आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 15)
बाल निकेतन की व्यवस्था करते हुए हमने अनुभव किया कि बच्चों को रोटी-कपड़ा और शिक्षा से भी अधिक ‘प्यार’ की आवश्यकता होती है। श्यामता प्रसाद जी अपना अधिक समय बाल निकेतन को नहीं दे पाते थे, क्योंकि वे सेवा समर्पण संस्थान के अन्य कार्यों में व्यस्त रहते थे। इसलिए उनसे एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता देने का अनुरोध किया गया। जो कार्यकर्ता मिले वे थे श्री नन्दलाल जी। वे स्वयं वनवासी थे और वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावासों में रहकर ही पढ़े थे। बड़े होकर उन्होंने सेवा कार्यों में ही अपना जीवन लगाना तय किया था। वे बहुत अच्छे कार्यकर्ता थे और उनका व्यवहार भी सबके प्रति बहुत मधुर था। उनके आने पर बच्चों को अच्छे संस्कार भी मिलने लगे। वे समस्त दिनचर्या नियमित रखते थे और सायंकाल शाखा भी लगाते थे। उनके आने पर बाल निकेतन एक घर के रूप में व्यवस्थित हो गया।
यह बात नहीं थी कि बच्चों को कोई कष्ट नहीं होता था। वास्तव में छोटी उम्र के बच्चे तरह- तरह की समस्याओं से घिरे रहते थे, जिनमें प्रमुख थी स्वास्थ्य की समस्या। किसी बच्चे के बीमार पड़ जाने पर उसका तत्काल किसी अच्छे डाक्टर से इलाज कराया जाता था। कुछ डाक्टर प्रसन्नता से मुफ्त में भी उनकी चिकित्सा कर देते थे।
कई बार बच्चे असंतुष्ट भी हो जाते थे, जिसका प्रमुख कारण था- भोजन की गुणवत्ता में कमी। इसलिए इस ओर मेरा बहुत ध्यान रहता था। बच्चे अपनी शिकायतें और आवश्यकताएँ मुझसे निस्संकोच कह दिया करते थे, क्योंकि वे मुझ पर बहुत विश्वास करते थे। मैं उन्हें आवश्यकता के अनुसार डाँटता भी था और समझाता भी था। एक रविवार की बात है कि बच्चे चाय पी रहे थे। उसी समय मैं आया, तो एक बच्चे ने शिकायत की कि चाय अच्छी नहीं है। मैंने स्वयं चाय चखकर देखी तो वह वास्तव में अच्छी नहीं बनी थी। उसमें दूध कम था और चीनी भी बहुत कम थी। तब मैंने आदेश दिया कि सबकी चाय में एक-एक चम्मच चीनी और डालो। इतने से ही बच्चे खुश हो गये और प्रसन्नता से चाय पी ली।
इसी प्रकार की छोटी-छोटी घटनाओं से मैं बच्चों का विश्वास जीतने की कोशिश किया करता था और उसमें प्रायः सफल भी रहता था। मैंने उनसे कह रखा था कि किसी भी तरह की कोई भी परेशानी या आवश्यकता हो तो मुझे बतायें। कभी-कभी मैं उनके साथ खेलता भी था और गणित के सवाल भी करा देता था। यों तो मैं अपने घर पर ही खाना बनाता-खाता था, परन्तु कभी-कभी बच्चों की खुशी के लिए उनके साथ नाश्ता या भोजन कर लेता था।
प्रारम्भ में बाल निकेतन केवल 2 कमरों के मकान में चल रहा था। उसमें बाहर काफी खुली जगह थी। बच्चों की संख्या बढ़ने पर जगह की कमी पड़ने लगी। इसलिए बाहर कपड़े का एक तम्बू लगा दिया गया और उसमें कई तख्त डालकर बच्चों के सोने की व्यवस्था की गयी। इससे बहुत आराम हो गया, क्योंकि एक पूरा कमरा भोजन करने आदि कार्यों के लिए खाली हो गया।
शुरू में बाल निकेतन के खर्च का हिसाब श्यामता जी रखा करते थे, बाद में मैं देखने लगा। मेरा प्रयास रहता था कि बच्चों की सभी आवश्यकताएँ पूरी हो जायें और पैसे का पूरा सदुपयोग हो। इसका परिणाम यह रहा कि 11-12 बच्चों और 3-4 बड़ों का खर्च मात्र ढाई-तीन हजार रुपये महीने में चलने लगा।
बाल निकेतन में रखे गये बच्चे हालांकि स्वस्थ थे, लेकिन उनके पिता या माता या दोनों को कुष्ठ रोग होने के कारण उन बच्चों को भी यह रोग होने का डर बना रहता था। इसलिए हर साल गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को आगरा ले जाकर वहाँ ताजगंज के जालमा कुष्ठ रोग संस्थान में पूरी जाँच करायी जाती थी। एक-दो बार मैं भी बच्चों के साथ गया था। एक बार तो एक बच्चे को मैं अकेला ही आगरा ले गया था। सौभाग्य से किसी बच्चे में कभी कुष्ठ रोग नहीं मिला। सभी पूर्ण स्वस्थ पाये गये। केवल एक बार एक ‘विजय’ नाम के बच्चे के बारे में कुछ शंकाएँ थीं, जो दूसरी बार की जाँच में निर्मूल पायी गयीं।
महामना मालवीय मिशन प्रतिवर्ष 25 दिसम्बर को मालवीयजी की जयन्ती का उत्सव मनाया करता है। बाल निकेतन के लगभग एक वर्ष पूरा होने के आस-पास जो मालवीय जयन्ती आयी, उसे बाल निकेतन परिसर में ही मनाने का निश्चय किया गया था। इसके साथ ही सामूहिक भोज की भी व्यवस्था थी। उसी दिन महामना बाल निकेतन का औपचारिक उद्घाटन भी कराया गया। यह कार्यक्रम बहुत सफल रहा। सामूहिक भोज में सभी कार्यकर्ताओं और आमंत्रित अतिथियों ने सपरिवार भोजन किया था। इस भोज की तैयारी और भोजन वितरण के कार्य में मैंने भी सहयोग किया था, जिससे मुझे बहुत आत्मिक संतोष हुआ।
इस कार्यक्रम से महामना बाल निकेतन का यश चारों ओर फैल गया। लोगों ने इसकी बहुत प्रशंसा की और मुक्त हस्त से सहयोग भी अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगा। इसके साथ ही बच्चों में अच्छे संस्कार भी डाले जाते रहे। एक समय ऐसा भी आया जब बाल निकेतन के बच्चों ने ही पूरे कार्यक्रम का संचालन किया था।
महामना बाल निकेतन के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से एक बार ‘गीत संध्या’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया था, जिसमें शेखर सेन-कल्याण सेन बंधुओं ने विभिन्न पदों, चैपाइयों, दोहों और गीतों का गायन किया था। इस कार्यक्रम के लिए यह नियम बनाया गया था कि किसी को भी मुफ्त में प्रवेश नहीं दिया जाएगा और कार्यकर्ताओं को भी टिकट लेना अनिवार्य होगा। यह कार्यक्रम अपने उद्देश्य में सफल रहा। अच्छी राशि एकत्र हो गयी थी। हालांकि आधे श्रोता बीच में ही चले गये थे, क्योंकि कार्यक्रम का समय बहुत लम्बा था।
उस समय महामना मालवीय मिशन की सारी गतिविधियाँ केवल बाल निकेतन के आसपास ही सिमट कर रह गयी थीं। हालांकि इसमें कुछ भी गलत नहीं था, लेकिन मिशन जिस उद्देश्य को लेकर चला था, उससे भटक रहा था। यह बात हम संघ से जुड़े कई कार्यकर्ताओं को खटक रही थी। इसलिए इस बात पर एक बैठक में बहस हो गयी। मैंने भी मिशन की गतिविधियाँ बढ़ाने और महामना मालवीय जी के विचारों के प्रसार का भी कार्य करने पर जोर दिया था। इसलिए अब बाल निकेतन के साथ-साथ अन्य गतिविधियों पर भी ध्यान दिया जाने लगा। सबसे पहले तो विभिन्न विषयों पर व्याख्यान मालाएँ आयोजित की गयीं, जिनमें ख्याति प्राप्त विद्वानों और विचारकों को व्याख्यान देने के लिए बुलाया जाता था। ऐसे एक व्याख्यान में महान् विचारक श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी पधारे थे।
इसके अलावा प्रतिवर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती के अवसर पर अन्तर-विद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाने लगा। प्रारम्भ में इसका स्वरूप छोटा ही था, लेकिन प्रतिवर्ष इसमें भाग लेने वाले विद्यालयों की संख्या बढ़ती गयी और अब तो यह लखनऊ शहर की एक प्रमुख प्रतियोगिता बन गई है।
(जारी…)
विजय भाई , बाल निकेतन के बारे में धियान से पड़ा . यह जान कर अच्छा लगा कि आप भी इस संस्था के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं .ऐसे काम इतने आसान नहीं होते लेकिन इस से जो संतुष्टि मिलती है उस का मूल्य काम से कहीं अधिक होता है .
सही कहा भाई साहब आपने। मुझे इसकार्य से बहुत संतुष्टि मिलती है।
बाल आश्रम से जुडी घटनाएँ व जानकारिया महत्वपूर्ण हैं। देहरादून में भी चेशायर होम वा राफेल होम है जहा कुष्ट रोगियों की कालोनी है। मेरे एक मित्र श्री दौलत सिंह राणा इस कालोनी में रहते हैं। यहाँ रहने वाले लोग इस रोग के कारण नाना प्रकार की विकलांगताओं से ग्रस्त हैं। मैं यदा कदा यहाँ जाता रहता हूँ। यहाँ विदेशों से धन आता है उसी से व्य्वस्था चलती है। विदेशी लोग जो प्रायः युवा लड़के व लड़कियां होते हैं, यहाँ आकर इन लोगो वा इनके बच्चों से मिलते रहते हैं। हमारे मित्र कट्टर आर्य समाजी हैं और उनका सभी लोगो पर अच्छा प्रभाव है। उनकी एक कमरे की कुटिया में अनेक विदेशियों सहित पूर्व राष्ट्रपति की पत्नी बेगम आबिदा अहमद आदि भी आ चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम भी अपने कार्यकाल में यहाँ आये थे. राणाजी ने इस अवसर पर राष्ट्रपति जी पर अपनी एक स्वरचित कविता पढ़ी थी जिस से प्रसन्न होकर उन्होंने राणा जी की पीठ थपथपा कर कहा था Well done Rana ji . आज की महत्वपूर्ण कड़ी के लिए धन्यवाद।
धन्यवाद, मान्यवर !
मैंने प्रायः यह देखा है कि लोग कोई सेवा प्रकल्प चलते हैं तो उसके प्रचार में भी बड़ी धनराशि खर्च करते हैं, ताकि अधिक चंदा आये और बड़े बड़े लोग उसे देखने आयें. लेकिन बाल निकेतन के लिए हम ऐसा कुछ नहीं करते. हम तो केवल मिशन के सदस्यों और उनकी जान पहचान के लोगों से सहायता की अपील करते हैं. प्रचार में एक पैसा भी खर्च नहीं किया जाता. इस कारण हमारे साधन सीमित हैं. फिर भी हम संतुष्ट हैं, क्योंकि हमें प्रचार की भूख नहीं है.