धर्म की वेदी पर शहीद पं. लेखराज
आज देश भर में होली का पर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है। 118 वर्ष पूर्व आज ही 6 मार्च के दिन सन् 1897 में वैदिक धर्म प्रेमी एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनन्य भक्त जीवनदानी पंण्डित लेखराम जी का लाहौर में बलिदान हुआ था। वैदिक धर्म की रक्षा का जो कार्य पं. लेखराम जी ने अपने जीवन काल में किया और धर्म के मर्मज्ञ होकर अपना जीवन धर्म की वेदी पर अर्पण किया इसके लिया सारी हिन्दू जाति सदा-सदा के लिए आपकी ऋणी है। उनके जीवन और कार्यों पर दृष्टि डाल कर हम उन्हें श्रद्धांजलि देने के साथ उनके पथानुगामी बन सकते हैं। यदि हम उनका अनुकरण करेंगे तो हम वैदिक धर्म की रक्षा करने के पुण्य के भागी होंगे और यदि नही तो हो सकता है कि इतिहास में पुनः विधर्मियों की हिंसा का ग्रास बन कर ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद, वैदिक धर्म व संस्कृति से वंचित होना पड़े। हैदराबाद आर्य सत्याग्रह का प्रसिद्ध गीत था कि ‘दुनिया में झण्डे उनके गड़े हैं, शीश धर्म पर जिनके चढ़े हैं।’इस सत्याग्रह में ईश्वर ने सत्याग्रहियों को विजयश्री प्रदान की थी। लौहपुरूष स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा था कि कि ‘‘पं. लेखराम जी आदर्श धर्म-प्रचारक थे। उनकी आवश्यकता आज भी विद्यमान है और वैदिक धर्म पुकार-पुकार कर कह रहा है लेखराम कहां हैं?’’
पण्डित लेखराम जी का जन्म चैत्र 8 संवत् 1915 सन् 1858 को सैदपुर ग्राम जिला झेलम, तब पश्चिमी पंजाब तथा वर्तमान में पाकिस्तान में, हुआ था। आपके दादा श्री नारायणसिंह महाराजा रणजीतसिंह की सेना के एक वीर तथा विख्यात योद्धा थे। श्री तारासिंह आपके पिता थे तथा श्रीमति भागभरी जी आपकी माताजी थी जो तहसील गुजरखां की निवासी थी। आप सारस्वत ब्राह्मण थे। आपकी आरम्भिक शिक्षा सैदपुर व पेशावर में हुई। आपके चाचा पं. गण्डारामजी पुलिस इन्सपैक्टर थे। उन दिनों उर्दू-फारसी का ही बोलबाला था। पण्डितजी के गुरू श्री तुलसीराम आप जैसे प्रतिभा सम्पन्न शिष्य को पाकर धन्य हो गये। छोटी आयु में ही आपने फाारसी भाषा के सभी प्रमुख साहित्यिक ग्रन्थ पढ़ लिये थे। गणित के भी आप एक मेधावी विद्यार्थी थे। पण्डित जी लोगों से सुन-सुना कर व पुस्तकों के स्वाध्याय करके वैदिक धर्म के अनुयायी बने थे। इसके लिए उन्होंने महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण साहित्य को मंगवाकर स्वाध्यायय किया था। इससे उनके मन को शान्ति मिली थी। सभी शंकाओं व प्रश्नों के उत्तर भी मिले थे। उनका भ्रम निवारण हुआ था। बाद में उन्होंने 17 मई सन् 1881 को महर्षि दयानन्द से अजमेर आकर भेंट की थी और प्रश्नोत्तर किए थे। 10 प्रश्नोत्तरों में से आपको 3 याद रहे। आपने लिखा है कि एक प्रश्न यह था कि ईश्वर भी व्यापक है और आकाश भी। दोनों व्यापक एक साथ इकट्ठे कैसे रह सकते हैं? महर्षि दयानन्द ने इसका उत्तर देते हुए उन्हें बताया था कि देखों यह पत्थर है। इसमें अग्नि व्यापक है या नहीं? इसी प्रकार जल, वायु, मिट्टी आदि के उदाहरण देकर उन्होंने कहा कि जो वस्तु जिससे सूक्ष्म होती है वह उसमें व्यापक होती है। एक अन्य प्रश्न था कि ब्रह्म से जीव की भिन्नता का प्रमाण क्या है तो ऋषि ने बताया कि यजुर्वेद का 40वां पूरा अध्याय ही जीव-ब्रह्म भेद बतलाता है। लगभग एक सप्ताह यहां रहकर उन्होंने महर्षि दयानन्द के प्रवचनों से लाभ उठाया था। अन्तिम तीसरा प्रश्न जो आपको याद रहा वह था कि क्या अन्य मत के लोगों को शुद्ध करना चाहिए या नहीं? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी ने कहा, “अवश्य करना चाहिये।“ विदाई के अवसर पर महर्षि दयानन्द ने आपको परामर्श दिया कि 25 वर्ष की आयु से पूर्व विवाह मत करना जिसका आपने पालन किया और संवत् 1950 में मरी पर्वत निवासिनी श्रीमती लक्ष्मीदेवी जी से विवाह किया।
पं. लेखराम जी ने एक बार लुधियाना से जगरावं की यात्रा में स्वामी श्रद्धानन्द जी की उपस्थिति में कहा था कि स्नान व शौच करना धर्म नहीं अपितु कर्म मात्र है परन्तु ईश्वर का ध्यान वा सन्ध्या करना धर्म है व न करना व इसे छोड़ना पाप है। स्वामी श्रद्धानन्द जी इस पर लिखते हैं, “प्रतिज्ञा-पालन मे दृढ़ता का ही परिणाम था कि धर्मवीर लेखराम धर्म में समझौता नहीं किया करते थे।“ कर्म को छोड़ा जा सकता है परन्तु धर्म को नहीं। पण्डित लेखराम ईश्वर के प्रति क्या भक्तिभाव रखते थे यह आगामी पंक्तियों से प्रकट होता है। पं. लेखराम जी के जीवन व साहित्य के मर्मज्ञ आर्य जगत के महान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी लिखते हैं कि एक बार एक मुस्लिम भिक्षुक ने उनसे ईश्वर के नाम पर भिक्षा मांगी। यह विवरण हृदय को भाव-विह्वल करने वाला है। विवरण इस प्रकार है कि एक बार “पण्डित श्री शान्तिस्वरूपजी (पूर्व नाम मौलाना मुहम्मद अली कुरैशी) की जिला सूरत गुजरात के एक मुसलमान से भेंट हुई। उसने बताया कि एक बार उसकी भेंट पं. लेखराम जी से हुई थी। पं. लेखरामजी ने ऋषि-जीवन की खोज के लिए गुजरात प्रदेश की यात्रा की थी। उस मुसलिम बन्धु ने बताया था कि पं. लेखराम की आचरण की शक्ति अत्यधिक थी। वे ईश्वर-प्रेम के रंग में रंगें हुए थे। वे ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरते थे। वे ईश्वर के नाम पर न्यौछावर थे। उसने बताया कि मैंने ईश्वर के नाम पर उनसे कुछ भिक्षा मांगी। पण्डित जी ने भावविह्वल होकर सजल नयनों से कहा कि तू प्रभु के नाम पर जान भी मांगता तो सेवक जान भी भेंट कर देता। धन को तो वे तुच्छ मानते थे। मैंने जितने रुपये मांगे उन्होंने उतने ही दे दिये। पं. लेखराम जी के आस्तिक्य भाव की सभी निष्पक्ष सत्यनिष्ठ लोगों पर गहरी छाप पड़ी।“ पण्डित जी न केवल दृण ईश्वर विश्वासी थे अपितु निडर, निर्भीक, साहसी, बलवान भी थे। कादियां के मिर्जा ने जब उनकी मृत्यु की भविष्य वाणी की अथवा उनकी हत्या आदि का षडयन्त्र किया तो दृण ईश्वर विश्वासी पं. लेखराम जी ने लिखा था कि शत्रु बलवान है तो रक्षक उससे भी अधिक बलवान् है। वह प्यारा प्रभु वा ईश्वर महान् से भी महान् है।
एक बार पण्डित जी का पेशावर की छावनी में अफगानिस्तान में ईसाई मिशन का काम करने वाले पादरी जोक्स महोदय के साथ वार्तालाप हुआ। पादरी महोदय ने कहा कि बाइबिल में परमेश्वर को पिता कहा गया है। ऐसी उत्तम शिक्षा किसी भी धर्मग्रन्थ में नहीं मिलती। उन्होंने कहा कि किसी धर्म ग्रन्थ में किसी को इससे उत्तम शिक्षा सूझी ही नहीं। इस पर पण्डित जी ने उन्हें कहा कि प्राचीन ऋषियों की बात तो आप क्या जानें। गुरु नानक देवजी ने भी बाईबल से बढ़कर यह उपदेश दिया है कि “तुम मात पिता हम बालक तेरे। तुमरी कृपा सुख घनेरे।“ यहां ईश्वर को पिता तो कहा ही है साथ में माता भी कहा है। बाईबल में ऐसी उत्तम शिक्षा कहां है? जहां ईश्वर को माता भी कहा गया हो। इस पर टिप्पणी करते हुए 300 छोटे-बड़े ग्रन्थों के लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी टिप्पणी करते हैं कि माता का प्रेम पिता से बढ़कर होता है तभी तो ईसा को यूसुफ का नहीं, मर्यम का पुत्र कहा गया है। पण्डित लेखराम जी ने 20 सितम्बर, 1889 को देहरादून में वैदिक धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों पर व्याख्यान दिया था। इस व्याख्यान में पण्डित जी ने इस्लामी मान्यताओं की युक्तियुक्त व सप्रमाण समीक्षा की थी। पण्डित जी के इस उपदेश का श्रोतोओं पर अच्छा प्रभाव पड़ा था।
पण्डित जी ने एक बार एक हिन्दू लड़की की अपनी जान को जोखिम में डालकर रक्षा की। उन्हें किसी ने सूचना दी कि लाहौर की बादशाही मस्जिद में एक हिन्दू लड़की को शुक्रवार के दिन बालत् मुसलमान बनाया जाएगा। लड़की को कुछ लोग पहले ही अपहरण करके ले जा चुके थे। पण्डित जी इस सूचना को पाकर बहुत दुःखी हुए। पण्डित जी ने मास्टर गोविन्दसहाय जी से कहा कि चलिए मास्टर जी, हम आज रात्रि ही उस लड़की को खोजकर लावेंगे। बृहस्पतिवार को सायकांल के समय दोनों मस्जिद में गये। लड़की उन्हें वहां मिल गई। लड़की से आपने कहा कि हमारे साथ चलों। वह साथ चल पड़ी। वहां अनेक मुसलिम मौजूद थे परन्तु किसी को भी पण्डितजी के मार्ग में बाधक बनने का साहस न हुआ। धर्म प्रचार व जाति रक्षा के लिए वे प्रतिपल जान जोखिम में डालने के लिए तैयार रहते थे। इस घटना की चर्चा उनके साथ मस्जिद के अन्दर गये साथी मास्टर गोविन्दसहाय, वैद्य रामगोपाल जी तथा महात्मा हंसराज जी आर्य विद्वानों से किया करते थे। अमर बलिदानी इतिहासकार देवतास्वरूप भाई परमानन्द जी ने उनके बारे में लिखा है कि डर वाली रग यदि मनुष्यों में कोई होती है तो पण्डित लेखराम में वह कतई नहीं थी।
पण्डित जी ने वैदिक धर्म की सत्यता की पुष्टि में कई बार शास्त्रार्थ भी किए। आपने जुलाई, सन् 1890 में जलालपुर में पौराणिक विद्वान पं. श्री प्रीतमदेव जी से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर उन्हें निरुत्तर किया था। लुधियाना से ईसाइयों के एक पत्र ‘नूर अफशां’ के सम्पादक ने पण्डित जी के बारे में 15 मार्च सन् 1888 के अंक में लिखा था कि पण्डित लेखराम की योग्यता की हम भी प्रशंसा करते हैं कि आर्य होकर उन्प्हें कुरान की इतनी जानकारी प्राप्त की। पण्डित जी ने दलितोद्धार का कार्य भी किया। पुलिस विभाग में कार्यरत मजहबी सिख बिशनसिंह जो कि दलित वर्ग से सम्बन्ध रखता था, पण्डित जी उससे हाथ मिलाकर नमस्ते किया करते थे। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न पं. लेखराम जब दलित जमादार से हाथ मिलाते थे तो उन्हें देखने वाले अन्य लोगों को बैचैनी हुआ करती थी। उन दिनों सामाजिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी थी।
पण्डित जी के धर्म प्रेम की एक मिसाल प्रस्तुत है। एक बार उन्हें सूचना मिली कि दोराहा के निकट चावापायल ग्राम में कुछ हिन्दू मुसलमान बनने जा रहे हैं। सूचना पाते ही अपना बिस्तर बांध कर वह लाहौर से उस स्थान के लिए घर से निकल पड़े। उन्होंने दोराहा स्टेशन का टिकट लिया। यह मेल गाड़ी दोराहा स्टेशन पर रूकती नहीं थी। अतः आपने अपने धर्म बन्धुओं की रक्षा के लिए बिस्तर को अपनी छाती से लगाया और दोराहा के निकटवर्ती स्थान पर चलती ट्रेन से कूद पड़े। पण्डित जी को चोटें लगीं, खून बहने लगा परन्तु उन्होंने इसकी कुछ परवाह न की। वह उन भाईयों के पास जा पहुंचे जो धर्म परिवर्तन करने जा रहे थे। यह बन्धु पण्डित जो को लहुलुहान देखकर दंग रह गये। पूछने पर सारी स्थिति उन्हें पता चली। उन्होंने कहा कि जिस जाति में ऐसा धर्म रक्षक हो, उस जाति के लोगों को अपना धर्म बदलने की क्या आवश्यकता है? अतः उन्होंने अपना विचार बदल दिया और कोई भी व्यक्ति विधर्मी नहीं हुआ। अपने प्राणों की बाजी लगाकर अपने धर्म बन्धुओं को बचाने की यह इतिहास में अनोखी घटना है।
पण्डित जी को 18 मई सन् 1895 को एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। आपने उसका नाम सुखदेव रखा था। 28 अगस्त 1896 को जालन्धर में आपके पुत्र का निधन हो गया। सुखदेव बीमार था तो पण्डित जी धर्म प्रचार के लिए शिमला चले गये और वहां से 26 अगस्त को जालन्धर वापस लौटे। पण्डित जी के साथी स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लिखा है कि पुत्र की मृत्यु होने पर उन्हें किसी प्रकार भी शोक नहीं था। यह उनकी सहनशक्ति का चमत्कार था। बेटे के वियोग को उन्होंने प्रभु का विधि-विधान मानते हुए स्वीकार कर लिया। पण्डितजी की पत्नी माता लक्ष्मीदेवी जी पर तो यह एक बड़ा वज्रपात था। पुत्र की मृत्यु से दो दिन पूर्व पण्डित जी शिमला में धर्म प्रचार कर रहे थे और मृत्यु के दो दिन बाद पत्नी को घर छोड़ कर पुनः धर्म प्रचार के लिए वजीराबाद के वार्षिकोत्सव पर चले गये। पण्डित जी का यह धर्मानुराग वन्दनीय एवं आदर्श है। यह भी धर्म प्रेम से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक अनुपम घटना है।
अजमेर में वैदिक सिद्धान्तों के मण्डन के लिए पण्डित जी ने बहुत खोजपूर्ण और प्रभावशाली व्याख्यान दिये। आपके विद्वतापूर्ण व्याख्यानों से प्रभावित होकर मौलाना अब्दुल रहमान ने वैदिक धर्म में प्रवेश किया। आपको सोमदत्त नाम दिया गया। आपकी शुद्धि से अजमेर के मुसलमान बिगड़ गये। इस पर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी लिखते हैं कि इतिहास साक्षी है कि मुसलमान दूसरों को तो अपने मत में लाना अपना अधिकार मानते हैं परन्तु जब कोई मुसलमान अपना मत तजकर दूसरे विचारों को ग्रहण करता है तो उसे ‘वाजिबुल-कत्ल’अर्थात् वध के योग्य समझा जाता है। इस शुद्धि़ की घटना पर पण्डित जी को विधर्मियों की ओर से मौत की धमकियां दी र्गइं। पण्डित जी ने इन धमकियों पर मित्रों से मिलने वाले सुझावों का उत्तर देते हुए कहा कि मुझे किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मेरा रक्षक तो मेरा परमात्मा है। वह सबका रक्षक है। वह सर्वव्यापक औार सर्वत्र उपस्थित है। मेरे एक एक अंग में उपस्थित है। आपके अटल ईश्वर विश्वास का लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा।
सन् 1897 की फरवरी में एक व्यक्ति पण्डित जी के पास आया और उन्हें बताया कि वह पहले हिन्दू था तथा दो वर्ष पूर्व मुसलमान हो गया था। उसने उनसे पुनः अपने वास्तविक धर्म में आने की इच्छा प्रकट की थी। यह व्यक्ति काली कम्बली ओढ़े रखता था। यह व्यक्ति पण्डितजी के घर में ही रहने लगा। वहीं खाता-पीता था। छाया की भांति पण्डितजी के साथ रहता था। अपनी चतुराई से पण्डित जी का विश्वासपात्र बन गया। 1 मार्च, 1897 को पण्डित मुल्तान गये और 6 मार्च को लाहौर लौटे। इस घातक ने बीमारी का नाटक किया। बार-बार थूकता था। पण्डितजी उसे डा. विशनदास जी के पास ले गये। डा. महोदय ने कहा कि यह ठीक है, इसके खून में जोश अवश्य है। डाक्टर महोदय ने पलस्तर लगाने को कहा, परन्तु इस छलिये ने मना कर दिया। यदि ऐसा आग्रहपूर्वक किया जाता तो इस हत्यारे को तत्काल छुरे सहित काबू में कर लिया जाता। उसे शर्बत पिलाया गया वह पण्डित जी के साथ ही उनके घर आ गया। इसके बाद पण्डितजी महर्षि दयानन्द का जीवन-चरित लिखने में मग्न हो गये। लिखते-लिखते थक गये। उठकर अंगड़ाई ली। यह क्रूर हत्यारा घात लगाये हुए समीप ही बैठा था। मौका पाकर उसने पण्डित जी के पेट में छूरा घोंप दिया। अन्तडि़यां बाहर निकल आयीं फिर भी साहसी लेखराम जी ने एक हाथ से तो अन्तडि़यों को थामा और दूसरे हाथ से छुरा छीन लिया। पण्डित जी की माता और वीर पत्नी सती लक्ष्मी दौड़कर आईं तो कायर ने भागने की जल्दी में माताजी को बेलना दे मारा। पण्डितजी को हस्पताल ले जाया गया जहां सायं 7 बजे घटी छुरे की घटना के 7 घंटे बाद रात्रि 2 बजे पण्डित जी ने देहत्याग किया। इस अवधि में पण्डित जी ने एक बार भी हाय-हाय नहीं की और न ही किसी से कोई सांसारिक बात की। वेद मन्त्रों का पाठ करते रहे। आर्य समाज को यह सन्देश दिया कि ‘लेखनी व वक्तव्य का कार्य बन्द न हो।’प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी लिखते हैं कि पण्डित जी ने अपना बलिदान देकर अमरपद की प्राप्ति की। आपकी शवयात्रा में जन-समुद्र उमड़ पड़ा। जिन लोगों ने कभी आर्य समाज मन्दिर में पैर नहीं रखे थे वह भी शोकाकुल जनसमूह में दिखाई देने लगे। चिरकार से सोई हुई आर्य जाति जाग उठी। धूमधाम से हुतात्मा के शव की शोभायात्रा निकाली गई। अर्थी पर पुष्पवर्षा की गई। लोगों ने बड़ी श्रद्धा से अर्थी पर बताशे भी वर्षाये। हिन्दू देवियों ने इन्हें पवित्र समझकर उठा लिया। आपकी मृत्यु पर श्री जैमिनि ‘सरशार’ने लिखा है –
मरके प्यारा पथिक वह अमर हो गया।
मौत रो-रोके हाथों को मलती रही।।
पण्डित जी ने जहां धर्म प्रचार के क्षेत्र में अपनी बहुमूल्य व अविस्मरणीय सेवायें दी हैं वहीं महर्षि दयानन्द का खोज पूर्ण जीवन भी लिखा है। इस कार्य के लिए उन्होंने प्रायः उन सभी स्थानों की यात्रायें कीं जहां-जहां महर्षि दयानन्द अपने जीवन काल में गये थे। यदि मोटे रूप में देखें तो उत्तराखण्ड, समूचा पंजाब जिसमें पाकिस्तान का समस्त भाग भी शामिल है, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार आदि समस्त देश ही उनके चरण रज से पवित्र हुआ था। इतना व्यापक भ्रमण और वह भी लगभग एक सौ पूर्व जबकि यात्रा के सुविधाजनक साधन उपलब्ध नहीं थे, आश्चर्यान्वित करता है। लेखन के क्षेत्र में भी आपने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। भारतीय धर्म शास्त्रों के साथ भी आप कुरान व बाइबिल के उच्च स्तरीय विद्वान थे। अरबी, फारसी व उर्दू आदि भाषाओं पर आपका अधिकार था। आपने धर्म प्रचार किया, शास्त्रार्थ-वार्तालाप-शंकासंधान-उपदेश-प्रवचन, आर्य समाजों की स्थापना, पत्रों का सम्पादन आदि अनेक कार्य किये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आपकी कई जीवनियां लिखी हैं जिससे आप आर्य जगत के शीर्ष विद्वानों व महात्माओं में प्रमुख स्थान है। यह लेख आपके ग्रन्थों के अध्ययन का ही परिणाम है। वैदिक धर्म पं. लेखराम जी को पाकर धन्य हो गया। आज बलिदान दिवस पर आपको विनम्र श्रद्धांजलि।
— मनमोहन कुमार आर्य
मुसलमान हर उस व्यक्ति या संस्था के जानी दुश्मन हो जाते हैं जो किसी भी तरह उनकी संख्या घटाने की कोशिश करता है। पंडित जी के प्राणायाम कारण लिये गये। उनको विनम्र श्रद्धांजलि !
आपकी बात सत्य है। न केवल पंडित लेखराम जी अपितु महाशय राजपाल और स्वामी श्रद्धानन्द भी इसी अनावश्यक मुस्लिम आक्रामकता व शत्रुता के शिकार हुए। यह तीनो महापुरुष ही हिन्दू जाति के महान सेवक और रक्षक थे। महर्षि दयानंद जी की मृत्यु में भी डॉ. अलीमर्दान की उनकी चिकित्सा में संदिग्ध भूमिका थी। हमारे बड़े विद्वान व सन्यासी स्वामी स्वतंत्रानन्द जी को भी लोहारू की रियासत में धर्म प्रचार करने से रोका गया था और उनके शिर पर कुल्हाड़े से प्रहार करके उनकी हत्या में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। शहीद राम प्रसाद बिस्मिल जी की पक्तिया याद आ रही हैं – “मरते बिस्मिल रोशन लाहिड़ी अशफ़ाक़ अत्याचार से, पैदा होंगे सैकड़ो इनकी रुधिर की धार से” और ऐसा ही हुआ। हार्दिक धन्यवाद। .
लेख अच्छा लगा , मनमोहन जी .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।