मैं चलती हूँ
मुर्दों की याद में
दिए जलाएगें
सडक पे सोये भूखो की
कविता गजल बनायेगें
माफ़ करना ये लेखक हैं
लूली लगड़ी आरजुओ के
दहाड़े मार रोयेंगे
वीरान सही
ये रास्ता
पर मेरी निगाह हैं
झिलमिलाते तारो पर
दूर पूरब की उम्मीद पर
बेख़ौफ़ और
लापरवाह हूँ मैं
इस रास्ते से
और
इस रात के अँधेरे से
जिस्म नाज़ुक ही सही
जुर्रत नही
और
ये जुर्रत ही तो हैं
जो नदियों में तैरती
रेगिस्तान में चलती
जंगलो से गुजरती
और पर्बतो को पार करती हैं ..
कोई यू ही नही सोहनी और ससी बनती
मैं उनके कदम चिन्हों पैर रखती हूँ
और चलती हूँ …!!
….रितु शर्मा …
बहुत खुब!!!
वाह वाह .