अप्रैल फूल
सोने ने लोहे से कहा-
यार! पिटते तो हम भी हैं
और……पिटते तो तुम भी हो
मैं तो उतना नहीं चिल्लाता
जितना तुम चिल्लाते हो
लोहे ने अनमने से
रुंधे स्वर में कहा-
हाँ, तुम्हें तो पराया पीटता है
पर, हमें तो….
अपना ही पीटता है
जानते हो
अपनों से पिटने की पीड़ा
दूसरों से पिटने की अपेक्षा
कहीं ज्यादा होती है
हम पहले भी
सदियों से पिटते रहे
मगर…..
पीटनेवाले गैर थे
पराये थे
शासन पर उन्हीं के साये थे
हमसब पर छाये थे
सोच उनके संस्कृति उनकी
चित भी उनकी
पट भी उनकी
हम बेबकुफ़ बने रहे
और….वे…..
बेबकुफ़ बनाते रहे
निज स्वार्थवश
उनके हाँ में हाँ मिलाते रहे
कहाँ तक कहूँ-
वे अप्रैल फूल मनाते रहे
और…..हम सबको
अप्रेल फुल बनाते रहे
तब से लेकर अबतक
और न जाने कब तक
इस देश में
अप्रैल फूल मनते रहेंगे
हमसब बेबकूफ बनते रहेंगे
तभी तो……एक अशुभ
प्रथा सी चल पड़ी है
वित्तीय वर्ष के नाम पर
अप्रैल फूल मन रही है
हम तो
तब भी मोहरे थे
और अब भी
मोहरे हैं
फर्क बस…..
इतना भर है कि
पहले गैरों के गुलाम थे
और……आज
भाषा-भूषा-भेषज के
स्तर तक
गुलामों के गुलाम हैं।
आभार आदरनीय गुरमेल सिंह जी एवं विजय कुमार सिंघल जी
अतिसुन्दर
बहुत अच्छी कविता .
बहुत सुंदर !