कहानी

नीतू

नर से बढ़ कर नारी.  लिखा हमने पढ़ा.  सोचा हमने, समझा नहीं.  माना हमने, अपनाया नहीं.  लेकिन मैं एक उदाहरण लाई हूँ.

सन 1995.  मेरे ससुर जी ने रिटायर्ड होने पर मुजफ्फरपुर(बिहार) में बना-बनाया घर खरीद लिया, जो हम लोगों का स्थाई निवास-स्थान बना.  उस घर के पड़ोस में ही एक परिवार रहता था.  उस परिवार में पति-पत्नी और दो प्यारी सी छोटी-छोटी बच्चियां.  छोटी वाली कुछ महीनों की थी लेकिन बहुत ही प्यारी थी.  उसी उम्र का मेरी देवरानी का बेटा भी था, जो बाहर भोपाल में अपने माता -पिता के साथ रहता था.  पोते के नहीं रहने के कारण मेरी सास उस बच्ची के पास ज्यादा जाती.  और धीरे-धीरे, उस परिवार से हम सब घनिष्ट होते गए.

उस परिवार के लिए बड़ी भाभी और बच्चियों के लिए बड़ी अम्मा बनी मैं. मुझे एक और देवरानी मिली नीतू अस्थाना और देवर विवेक अस्थाना. विवेक एक लड़कियों के महाविद्द्यालय में सहायक के तौर पर कार्य करते थे.  आमदनी का एक ही जरिया होने के कारण पैसे की कमी नीतू को बहुत ही परेशान करती था. वो अक्सर बात किया करती – “दीदी मुझे कुछ करना होगा, क्यूँकि मैं अपनी बच्चियों को लाड-प्यार से पालना चाहती हूँ.  बहुत पढ़ाना चाहती हूँ.  इतने पैसे से ठीक से भोजन ही नहीं हो पाता.  शिक्षा कैसे होगी ??”

कुछ सालों के बाद जब छोटी वाली भी स्कूल जाने लगी तो नीतू कुछ करने के लिए सोच ही रही थी, राह मिल गयी. जिस महाविद्द्यालय में विवेक काम करते थे वहीँ नीतू को एक दुकान मिल गयी…दूकान बहुत ही छोटी थी, लेकिन नीतू के सपने और उस सपने को पूरा करने के हौसले बहुत ही बड़े थे.  नीतू उस दुकान में लड़कियों के जरुरत के सामान रखती थी.  उस महाविद्द्यालय में होस्टल भी था और दूर गाँव से आने वाली लड़कियों की संख्या भी अधिक थी.  लडकियों को बाहर बाज़ार जाने की इजाज़त भी नहीं थी. . इसलिए नीतू के दूकान अच्छे से चलने लगी.

नीतू मेहनत भी बहुत करती.  सुबह उठकर घर का सारा काम करती और लड़कियों को स्कूल भेजती.  फिर विवेक के साथ ही दुकान जाती.  बच्चियों के स्कूल से आने के समय घर आती, उन्हें खाना खिला फिर दुकान जाती.  शाम को दूकान बंद करने के बाद बाज़ार जाती. लड़कियों की जो मांग होती उसे खरीदती और साथ में घर के भी सामान लाती. फिर घर का रात का काम करती.

उसके मेहनत रंग ला रही थी. लेकिन नीतू पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी.  पैसे आ रहे थे, तो खर्चे भी बढ़ रहे थे.  कुछ समय के बाद दुकान में ही वो लड़कियों के कपड़े मौसम के अनुकूल रखने लगी.  जो लडकियाँ उसके दुकान से कपड़ें लेती नीतू को ही सिलाने के लिए दे देतीं.  कुछ आमदनी का जरिया और हो गया. लेकिन नीतू अभी भी संतुष्ट नहीं थी.  वो थक रही थी लेकिन हौसले के पंख तो अभी भी थे.  आज से 3-4 साल पहले अपने घर में ही लड़कियों का होस्टल खोल ली. घर में लड़कियां रखी.  खाने की भी व्यवस्था की.  फिर और कमरे बनवाती गई.  लड़कियों की संख्या बढाती गई.  अपनी दोनों बेटियों को बाहर रख कर शिक्षा दिलवा रही है.

पिछले वर्ष जब मैंने पापा जी का श्राद्ध-कर्म के भोज में उसे आमंत्रित किया तो वो अपनी चालीस लड़कियों के साथ एक कुशल सेनापति की तरह आई.  सच बताऊँ उससे ज्यादा मैं उस दिन खुश हुई उन लड़कियों को देख कर.  उन्हें भोजन कराने से मैं ज्यादा आनन्दित हुई.  उन सब को एक बात मैं भी बोली खुद को बदलो समाज बदलना है.

सच बताईये विवेक से बढ़ कर नीतू हुई कि नहीं ?? उसने साबित किया या नहीं ??  जीनी है जिंदगी तो जीवट बन,  किस्मत तो मेहनत बदलती है !!

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

4 thoughts on “नीतू

  • विजय कुमार सिंघल

    प्रेरक कहानी !

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभार और बहुत बहुत धन्यवाद आपका

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यही तो है नारी शक्ति !!!

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभार आपका

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