उन्नति का मार्ग
समस्त जीवधारियों में मनुष्य को श्रेष्ठ माना गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि हे पुरुष, यह जीवन उन्नति करने के लिए है, अवनति करने के लिए नहीं। परमेश्वर ने मनुष्य को दक्षता और कार्यकुशलता से परिपूर्ण किया है। ईश्वर यहां हमें पुरुष शब्द से संबोधित कर रहे हैं जिसका अर्थ है जो कार्य पूर्ण करके रहे वह ‘पुरुष’ कहलाता है। इस प्रकार मनुष्य का जीवन अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने की क्षमता रखने वाला है और उसके जीवन की सफलता उद्देश्यों की पूर्ति पर निर्भर करती है। मानव जीवन का उद्देश्य धर्मपूर्वक कर्म करते हुए अर्थ या धन-सम्पत्ति कमाना और धर्मपूर्वक कामनाएं रखते हुए उनकी पूर्ति करना है। साथ ही धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए आत्मिक उन्नति प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करना है। इसके लिए ईश्वर ने उसे बुद्धि, विवेक और दक्षता प्रदान करते हुए विशेष शारीरिक रूप प्रदान किया है। उसके शरीर में आठ चक्र और नव द्वारों की स्थिति तथा सबसे ऊपर मस्तिष्क रूपी राजा का नियंत्रण होने से वह समस्त कार्यों को तरीके से संचालित करता है। पशुओं अदि अन्य प्राणियों में मस्तिष्क व चक्रों की स्थिति पृथ्वी के समान्तर होने से उनकी अधोगति रहती है। मनुष्य इसके विपरीत ऊध्र्वगामी होता है। इससे विचारों की परिपक्वता और ज्ञान की उत्कृष्टता आसानी से प्राप्त कर प्रगति की ओर बढ़ता है।
मनुष्य योनि कर्म के साथ योग योनि है जबकि अन्य जीवों की केवल भोग योनि है, इनमें मस्तिष्क में कोई दक्षता न होने से भी उन्नति की कोई गुंजाइस नहीं रहती है। परमेश्वर ने मनुष्य को केवल उन्नति के लिए ही बनाया है और यदि हम इस अवसर का उचित लाभ न उठाकर फिर से अधोगति प्राप्त कर अन्य योनियों में जन्म लेते हैं तो उसके लिए हम स्वयं ही दोषी माने जायेंगे। इसलिए हमें व्यक्तिगत रूप से शारीररिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक उन्नति करनी चाहिए। सामाजिक रूप से सदाचार करते हुए सांस्कृतिक उन्नति करनी चाहिए। ईश्वर की यह अनुकम्पा है कि उसने हमें मनुष्य शरीर दिया है जिसमें हम बुद्धि, विवेक, दक्षता और भक्ति से न केवल भौतिक उन्नति कर सकते हैं, अपितु आध्यात्मिक रूप से भी उन्नति कर मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
कृष्ण कान्त वैदिक
अच्छा लेख.
सुन्दर, महत्वपूर्ण, प्रशंसनीय एवं ज्ञानवर्धक सारगर्भित लेख। लेख को बधाई।