मुक्तक : जाम-पे-जाम
पैग-पे- पैग हम तो चढाते रहे।
जाम-पे-जाम हम तो लगाते रहे।
जैसे जन्नत में हूँ ऐसा हुआ असर,
आनंद, कुछ समय गुदगुदाते रहे।
पानी को हर पैग में, मिलाते रहे।
दोनों मिलकर नशा भिगाते रहे।
बाद में मेरा, मौसम रंगीन हुआ।
कि अपने को ख्वाब में डुबाते रहे।
अच्छे मुक्तक! लेकिन जाम में ग़म नहीं घुलते, बल्कि और गाढ़े हो जाते हैं !
आभार श्रीमान जी।
मैंने भी इसी पैग में आज अपने आप को डबोया है , लाख कोशिः की मैंने लेकिन गम फिर भी सर उठा रहा है .
मन में आया श्रीमान जी और लिख दिया।धन्यवाद श्रीमान जी।