एक मुफलिस, एक मसीहा !
एक मुफलिस सा आदमी हमारी ओर आकर कुछ गज़ की दूरी पर खड़ा रह गया | मेरे दोस्त अजय ने मेरे हाथ को जोर से दबाया | मैं चुप हो गया मगर मन में असमंजस की स्थिति पैदा हो गई | मेरे दोस्त ने उन्हें कहा; ‘आप यहाँ आईये, यह तो मेरा दोस्त है |’
वो आदमी बिलकुल नज़दीक आ गया | मेरे सामने देखा और फिर मेरे दोस्त के चेहरे को… मेरे दोस्त ने हंसकर सर हिलाकर सहमति दे दी | मुफलिस आदमी ने अपने फटे से कुर्ते की एक जेब से प्लास्टिक की बेग में लपेटी हुई दो रोटियाँ निकाली | मेरे दोस्त ने अपने हाथ फैलाए तो उन्हों ने रोटियाँ रख दी | फिर दूसरी जेब से वैसी ही प्लास्टिक बेग में से सब्जी निकालकर रोटी में थोड़ी सी रख दी | मेरे दोस्त ने उसे रोटी और सब्जी को सेंडविच की तरह वहीं खड़े खड़े ही खा ली | फिर उन्होंने ने दूसरी बार दूसरी रोटी में सब्जी डालकर प्लास्टिक बेग को सड़क के किनारे फेंक दी | मेरे दोस्त ने दूसरी रोटी-सब्जी भी उसी तरह खा ली | फिर सामने रही आलीशान होटल के बाहर रखे वोश बेजिन के नल से थोडा सा पानी भी पी लिया|
…. और मेरे दोस्त ने उस मुफलिस से हाथ मिलाकर कहा कि कल दोपहर को हम मिलते हैं | वो आदमीं चेहरे पे संतुष्टि और खुशी के भावों के साथ चला गया |
मैंने अपने दोस्त के सामने आश्चर्य से देखा तो वो हंसने लगा | अजय मेरा बचपन का दोस्त है | बचपन में ही पिताजी चल बसे थे | मगर पुरखों की जायदाद का हिस्सा तीनों भाईयों को मिला उसके बाद वो अपनी ज़िंदगी को संवार सके थे | अजय ने शहर के बीच में अपना छोटा सा रेस्तरां शुरू किया था | कुछ ही समय में वो शहर का सबसे अच्छा रेस्तरां हो गया | अजय ने नाम और दाम भी कमाएँ |
समय जाते उसने शहर से बाहर एक बड़ा सा होटल बनाया और कुछ सालों में वो शहर का अमीर आदमी बन गया | उनकी अच्छाई भी लोगों की जुबां पर थी | अमीरी के साथ उनके संस्कार और धर्म के प्रति आस्था भी बढ़ने लगी थी | एक दिन अजय ने अपने गुरु से कहा; ‘मैं आपसे ‘रामायण कथा’ करवाना चाहता हूँ | एक सप्ताह में जो भी खर्च होगा वो मेरी जिम्मेदारी |’
उनके गुरु जी देश-विदेशों में ‘रामायण कथा’ करने जाते थे | कथा के लिए कोई खर्च नहीं होता था मगर गुरु जी के प्रभाव के कारण लाखों लोग कथा सुनने को आते थे | गुरु जी का हमेशा आग्रह रहता कि जो यजमान कथा करवाएं वो आनेवाले सभी भावकों को प्रसाद के रूप में सुबह-शाम खाना भी खिलाएं | वो भी पूरे एक सप्ताह तक | उपरांत दूसरे खर्च अलग | जिसमें एक लाख लोगों के बैठने की व्यवस्था आदि |
अजय को गुरु जी ने कहा; ‘तुम एक काम करो | शहर के बीचोबीच जो तुम्हारा पुराना रेस्तरां था वो जगह आज बिलकुल खाली है | तुम उसी जगह पर अन्नक्षेत्र शुरू करो | गरीबों को मुफ्त में खाना खिलाओ | संभव हो तो उन्ही लोगों के साथ तुम भी खाना खाने के लिए बैठो | उन्हें जो परोसा जाएँ वोही तुम्हें खाना होगा | कुछ साल बाद मैं ही तुम्हें कहूँगा कि अब हम रामायण कथा का आयोजन करें | मैं एक पैसा भी नहीं लूँगा |’
अजय ने गुरु जी की बात को आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर ली | उन्हों ने अपने पुराने बंद रेस्तरां को खोल दिया और सुबह-शाम गरीबों के लिए अन्नक्षेत्र शुरू कर दिया | वो हमेशा दोपहर को अपने सारे कामकाज छोडकर वहाँ पहुँच जाता और बिलकुल सादे कपड़ों में उन गरीबों को भोजन परोसता और फिर उन्हीं के साथ खाने के लिए बैठ जाता | गरीब-भिखारी लोग जब उन्हें पूछते कि तुम परोसने के बाद हमारे साथ भोजन के लिए बैठते हो | तुम कौन हो? वो हंसकर कहता; ‘जो शेठ हम सभी के पेट की आग को शांत करता है उसको तो हमने देखा नहीं | मगर मेरा शरीर काम कर सकता है | कम से कम मैं सभी को खाना परोसने की जिम्मेदारी लेकर छोटा सा सेवाकार्य तो करूँ …’
एक दिन अजय ने उन सभी गरीब-भिखारियों के कहा कि मैं दो-तीन के लिए रात का खाना खाने के लिए नहीं आ पाऊंगा | आप लोगों में से कोई मेरी गैरमौजूदगी में खाना परोसने की जिम्मेदारी निभाना | मैं अपना कार्य खत्म होते ही लौट आऊँगा | असल में अजय अपने बड़े होटल की जिम्मेदारी और कुछ व्यस्तता के कारण पुराने रेस्तरां में गरीबों के साथ भोजन लेने नहीं जा सकता था |
एक दिन रात को मैं बाहर से घर लौट रहा था तब अजय के होटल के पास से ही मुझे गुज़रना था | मैंने उसे बाहर खड़ा देखा | सर्दी का मौसम था तो ज्यादा भीड़ नहीं थी | होटल के कर्मचारी अब घर जाने की तैयारी कर रहे थे | अजय बाहर खड़ा सभी का इंतज़ार करता था | मैंने उसे देखा तो सोचा, काफ़ी दिनों से बात नहीं हुई | चलो, मिलकर कुछ बातें हो जाएँ | ऐसे में वो मुफलिस हमारे पास आ गया | अजय ने सड़क पर खड़े खड़े ही उनके हाथों से दो रोटियाँ और सब्जी खा ली थी |
अब, अजय ने मुझे कहा; ‘मैं अपने पुराने रेस्तरां में इन दिनों शाम का खाना खाने नहीं जा पाता हूँ तो ये मुफलिस आदमी को लगा कि मैं शायद भूखा ही सो जाता होगा | आज शायद उनसे रहा नहीं गया | उसने रेस्तरां वाले अन्नक्षेत्र के कर्मचारी से मेरे बारे में पूछा होगा | उन्हों ने बता दिया कि अगर तुम्हें उनकी चिंता है और मिलना है तो शहर की बड़ी सी होटल के पास पहुँच जाओ | वहीं मिल जाएंगे | उस मुफलिस आदमी ने अन्नक्षेत्र से मेरे लिए दो रोटियाँ और सब्जी माँग ली और चला आया मुझे ढूँढता हुआ यहाँ तक | वो वहाँ से यहाँ पैदल आता तबतक अन्नक्षेत्र के कर्मचारी ने मुझे फोन से बता दिया था कि वो मुफलिस आदमी आपके लिए खाना लेकर होटल पहुँच रहा है | यही कारण से मैं होटल के बाहर सड़क पर खड़ा होकर उसी के इंतजार में खड़ा था | ऐसे में तुम भी आ गएं |’
मैं तो हैरत में पड़ गया कि मेरा बचपन का दोस्त अजय आज इंसान से मसीहा बन गया है | मैंने उन्हें पूछा; ‘अजय, क्या उस मुफलिस को यह भी पता नहीं कि वो अन्नक्षेत्र तुम ही चलाते हो और यह आलीशान होटल तुम्हारा ही है ?’
उन्हों ने कहा; ‘दोस्त ! वो ये सब नहीं जानता | उसे तो ऐसा लगा कि प्रतिदिन सुबह-शाम मेरे साथ बैठकर अन्नक्षेत्र में खाने वाला यह आदमी किसी वजह से आ नहीं पाया तो मुझे उसके लिए खाना ले जाकर उसे खिलाना चाहिए | यही सत्य है | यही प्यार और रिश्ता है |’
मैंने आज इंसान के दो रूप देखें – एक मुफलिस आदमी की इंसानियत और मेरे दोस्त के रूप में एक मसीहा |
— पंकज त्रिवेदी
अच्छी कहानी है. मज़ा आ गिया .
रोचक कहानी !