रात
सुनो
मै रात हूँ!
होता हैं मेरा बसर
नीरवता में…
करती हूँ रहगुजर
नीरवता से…
सन्नाटा सुनती हूँ,
जीती हूँ…
पल,पल,
पहर,पहर
गुज़रती जाती हूँ!
हैं मेरे मुक़द्दर में सहर …
क्योंकि हैं मेरे गर्भ में दिन ….
छाती हैं जब पूरब में लालिमा…
धीरे धीरे
रंग बिखरता है तो
करना ही होता हैं मुझे समर्पण
स्याह अंधेरों में
सितारे मेरा सिंगार
चाँदनी रातों में
चाँद मेरे माथे का झूमर!
हूँ चिरयौवना दुल्हन
फिर भी
मर मिटती आयी हूँ
युगों से!
रूप बदलती हूँ…
सदियों से!
….रितु शर्मा ….
मै रात हूँ!
होता हैं मेरा बसर
नीरवता में…
करती हूँ रहगुजर
नीरवता से…
सन्नाटा सुनती हूँ,
जीती हूँ…
पल,पल,
पहर,पहर
गुज़रती जाती हूँ!
हैं मेरे मुक़द्दर में सहर …
क्योंकि हैं मेरे गर्भ में दिन ….
छाती हैं जब पूरब में लालिमा…
धीरे धीरे
रंग बिखरता है तो
करना ही होता हैं मुझे समर्पण
स्याह अंधेरों में
सितारे मेरा सिंगार
चाँदनी रातों में
चाँद मेरे माथे का झूमर!
हूँ चिरयौवना दुल्हन
फिर भी
मर मिटती आयी हूँ
युगों से!
रूप बदलती हूँ…
सदियों से!
….रितु शर्मा ….
आपकी कविता में बहुत अच्छा भावों का प्रदर्शन है। मुझे बहुत अच्छा लगा।धन्यवाद आपको और इस कविता को।
रितु जी , आप की कविता में एक ऐसी बात है , जो दर्शाना असंभव है, उम्मीद है आगे भी पेश करेंगी .