उपन्यास अंश

यशोदानंदन-१६

       पूतना-वध हो चुका था लेकिन कैसे और क्यों हुआ था, सामान्य मनुष्यों की समझ के बाहर था। यह रहस्य स्वयं नन्द बाबा और मातु यशोदा जिनके नेत्रों के समक्ष यह घटना घटी, वे भी नहीं समझ पाए। मरणोपरान्त पूतना का शव अत्यन्त विशाल और विकराल हो गया। प्रासाद के लंबे-चौड़े आंगन के इस सिरे से लेकर उस सिरे तक उसका शव ही दीख रहा था। मातु यशोदा भय के मारे कांप रही थीं और सांवले-सलोने श्रीकृष्ण पूतना के वक्षस्थल पर सुरक्षित बाल-क्रीड़ा कर रहे थे। श्रीकृष्ण पर दृष्टि पड़ते ही मातु यशोदा सारा भय छोड़कर पूतना के शव को पैरों से रौंदते हुए कृष्ण लाला के पास पहुंचीं और उठाकर छाती से चिपका लिया। जिस वेग से वे गई थीं, उसी वेग से वापस भी आ गईं। इस बीच आंगन में दास-दासियों और पड़ोसियों की अच्छी भीड़ एकत्रित हो गई थी। माता रोहिणी उन्हें सारा वृतांत सुना रही थीं। सबने दांतों तले ऊंगली दबाई। ईश्वरीय चमत्कार मान सबने पूतना के शव को वहां से हटाने का निर्णय लिया। शव के टुकड़े-टुकड़े किए गए और घड़ों में भरकर श्मशान घाट पहुंचाया गया। पूतना का शव जल गया। आकाश में ऊंची-ऊंची लपटें उठ रही थीं लेकिन यह अत्यन्त आश्चर्यजनक था कि उसकी चिता से चिराईन गंध के बदले अगरू की सुगंध आ रही थी। मातु यशोदा को याद होगा, अपने शैशव में श्रीकृष्ण पालने में पड़े-पड़े अपने दाहिने पांव का अंगूठा चूसा करते थे। उस समय सबको यह ईश्वरीय लक्षण ही लगा था लेकिन ईश्वरीय लक्षण के साथ यह योग-शास्त्र की एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा थी। दाहिने पांव का अंगूठा मुख में डालकर शरीर की स्थित जैविक ऊर्जा के चैतन्य का निरामय वलय पूर्ण किया करते थे बालकृष्ण – स्वभावतः – अनजाने में ही।

श्रीकृष्ण के जन्म के साथ ही गोकुल में उत्सवों की शृंखला आरंभ हो गई थी। जो भी बालकृष्ण की एक झलक पा जाता था, वह पुनः-पुनः उनके दर्शन के लिए मचलता रहता था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे गोकुल के प्रत्येक घर में नित्य ही जन्मोत्सव मनाया जा रहा हो। आह्लाद के इस सागर ने नन्दभवन को पूरी तरह अपनी लहरों में आप्लावित कर लिया था। वे लहरें स्वच्छन्द रूप से गोकुल की गलियों, वीथियों और आवासों में भी बिखर गई थीं, हिलोरें मार-मारकर बह रही थीं। गोकुल के सभी नागरिक यही कह रह थे – यह अपूर्व सौन्दर्य मातु यशोदा के उदर रूपी अगाध समुद्र से उत्पन्न हुआ है।

मातु यशोदा को तो जैसे जीवन की सबसे बड़ी निधि प्राप्त हो गई थी। वे आठों पहर अपने लल्ला के पास रहतीं, कभी पालने में झुलातीं, कभी वात्सल्य के आवेश में मुख को चूम लेतीं, कभी गुनगुनाने लगतीं, तो कभी लोरी सुनाने लगतीं। गाते-गाते कहतीं – अरी निद्रा रानी! तुम इतना विलंब क्यों करती हो? कब से मेरा कान्हा तुम्हें पुकार रहा है। तुम शीघ्र आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नही? अब तो आजा। देख, लल्ला के साथ मैं भी तुम्हें पुकार रही हूँ। शिशु कृष्ण भी शरारत से कब बाज आने वाले थे। माता की गुहार पर कभी नेत्र बंद कर लेते, तो कभी अधर फड़फड़ाते। माता धीरे-धीरे लोरी गाना बंद कर देतीं और नेत्रों के इंगित से समीप काम कर रहे दास-दासियों से कहतीं कि तुमलोग किसी तरह की ध्वनि मत करो – मेरा लाल सपनों में खोया है, कही कच्ची नींद से जाग न जाय। स्वयं आश्वस्त होने के बाद कि लल्ला सो गया है, जैसे ही उठने का उपक्रम करतीं, शिशु कृष्ण अकुलाकर जाग उठते। अपने स्वर और हाथ-पांव के संचालन से शीघ्र ही प्रकट करते कि वे सोये नहीं हैं। माता क्या करतीं? पुनः पालने हलराती दुलरातीं और लोरी गाने लगतीं – मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावै। श्रीकृष्ण और मातु यशोदा के इस लुका-छिपी के खेल में मातु यशोदा ने जिस वात्सल्य-सुख का नित्य रसपान किया, ब्रह्माण्ड में किसी भी माता को वह सुख प्राप्त नहीं हो सका।

वातावरण में सिर्फ गर्गाचार्य के वचनों की अनुगूंज ही सुनाई पड़ रही थी। सर्वत्र शान्ति थी। उपस्थित जन समुदाय श्वास भी इतना संभलकर ले रहा था कि प्रवचन सुनने में समीप बैठे किसी भी भक्त को तनिक भी व्यवधान न पड़े। अचानक मातु यशोदा बोल पड़ीं – “कृष्ण, मेरे लाल! मेरे लड्डू गोपल! कहां हो तुम? इतना क्यों सताते हो मुझे? मुझमें पूर्व की भांति न तो शक्ति रह गई है और ना ही धैर्य। तुम समझते क्यों नहीं हो? आ जा मेरे लाल, एक बार आकर अपना सुन्दर मुखड़ा दिखला दो, फिर चले जाना मथुरा। मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं। नहीं रोकूंगी मेरे लाल!”

माता के नेत्र अनवरत अश्रु-वर्षा कर रहे थे। जबतक रोहिणी और नन्दबाबा उनको ढाढ़स बंधाते, , वे अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ीं। कुछ वेदना ऐसी होती है जिसमें ढाढ़स अग्नि में घी का काम करती है। यह सत्य है कि बालकृष्ण ने मातु यशोदा को अद्वितीय और दुर्लभ वात्सल्य-सुख का अमृतपान कराया था, परन्तु यह भी सत्य है कि उसी किशोर श्रीकृष्ण ने अपनी मातु यशोदा को विरहाग्नि का गरल भी पिलाया था। यशोदा की पीड़ा की अनुभूति सिर्फ यशोदा ही कर सकती थीं। पृथ्वी पर दूसरा कोई उसका शतांश भी अनुभव करने में असमर्थ था। स्वयं श्रीकृष्ण भी जो परम दयालू कहे जाते हैं, समझ नहीं पाये। गोकुल छोड़ते ही पाषाण हो गये । माता की पीड़ा की तनिक भी अनुभूति होती, तो श्याम सुन्दर एक बार, कम से कम एकबार तो मातु यशोदा के पास आते।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-१६

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लेखन शैली में बेहतर उपन्यास !

Comments are closed.