लूट मार के बाद गाँव में कुछ दिन शांत रहे, लेकिन अब और अजीब बातें सुनने को मिलने लगीं। लोग बातें कर रहे थे कि पाकिस्तान से एक गाड़ी आई थी जो हिन्दू और सिखों की लाशों से भरी हुई थी। यह भी बोल रहे थे कि हिन्दू सिखों के घरों को लूट कर उन की लड़किओं को नग्न करके लाहौर में जलूस निकाला गया, और कुछ औरतों की छातीआं काट दी गई थी, लाखों की तादाद में लोग उजड़ कर इधर आ रहे हैं। हम इन बातों को सुनते लेकिन हमें क्या मालूम था कि क्या हो रहा था। हम तो बस मस्ती करते और मुसलमानो के खाली पड़े घरो में घुस जाते और बचे खुचे गेंहूँ को ढूँढ़ते और अपनी कमीज के पलड़े में डालकर दूकान को ले जाते और मूंगफली रेडीआं खरीद कर खा लेते। एक लड़के को एक आना मिल गिया और बहुत खुश था। हम भी घरों के एक एक कोने को ध्यान से देखते कि शायद हम को भी कोई पैसा मिल जाए। हम सभी लड़के इकट्ठे हो कर घर घर जाते। एक घर में एक हुक्का पड़ा हुआ था। पहले तो कोई उसे हाथ नहीं लगाता था क्योंकि हमें एक वोह डर था कि इसे छूने से कहीं भिट्ट न जाएँ यानी अपवित्तर ना हो जाएँ। इसका कारण यह था कि सिख ना तो सिगरेट या हुक्का पीते हैं और ना ही इसे छूते हैं। कितनी देर तक हम एक दूसरे को देखते रहे। फिर अचानक मैंने हुक्के की नली में जोर से फूंक मारी। फूंक मारते ही चिलम की सारी राख हम सभी के सरों पर पड़ गई। पहले तो सभी हंस पड़े, फिर डर भी गए कि कहीं घर वालों को पता ना चल जाए। हम एक दूसरे का सर साफ़ करने लगे। हालांकि लूट मार से घर खाली हो गए थे लेकिन अभी भी बहुत सी चीज़ें पढ़ी थीं जो शायद किसी के मकसद की नहीं होंगी, लेकिन हमारे लिए वोह कीमती थी क्योंकि हमें तो बस खेलना ही था।
एक दिन हमारी गली में एक स्त्री आई जिस के साथ दो बच्चे थे और रो रो कर बता रही थी कि वोह पाकिस्तान से आई है , उस के घर के सभी सदस्य और पति मार दिए गए थे। बहुत स्त्रीआं इकठी हो गई थी, मेरी माँ ने रोटी पकाई और उन को खिलाई। उस के बाद वोह स्त्री कहाँ गई मुझे पता नहीं कुछ दिनों बाद और लोग आने शुरू हो गए। कुछ लोगों के तो रिश्तेदार हमारे गाँव में ही रहते थे, इस लिए इन लोगों के लिए तो सहारा मिल गिया था। वोह लोग छकड़ों पर सामान लाद कर ले आये थे। गाँव के लोग इन नए आने वाले लोगों को पनाहगीर कहते थे। मैं पहले अपने ताऊ नन्द सिंह का ज़िकर कर चुका हूँ, उसके भाई और बच्चे भी आ गए। ताऊ नन्द सिंह का घर हमारे साथ का ही था। सामान से सारा घर भर गया और ताऊ नन्द सिंह के लिए मुसीबत बन गई। क्योंकि जब से मैंने होश संभाला था नन्द सिंह अकेला ही रहता था और मज़े करता था। वोह एक तरखान था और गाँव में उस के लिए काफी काम था जिस से वोह खूब खाता पीता। वोह अपनी रोटी खुद ही पकाता था , उस की रोटीआं बहुत बड़ी होती थीं और कभी हमें भी खिला देता था।
ताऊ नन्द सिंह की भी एक अपनी ही कहानी थी जो लोग मज़े ले ले कर सुनाया करते थे। कहते थे जब ताऊ नन्द सिंह जवान था तो उस की सगाई एक गाँव में हो गई थी, जब उस की शादी को कुछ महीने रह गए नन्द सिंह बीमार पड़ गिया। इतना बीमार हो गिया कि गाँव के हकीम ने जवाब दे दिया। नन्द सिंह के माँ बाप ने यह देख कर नन्द सिंह के सुसराल सन्देश भेज दिया कि उनका बेटा अब ठीक होने को नहीं, इस लिए वोह अपनी लड़की का रिश्ता कहीं और कर लें। एक साल बाद नन्द सिंह की होने वाली पत्नी की कहीं और शादी हो गई। इस के कुछ ही महीने बाद नन्द सिंह घोड़े जैसा तगड़ा हो गया और इस के बाद उस की शादी हो ही नहीं सकी। नन्द सिंह का भाई अपनी बीवी और बच्चों को लेकर पाकिस्तान के बार के इलाके में रहने लगा और नन्द सिंह अपने माँ बाप के मरने के बाद अकेला रह गया।
पाकिस्तान से उजड़ कर नन्द सिंह का भाई अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर नन्द सिंह के पास आ गया। ताऊ के भाई राम सिंह के तीन बेटे और दो बेटीआं थीं। दो बेटे तो बड़े और बहुत तगड़े थे, एक तो पेहलवांण जैसा था। इस छोटे से घर में इतने लोग आ जाना बेचारे नन्द सिंह के लिए मुश्किल बन गिया क्योंकि यह घर साँझा था, उन लोगों को कुछ कह भी नहीं सकता था। रोज़ रोज़ झगड़ा होता , किस बात पे मुझे नहीं पता लेकिन हमारा घर साथ होने के कारण हमें भी परेशानी हो रही थी। एक दिन पता नहीं किया बात हुई ताऊ नन्द सिंह घर से बाहिर आ गया। कुछ ही देर बाद नन्द सिंह के भाई का बड़ा लड़का लाठी ले कर उस के पीछे आ गया और नन्द सिंह के सर पर जोर से लाठी मार दी। नन्द सिंह वहीँ गिर गया , गली के बहुत लोग इकठे हो गए थे और लड़के को बुरा भला कहने लगे। लड़के का नाम था प्रीतू। लोगों ने ताऊ नन्द सिंह को उठाया और हकीम सोहन लाल की सर्जरी ले गए , मैं भी वहां ही था। ताऊ के सर पर से बहुत खून बह रहा था। सोहन लाल ने साफ़ करके दवाई लगा दी। इस के बाद ताऊ कभी खुश नहीं रह सका।
मुसलमानों के चले जाने के बाद शायद गाँव को श्राप लग चुक्का था , वोह ख़ुशी है ही नहीं थी। रोज़ नए नए लोग आ रहे थे। गाँव में बहुत लोग आ चुक्के थे और भारत की नई सरकार के लिए भी कितना कठिन काम होगा , यह सोच कर कभी कभी हैरान हो जाता हूँ क्योंकि उन नए लोगों को नए सिरे से घर और ज़मीने देनी थी। फिर एक दिन बहुत से सरकारी अफसर आये और मुसलमानों के छोड़े हुए घर पाकिस्तान से उजड़ कर आए लोग जिनको पनाहगीर कहते थे , उन को अलाट करने शुरू कर किये। ताऊ नन्द सिंह के भाई को ज़मीं और नया घर रावलपिंडी अलाट हुआ। यह रावलपिंडी फगवारे से हुशिआर पर जाने वाली सड़क पर सथित है। पेहलवान लड़के जो नन्द सिंह का भतीजा लगता था उस को छोड़ कर सभी रावल पिंडी चले गए और नन्द सिंह के लिए कुछ आसान हो गिया।
फिर हकूमत ने मुसलमानों की ज़मीनें जो हमारे गाँव में थीं नए आये लोगों को अलाट करनी शुरू का दी। अब हमारे लिए भी मुसीबत शुरू हो गई क्योंकि मेरे दादा जी के दोस्त नबी की छोड़ी हुई ज़मीन चार सिख भाईओं को अलाट हो गई। यह चारों भाई बदमाश टाइप लोग थे। क्योंकि कुंआ नबी के साथ साँझा हुआ करता था , इस लिए वोह हिस्सा उन भाईओं को मिल गिया। यह लोग अपनी मर्ज़ी करते और हर वक्त कुंआ चलाते और अपने खेतों को पानी देते रहते लेकिन दादा जी जब अपने खेतों को पानी देना चाहते तो उनको रोक देते। जब दादा जी कुछ कहते तो लड़ने के लिए तैयार हो जाते। एक दिन दादा जी घर आये तो बहुत उदास थे, शायद उन भाईओं से झगड़ा हो गया था। कुछ देर बाद नबी की बातें याद करने लगे और बोले ” कहाँ से यह जानवर आ गए” फिर उन के मुंह से निकला “बस नबी, नबी ही था”. यह बात दादा जी ने कितनी बार कहीं , कोई गिनती नहीं हो सकती क्योंकि वोह नबी को आख़री सांस तक याद करते रहे।
आज जब मैं उस समय को आज के पाकिस्तान से मुकाबला करता हूँ तो सोचता हूँ क्यों इतना प्यार नफरत में बदल गया ?
चलता…।
जिज्ञासा बढ़ी हुई है ….
भाई साहब, आपके गाँव की कहानी पढ़कर अनुभव हुआ कि भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब के हजारों गांवों की कहानी इससे मिलती-जुलती ही होगी. मेरे एक दोस्त के पिता पेशावर के पास से अपना सब कुछ छोड़कर भारत आये थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी है, जो बहुत मार्मिक है. उसमें भी ऐसी ही घटनाओं का जिक्र है.
पाकिस्तान बनने से आपके गाँव में जो सामाजिक परिवर्तन हुआ उसका सजीव चित्रण किया है। समस्त विवरण पठनीय, विचारणीय एवं शिक्षाप्रद है। धन्यवाद।
मनमोहन जी , धन्यवाद . जो जो हुआ सभी कुछ मेरी आँखों के सामने है . पाकिस्तान बन जाने के बाद जो जो प्रेशानिआन लोगों को झेलनी पड़ीं , उस वक्त तो मैं नहीं समझता था लेकिन बाद में याद करके सोच आती थी कि हम तो यों ही कहा देते हैं कि देश का बटवारा हो गिया लेकिन लोगों को कम पता है कि उस के आफ्टर इफैक्ट किया किया हुए .
सही कहा भाई साहब, अपनी जड़ों से उखड़कर कहीं भी जाना बहुत दुखद होता है. देश विभाजन जैसी त्रासदी फिर न हो, संघ का यही प्रयास है.
विजय भाई, धन्यवाद , जो मैं लिख रहा हूँ , मैंने देखा सुना है , इतनी छोटी छोटी बातें हैं कि शाएद पड़ने वाला भी बोर हो जाए , बस इतना ही कहूँगा कि इस छोटी सी उम्र में मैंने बहुत कुछ देखा है .