आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 16)

महामना मालवीय मिशन, लखनऊ प्रतिवर्ष मालवीय जयन्ती के अवसर पर एक स्मारिका भी प्रकाशित करता है। इस स्मारिकाओं में विज्ञापन के रूप में काफी सहायता राशि एकत्र हो जाती है, जिससे मिशन की सारी गतिविधियाँ चलती हैं। इन स्मारिकाओं के सम्पादन का दायित्व निभाते थे- इंजीनियर श्री देवकी नन्दन ‘शान्त’, जो एक अच्छे कवि भी हैं। मैं भी इन स्मारिकाओं के प्रकाशन में सक्रिय भूमिका निभाता था। मैं स्वयं तो लेख या कविता लिखता ही था, कई बार इसके सम्पादन में भी सहयोग करता था। एक बार श्री शान्त किसी कारणवश मिशन के कार्यकर्ताओं से रुष्ट हो गये और मिशन की गतिविधियों से अलग हो गये, अतः उस बार स्मारिका के सम्पादन का लगभग सारा कार्य मुझे ही करना पड़ा था।

एक बार मैंने इस स्मारिका के लिए एक लेख लिखा था, जो किसी उपनिषद के एक वाक्य ‘महामना स्यात् तद व्रतम्’ की व्याख्या के रूप में था। इसमें मैंने बताया था कि महामना किसे कहते हैं और कैसे हर आदमी महामना बन सकता है। लेख के अन्तिम पैराग्राफ में मैंने एक वाक्य लिखा था कि ‘महामना से भी बड़ा होता है महात्मा।’ जब यह लेख मैंने गोविन्द जी (श्री गोविन्द राम अग्रवाल) को दिखाया, तो अन्तिम पैराग्राफ पढ़कर उनके भीतर का जनसंघी भड़क गया और वे गुर्राकर बोले- ‘तुम केवल महामना की बात करो।’ वैसे मैं स्वयं अनुभव करता था कि यह पैराग्राफ अनावश्यक है और उसे स्वयं हटाने वाला था, परन्तु केवल गोविन्द जी की प्रतिक्रिया देखने के लिए मैंने उसे रहने दिया था और उनकी प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही रही, जैसी कि मुझे आशा थी।

मैं जब तक लखनऊ में रहा, तब तक महामना मालवीय मिशन और महामना बाल निकेतन के कार्यों में नियमित और सक्रिय सहयोग देता रहा। लखनऊ छोड़ने पर मुझे बाल निकेतन से दूर जाने का बहुत दुःख हुआ था। बाद में जब भी मैं लखनऊ जाता था, तो बाल निकेतन को देखने भी अवश्य जाता था। बढ़ते हुए बच्चों को देखकर मुझे अपार हर्ष और आत्मिक सन्तोष होता था।

कुछ समय बाद महामना बाल निकेतन लक्ष्मणपुरी के किराये के मकान को छोड़कर विवेक खंड, गोमती नगर में महामना मालवीय सरस्वती शिशु मंदिर के भवन में चला गया था। यह शिशु मंदिर मिशन ने ही खोला था। इसका भूमिपूजन मेरे सामने हो गया था, परन्तु शेष सभी कार्य मेरे लखनऊ छोड़ देने के बाद ही हुए थे। इसलिए बाल निकेतन से मेरा सम्पर्क एकदम टूट गया। उसके बाद अभी तक उन बच्चों से मिलने का अवसर मुझे नहीं मिला है।

(पादटीप : लगभग 20 साल बाद पुनः  लखनऊ में मेरी पदस्थापना होने पर मैं फिर मिशन और बाल निकेतन से जुड़ गया हूँ और सक्रिय हूँ। इसकी कहानी मैंने आत्मकथा के चौथे भाग में विस्तार से लिखी है।)

लखनऊ में मैं बाल निकेतन और मिशन के कार्यों के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में भी पर्याप्त समय दिया करता था। मैं नित्य ही शाखा जाया करता था और शाखा के बाद स्वयंसेवकों से सम्पर्क भी करता था। लखनऊ में ही मैं संघ प्रचारकों के निकट सम्पर्क में आया। यों दिल्ली में ज.ने.वि. में पढ़ते हुए सुरेश जी नामक प्रचारक हमारे पास आया करते थे और मेरा उनसे अच्छा परिचय था, परन्तु बहुत घनिष्टता नहीं थी। लखनऊ में पहली बार प्रचारकों से मेरी घनिष्टता हुई। जब मैं पहले-पहल लखनऊ गया, तो श्री वीरेश्वर जी चौधरी हमारे विभाग या जिला प्रचारक थे। सभी स्वयंसेवकों से परिचय होने पर उनसे भी मेरा परिचय हुआ। उनकी ही प्रेरणा से मैं 1983 में ही प्रयाग में संगम तट पर लगे गटनायक स्तरीय शीत शिविर में गया था। किसी शिविर में जाने का मेरा यह पहला अवसर था। हमारे साथ विष्णु जी, गोविन्द जी, राम उजागिर जी सहित नगर के कई स्वयंसेवक थे। ए-ब्लाॅक में मेरे किराये के घर के सामने रहने वाले एक पुराने स्वयंसेवक श्री परमात्मा शरण निगम भी इस शिविर में गये थे। उन्होंने वहाँ रक्षक (पहरेदार) का दायित्व निभाया था। मैंने इस शिविर का बहुत आनन्द उठाया, हालांकि उस वर्ष ठंड बहुत थी।

उस शिविर में ही मेरा परिचय श्री गया प्रसाद जी मिश्र और श्री वीरेश्वर जी द्विवेदी से हुआ। वे दोनों ही प्रचारक थे। गया प्रसाद जी योग के अच्छे जानकार थे। उनसे मैंने कुछ क्रियाएँ सीखी थीं। परन्तु अपने स्वभाव के कारण मैं उनको जारी नहीं रख सका। श्री वीरेश्वर जी द्विवेदी उन दिनों ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका के सम्पादक थे। उनके सम्पादकीय आग उगलते थे, परन्तु वे व्यवहार में बच्चों जितने सरल थे। जब भोजन या चाय का समय होता था, तो बच्चों जैसे उत्साह के साथ वे अपने बर्तन लेकर सबसे पहले पहुँच जाते थे।

श्री वीरेश्वर जी चौधरी जल्दी ही वहाँ से जम्मू स्थानांतरित हो गये थे। काफी समय बाद एक बार मुझे उनके दर्शन करने का सौभाग्य वाराणसी के संघ कार्यालय में मिला था। उनकी जगह आये थे डाॅ. अशोक वार्ष्णेय। वे बायो-कैमिस्ट्री में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त थे। अगर वे चाहते तो सरलता से कहीं लेक्चरर आदि बनकर हमारी तरह सुविधापूर्ण जीवन जी सकते थे, परन्तु उन्होंने इसके बजाय संघ प्रचारक बनकर काँटों भरा जीवन पसन्द किया। वे दिन रात संघकार्य में व्यस्त रहते थे। न खाने का कोई समय, न सोने का। जिस समय जहाँ जो कुछ मिल गया, पा लिया। सभी प्रचारक प्रायः ऐसा ही जीवन जीते हैं। इसलिए सबके मान-सम्मान के पात्र बन जाते हैं। डाॅ. अशोक जी से मेरी बहुत घनिष्टता थी। हमारी उम्र में भी अधिक अन्तर नहीं था। वे बीच-बीच में हमसे मिलने आया करते थे। उन दिनों मैं अकेला ही रहता था। कई बार आलस्य में मैं रात को केवल खिचड़ी बना लिया करता था। एक बार संयोग से ऐसा हुआ कि जब लगातार दो बार जब डाॅ. अशोक जी मेरे पास आये तो मैं खिचड़ी ही बना रहा था। वे इसी से संतुष्ट हो जाते थे।

जब तक मैं लखनऊ में रहा डाॅ. अशोक जी वहीं थे। बाद में मेरा स्थानांतरण वाराणसी होने पर उनसे सम्पर्क टूट गया। वे भी कुछ समय बाद लखनऊ से कानपुर आ गये थे। काफी समय बाद जब मैं कानपुर स्थानांतरित हुआ था, तो फिर डाॅ. साहब से सम्पर्क हुआ। उन्होंने ही मेरे पुत्र चि. दीपांक का प्रवेश जनवरी 1996 माह में सनातन धर्म सरस्वती शिशु मंदिर, कौशलपुरी में करा दिया था। मेरे भतीजे डाॅ. मुकेश का बकाया पारिश्रमिक कानपुर के कृषि विश्वविद्यालय से दिलवाने में भी डाॅ. साहब ने बहुत प्रयास किया था। जब तक वे कानपुर रहे, तब तक उनसे नियमित सम्पर्क बना रहा। लेकिन शीघ्र ही वे सह प्रांत प्रचारक का दायित्व लेकर राँची चले गये। वहाँ से भी बीच-बीच में उनसे पत्र-व्यवहार होता रहा। आजकल वे झारखंड प्रान्त के प्रांत प्रचारक का गुरुतर दायित्व सँभाल रहे हैं। उनकी व्यस्तता किसी राज्य के मुख्यमंत्री से कम नहीं है, फिर भी वे मेरे पत्रों का उत्तर देने का समय निकाल लेते हैं। कभी कानपुर आ जाने पर उनके दर्शन भी हो जाते हैं।

लखनऊ में जिन दूसरे प्रचारक के घनिष्ट सम्पर्क में मैं रहा, वे हैं मा. स्वांत रंजन जी मिश्र। वे संघ परिवार में ‘स्वांत जी’ के नाम से लोकप्रिय और सर्वसम्मानित हैं। उनके बारे में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। देखने में अत्यन्त सरल, सौम्य, हँसमुख और संघकार्य में अत्यन्त समरस। वे समस्त संघ कार्यकर्ताओं के प्रेरणास्रोत हैं। प्रारम्भ में वे हमारे विभाग प्रचारक थे और हमारे नगर में प्रायः आया करते थे। कई बार सायंकाल वे मेरे पास आते थे, तो जो भी मैं बना पाता था, उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करते थे।

उनके साथ मेरे कई संस्मरण हैं। उनमें से एक संस्मरण लिखने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। एक बार रविवार के दिन दोपहर को वे मेरे निवास पर पधारे। भोजन वे कहीं पा चुके थे और वहाँ कुछ देर विश्राम के लिए आ गये थे। 2 बजे उन्हें किसी कार्यक्रम या बैठक में जाना था। मैंने उनके लिए फोल्डिंग पलंग बिछाना चाहा, परन्तु वे जमीन पर ही दरी बिछाकर लेट गये। मैं एक किताब पढ़ रहा था। जब दो बजने में केवल 2 मिनट रह गये, तब मैंने सोचा कि उन्हें जगा दूँ। लेकिन फिर सोचा कि थोड़ी देर और सो लेने दो, क्योंकि वे प्रातः 5 बजे के निकले हुए थे। यह सोचकर मैंने उन्हें नहीं जगाया। लेकिन यह देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि दो बजते ही वे एकदम उठ बैठे और अपना बैग उठाकर चलने के लिए तैयार हो गये। मैंने कहा भी कि थोड़ी देर और लेट लेते, परन्तु नहीं, क्योंकि संघकार्य आराम से अधिक महत्वपूर्ण है। ऐसे प्रचारकों के समक्ष कौन नतमस्तक नहीं होगा?

मा. स्वांत जी बाद में अवध प्रांत के सह प्रांत प्रचारक बने और जब कानपुर तथा लखनऊ अलग-अलग प्रांत बन गये, तो वे लखनऊ (अवध) प्रांत के प्रांत प्रचारक बना दिये गये। काफी समय तक उन्होंने यह कठिन दायित्व निभाया। आजकल वे बिहार क्षेत्र के क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निभा रहे हैं और उनका केन्द्र पटना में है।

मा. जय गोपाल जी उस समय हमारे प्रान्त प्रचारक थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने एक बार मुझे एक हीयरिंग ऐड (कान की मशीन) भी दी थी, परन्तु मैं उसका कोई लाभ नहीं उठा सका।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 16)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आप की कहानी पड़ कर मुझे ऐसा लगता है कि मैंने दुनीआं देखि ही नहीं , आप महान हैं विजय भाई , बाल निकेतन में इतने वर्षों बाद पधारे और जो जो आप लिख रहे हैं , मैं तो हैरान हो रहा हूँ कि आप कैसे इन सब गतिविधिओ में मसरूफ हो सकते हैं .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार भाईसाहब! यह मेरे पारिवारिक संस्कारों का और संघ का प्रभाव है कि इन गतिविधियों में भाग ले पाता हूँ। यह मेरा सौभाग्य है।

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरे विवरण को आद्यांत पढ़ा। पहली बार महामना और महात्मा शब्दों के अर्थ पर ध्यान गया। मुझे लगता है कि महात्मा शब्द का प्रयोग तो अनेक नामो के साथ मिलता है परन्तु महामना का प्रयोग मेरी निजी जानकारी में पंडित मदन मोहन मालवीय जी के लिए ही किये जाने का ज्ञान है। महामना शब्द कब व किसके द्वारा मालवीय जी के साथ प्रयोग में लाया गया था, कृपया अवगत कराएं। सभी विवरण पठनीय एवं ज्ञानवर्धक होने के साथ रोचक है। ऐसा लगा कि मैं एक रोचक कहानी पढ़ रहा हूँ।

    • विजय कुमार सिंघल

      मान्यवर, ऐसा पता चला है कि मालवीय जी के लिये ‘महामना’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले रवींद्र नाथ टैगोर ने किया था। शायद उन्होंने ही गांधी को पहली बार महात्मा कहा था।
      मैं इस बारे में विस्तृत जानकारी एकत्र करके बताऊँगा।
      कहानी तो यह है ही। आपको रोचक लग रही है यह प्रसन्नता की बात है। आभार !

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते आदरणीय श्री विजय जी। धन्यवाद। महात्मा गांधी को प्रथम महात्मा कह कर स्वामी श्रद्धानन्द, संस्थापक, गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार ने सम्बोधित किया था। तभी से महात्मा शब्द का अलंकार उनके नाम के साथ जुड़ गया। यह तब की बात है जब गांधी जी अफ्रीका में उनके द्वारा सत्याग्रह संपन्न करने के बाद भारत आये थे और सीधे गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार महात्मा मुंशी राम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी का पूर्व नाम, का धन्यवाद करने हरिद्वार पहुंचे थे। धन्यवाद का कारण था कि गुरुकुल के ब्रह्मचारियों द्वारा अफ्रीका में गांधी जी द्वारा किये गए सत्याग्रह आंदोलन के लिए मजदूरी करके बड़ी धनराशि एकत्रित कर गांधी जी को अफ्रीका भेजी थी। महामना शब्द के विषय में श्री रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा प्रथम प्रयोग की बात सही प्रतीत होती है। इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। आपकी आत्मा कथा किसी रोचक कथा के सामान है। पढ़कर अच्छा लगता है।

        • विजय कुमार सिंघल

          मान्यवर, आपकी जानकारी में थोडा संशोधन करना चाहता हूँ. मैंने पढ़ा था कि उस समय स्वामी श्रद्धानंद ‘महात्मा मुंशीराम’ के नाम से ही प्रसिद्ध थे. जब गाँधी उनसे मिलने गए, तो उसकी चर्चा करते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि ‘महात्मा’ तो गाँधी भी हैं. शायद तभी से गाँधी के नाम के साथ यह विशेषण जुड़ गया. हालाँकि मैं गाँधी को ‘महात्मा’ नहीं मानता. वे केवल मुसलमानों के पक्षपाती और हिन्दुओं के शत्रु थे. उनको हिन्दुओं को कायरता सिखाने का श्रेय दिया जा सकता है.

Comments are closed.