कविता

रात

सुनो
मै रात हूँ!
होता हैं मेरा बसर
नीरवता में…
करती हूँ रहगुजर
नीरवता से…
सन्नाटा सुनती हूँ,
जीती हूँ…
पल,पल,
पहर,पहर
गुज़रती जाती हूँ!
हैं मेरे मुक़द्दर में सहर …
क्योंकि हैं मेरे गर्भ में दिन ….
छाती हैं जब पूरब में लालिमा…
धीरे धीरे
रंग बिखरता है तो
करना ही होता हैं मुझे समर्पण
स्याह अंधेरों में
सितारे मेरा सिंगार
चाँदनी रातों में
चाँद मेरे माथे का झूमर!
हूँ चिरयौवना दुल्हन
फिर भी
मर मिटती आयी हूँ
युगों से!
रूप बदलती हूँ…
सदियों से!

….रितु शर्मा ….

रितु शर्मा

नाम _रितु शर्मा सम्प्रति _शिक्षिका पता _हरिद्वार मन के भावो को उकेरना अच्छा लगता हैं

2 thoughts on “रात

  • रमेश कुमार सिंह

    आपकी कविता में बहुत अच्छा भावों का प्रदर्शन है। मुझे बहुत अच्छा लगा।धन्यवाद आपको और इस कविता को।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    रितु जी , आप की कविता में एक ऐसी बात है , जो दर्शाना असंभव है, उम्मीद है आगे भी पेश करेंगी .

Comments are closed.