कविता

समानता

 

कोई कचरे से उठा कर दाना दाना
पेट की अगनी बुझाते रहे
कोई अन्न के भंडार कचरे मैं फेंक फेंक
कर अपनी शान बढ़ाते रहे
और समानता की बातें करते हैं ,हम और आप
कोई भूँका है यहाँ
कोई नगां हं यहाँ
कोई सरेआम मरता है यहाँ
मारने वाला कोई ग़ैर नहीं
हम मैं से ही कोई एक होता है
और समानता की बातें करते है हम और आप
जिनके बदौलत हम
चेन की निन्द सोते हैं
उनको कहां उनका हक मिलता है
नेताओं की तिजोरी मैं
सारे देश का पैसा है
और समानता की बातें करते हैं हम और आप
धरती माँ के पुत्र है किसान
एक गज ज़मीन नहीं उनके पास
हर रोज़ गला अपना घोंट लेते हैं
धरती को नोचने वाले
खरोंचने वालों ने सारी
सारी ज़मीन पर अपना
नाम ख़ुदा रखा है
और समानता की बातें करते है हम और आप

3 thoughts on “समानता

  • रमेश कुमार सिंह

    कविता के भाव में पूर्ण सच्चाई है जो आजकल समाज में देखा जा रहा है।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सशक्त कविता !

  • मीनाक्षी जी, आप ने इस समानता का भंडा फोड़ दिया , कविता काब्लेतारीफ़ है.

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