यशोदानंदन-१७
कैसी विडंबना थी – गोकुल में जहां आनन्दोत्सवों की शृंखला थमने का नाम नहीं ले रही थीं, वही मथुरा में कंस के भवन में षडयंत्रों की शृंखला भी रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। पूतना-वध का समाचार प्राप्त होने पर कंस विक्षिप्त-सा हो गया। कई दिनों तक वह दीवारों से सिर टकराता रहा। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एक पखवारे का शिशु महाबलशालिनी ताड़का का वध कर सकता है! उसे अब विश्वास होने लगा कि नन्द बाबा का पुत्र कोई साधारण मानव नहीं है। वह विलक्षण है। कंस के तरकस में भी घातक तीरों का अभाव नहीं था। उसने आरंभ से ही दैत्य, दानव, राक्षस, असुर और अपराधी प्रवृत्ति वाले मानवों से मित्रता कर रखी थी। उसका प्रत्येक कार्य योजनाबद्ध होता था। ऐसे लोगों का वह न सिर्फ सम्मान करता था, बल्कि संरक्षण भी देता था। मथुरा का राजकोष और सुविधाओं का आगार उनके लिए सदैव खुला रहता था। उसके द्वारा पालित दुर्जनों का वह समूह कंस के प्रति सदैव समर्पित रहता था। पूतना के बाद कंस ने श्रीकृष्ण को मारने का दूसरा उपाय किया। उसने एक विश्वस्त राक्षस को श्रीकृष्ण-वध का दायित्व सौंपा। पालने में खेल रहे एक शक्तिहीन बालक को मारने का काम उसे दिया गया। प्रतिप्रश्न करने या जिज्ञासा प्रकट करने की अनुमति तो थी नहीं, परन्तु मन ही मन उसे बड़ा अटपटा लगा कि उस जैसे महाबली को एक निरीह शिशु को मारने का कार्य सौंपा गया। मन की बात मन में ही छिपाते हुए उसने अहंकार पूर्वक गर्जना की –
“महाराज! इस पृथ्वी पर जो भी आपके अनिष्ट की कामना करेगा, उसे यमलोक पहुंचाना मेरा धर्म है। कृष्ण तो एक शिशु है। उसे तो मेरा एक छोटा अनुचर मार सकता है। परन्तु इस कार्य के लिये जब आपने मुझे आज्ञा दे ही दी है, तो अब निश्चित रूप से कृष्ण को मृत ही समझिए।”
अहंकार में डूबे कंस के अनुचर ने कौए का रूप धारण किया और उड़कर गोकुल पहुंचा। नन्द जी के घर पर मंडराने लगा । अवसर की ताक में कभी इस मुंडेर पर बैठता, तो कभी उस मुंडेर पर। मातु यशोदा श्रीकृष्ण को एकबार अकेले छोड़ अन्तःपुर में क्या गईं, कौए ने शिशु कृष्ण पर आक्रमण कर दिया। लेकिन यह क्या! श्रीकृष्ण के दृष्टि-पथ में आते ही वह जड़वत हो गया। विश्वनियन्ता अन्तर्यामी से अपने मन की बात छुपा लेना, कठिन ही नहीं, असंभव भी था। शिशु कृष्ण ने उसे गले से पकड़ कर अनेक बार घुमाया और इस तरह उछाल दिया कि वह सीधा कंस के पास जाकर गिरा। कंस के पास पहुंचते ही वह अपने मौलिक रूप में आ गया। हर्षित कंस अपनी प्रसन्नता रोक नहीं पाया, बोल पड़ा —
“हे दनुज! तुमने मेरा कार्य संपन्न कर दिया। बोलो, तुम्हे किस वस्तु से अलंकृत करूं? हीरा, मोती – स्वर्ण या राज्य? आज तुम जो मांगोगे – मैं वह सब तुम्हें दूंगा। बोलो मित्र! तुमने किस तरह यह कार्य संपादित किया?”
दनुज की चेतना अबतक वापस आ चुकी थी। बुझे स्वर में उसने आपबीती सुनाई और सुझाव दिया – “ हे राजन! नन्द का वह पुत्र सामान्य शिशु नहीं है। कोई महाव्रतधारी अवतार लेकर गोकुल में आया है। उसने मुझ जैसे शक्तिशाली दनुज को एक ही हाथ से पकड़ कर इस तरह फेंका कि मैं सीधे आपके चरणों में आकर गिरा हूँ। उसने मेरे गर्व को चकनाचूर कर दिया है। महाराज! आप उसके वध का विचार हमेशा के लिए त्याग दें, तभी आपका कल्याण संभव है।”
कंस दनुज की असफलता पर क्रोधित था ही, उसके परामर्श ने उसे और भी उद्वेलित कर दिया। उसकी आँखों से चिंगारियां बरसने लगीं। दनुज पर उसने अनहिनत पद-प्रहार किए और लौट कर अपने कक्ष में चला गया। उस दिन कुछ खाया नहीं, निरन्तर मदिरा-पान करता रहा।
इधर गोकुल में इन सारी घटनाओं से अनभिज्ञ मातु यशोदा श्रीकृष्ण में ही मगन रहती थीं। रात को सोते समय श्रीकृष्ण की काया में उत्पन्न एक तरंग से ही जाग जातीं, बैठकर समीप के स्थलों का निरीक्षण कर पुनः सो जातीं। श्रीकृष्ण तो दिन हो या रात, जब चाहे निद्रा का वरण कर लेते थे, परन्तु यशुमति मैया घर के कार्यों से दिन भर तो जागती ही थीं और रात्रि में भी कई बार अकचका कर उठ बैठती थीं। उनके लाल, शरीर से मल-मूत्र को जब भी निसृत करते, उनकी निद्रा स्वयमेव खुल जाती। कन्हैया सपने में भी चिहुंकते, तो वे घुटने के बल बैठ, गोद में ले दुलारने लगतीं और कभी जब वास्तव में नींद खुल जाती, तो रुदन ठान लेने पर उनको मनाना आसान नहीं था। नन्द जी तो पीठ फेरकर पुनः सो जाते परन्तु यशुमति मैया अपने लाला को छाती से चिपकाए आंगन में धीमे-धीमे टहल कर लोरी सुनातीं। गाने, टहलने और थपकी देने के क्रम ऐसे होते, मानो कोई संगीतकार अपनी मधुर धुन का अभ्यास कर रहा हो। जब पूरी तरह आश्वस्त हो जातीं, तभी कन्हैया को पर्यंक पर लेटातीं, फिर स्वयं सोतीं। प्रभात में पूर्व की भांति उठ भी जातीं और सभी इन्द्रियों को श्रीकृष्ण की एक छोटी आहट पर सजग हो जाने का आदेश दे अपने दैनिक कार्यों में लग जातीं। कहां से इतनी ऊर्जा पाई थी उन्होंने? ऊर्जा? और कहां से? स्वयं श्रीहरि जिनके आंचल की छांव में बड़े हो रहे थे, उसे ऊर्जा की कमी होती तो कैसे? भगवान राम ने इसीलिए तो कहा था – जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादति गरियसि।
देखते-देखते कन्हैया साढ़े तीन मास के हो गए। वे तेजी से हाथ-पांव चलाने लगे। जो भी पास आता, उसे देखकर मुस्कुराना नहीं भूलते। वह मोहक मुस्कान! जो भी एकबार देख लेता, वहां से जाने का नाम नहीं लेता। चला भी जाता, तो पुनः किसी न किसी बहाने लौट कर आता और पालने में लेटे श्रीकृष्ण कि देख अपनी आत्मा को तृप्त करता। पीठ के बल लेटे कान्हा अपना सिर कभी दायें, तो कभी बायें टिका देते। उन्हें अपना नन्हा सिर दायें टिकाना ही अधिक पसंद था। गोपियों ने मातु यशोदा को सहेजा – हमारा कान्हा अगर एक ही ओर सिर रखकर लेटेगा, तो सिर का आकार गोला नहीं रह पायेगा। एक तरफ पिचक जायेगा और एक तरफ बढ़ जायेगा। भांति-भांति कि युक्तियां की गईं लेकिन कान्हा ने अपनी आदत नहीं बदली। सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि कान्हा के लिए सरसों के दाने की कई तकियायें बनाई जाय। उसपर सिर टिकाने पर दोनों ओर सरसों फैलकर अपने आप उठ जाती है जिससे का्न्हा सिर्फ एक ओर गर्दन करके विश्राम नहीं कर सकते। यही हुआ भी। सरसों के दाने की तकिया ने कान्हा के सिर के दायें-बायें की गतिविधियों को नियंत्रित कर लिया। परन्तु सीमातीत प्रभु कबतक इस तरह के कृत्रिम नियंत्रण में रहते। उन्होंने पैर पलटकर पलटी खाना आरंभ कर दिया। मातु यशोदा उन्हें पालने में पीठ के बल लेटातीं और अगले ही पल देखतीं, तो कान्हा पलटी मार दाहिनी करवट सोते मिलते। यह एक शुभ परिवर्तन था। माता ने उन्हें सीधा करके गोद में उठा लिया और कान्हा के कपोलों, भाल और अधरों पर चुंबन की बरसात कर दी। उन्होंने पूरी शक्ति लगाकर नन्द जी और रोहिणी को पुकारा। कान्हा को छाती से चिपकाए वे हर्षातिरेक से गोल-गोल घूमकर नृत्य कर रही थीं। सम्मुख नन्द बाबा को देख अत्यन्त लाड़ से बोलीं –
“देख रहे हैं आर्य! आज मेरा लल्ला तीन मास और एक पक्ष का हो गया है। अत्यन्त स्वाभाविक रूप से उसका विकास हो रहा है। अब मेरा लड्डू गोपाल जांघ पलटकर करवट बदलने लगा है। मैं सौभाग्यवती हुई। चिरंजीवी हो मेरा लाडला! मैं इसके लिए बधाई उत्सव करूंगी।”
बहुत अच्छा लगा .
आपने यशोदा के वात्सल्य का अच्छा वर्णन किया है!