अपनी उसतत का भूखा नहीं हो सकता , वोह तो सिर्फ जैसे एक माँ बाप चाहते हैं कि उन के बच्चे अछे बने , बिलकुल यही चाहता है कि संसार में लोग अछे बने , बस यही मेरी सोच है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैं आपसे शत प्रतिशत सहमत हूँ। मनुष्यों के ऐसे काम जिन्हे वह करता तो है परन्तु दूसरों के सामने प्रकट नहीं कर सकता, चोरी की श्रेणी में आते हैं। आज काल यह प्रवृत्ति शीर्ष पर है। मुझे एक घटना याद आती है। महर्षि दयानंद एक बार पंजाब में प्रचार कर रहे थे। एक रुई धुनने वाला व्यक्ति उनका प्रवचन सुनने आया। प्रवचन की समाप्ति पर उसने अपना परिचय दिया और बोला कि महाराज मेरा कल्याण कैसे होगा? में तो थेट अनपढ़ और अज्ञानी हूँ। स्वामी जी ने उससे कहा कि तुम जिस व्यक्ति से जितनी रुई धुनने के लिए लो और उसे पूरी धून कर पूरी लौटा दिया करोगे, गड़बड़ नहीं करोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जायेगा। वह व्यक्ति संतुष्ट होकर चला गया. इस घटना में बहुत बड़ा सन्देश छुपा हुआ है। लेख पर प्रतिक्रिया देने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद।

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        नमस्ते मनमोहन जी , जो आप ने उदाहरण सुआमी दया नन्द के रुई धुनने वाले को उपदेश की लिखी , बस उसी में ही सब कुछ छुपा हुआ है.

        • Man Mohan Kumar Arya

          हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।

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