राजनीति

जम्मू कश्मीर में अलगाववादियों के अच्छे दिन ?

जम्मू-कश्मीर में आखिरकार लम्बे विचार विनिमय के बाद काॅमन मिनिमम कार्यक्रम के अंतर्गत पीडीपी-भाजपा गठबंधन की सरकार का गठन हो गया है साथ ही विवादों का एक नया युग भी प्रारम्भ हो गया है। देश के राजनैतिक इतिहास में यह एक ऐसा गठबंधन है जो वास्तविक मजबूरियों का मिलन है। यह दो विपरीत ध्रुवों का मिलन है। जब तक राज्य में पीडीपी-भाजपा गठबंधन की सरकार नहीं बन रही थीं तब तक विरोधी हल्ला करते रहे। वे इस प्रयास में रहे किसी प्रकार से यह सरकार न बन पाये। अब जबकि सरकार बन गयी है तो विरोधियों को यह कहने का अवसर मिल गया है कि दोनों ही दल बेतहाशा अवसरवादी हैं।

विगत एक मार्च को जम्मू-कश्मीर में एक निश्चय ही नया इतिहास रचा गया है जिसकी किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। आम जनमानस तथा राजनैतिक विश्लेषकों के सभी अनुमानों को गलत साबित करते हुये मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद एक के बाद एक ऐसे निर्णय ले रहे हैं जिसे लगने लगा है कि अब यह गठबंधन सरकार बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकेगी तथा देशभक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा को बहुत ही जल्द कड़े निर्णय लेने पड़ेंगे। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के फैसलों से आज पूरा देश गुस्से में हैं तथा हालात इतने बदतर हो रहे हैं कि विपक्ष की नाराजगी को देखते हुए तथा संसद की कार्यवाही ठप्प न हो सके इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संसद में कड़ा संदेश देना ही पड़ गया । पता नही क्यों मुफ्तीसाहब को किस बात की जल्दी हो गयी कि वे एक केबाद एक हमले करनें लग गये और भाजपा असहज हो गयी। जब उन्हें सरकार बनानी ही नहीं थी तो फिर उन्होनें अपने अलगाववादी प्रेम को जगजाहिर करने के लिए भाजपा को क्यों चुना? इससे अच्छा साथी तो उनके लिए कांग्रेस व अन्य तथाकथित दल भी हो सकते थे। लेकिन नहीं। उन्हें संभवतः भाजपा व मोदी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में मजा आ रहा है।

मात्र सात दिनों के अंदर ही गठबंधन का धर्म भूल चुके है। पहले उन्होंने बयान दिया कि जम्मू कश्मीर में शांतिपूर्वक चुनावों के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत व अन्य समस्त अलगाववादी ताकतों को जिम्मेदार बताया । फिर पीडीपी के आठ विधायकों ने संसद भवन हमले के आरोपी अफजल गुरू के अवशेष मांगकर अपने तेवर दिखाये लेकिन यहां एक कांग्रेसी सांसद मणिशंकर अय्यर ने भी अपने आंसू बहा दिये। मणिशंकर के आंसू तो काबिलेतारीफ थे। अफजल गुरू पर बयान देते समय वे यह भूल गये कि अफजल के साथ नाइंसाफी तो उन्हीं की पार्टी की सरकार में हुई थी जब हिंदुओं के वोट प्राप्त करने के लिए तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार ने सूली पर चढ़ा दिया था। मणि का बयान तो एक प्रकार से देश के संविधान व न्यायिक व्यवस्था का भी मजाक बना रहा था। उनके बयान से तो सबसे अधिक असहज कांग्रेस हो गयी तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं को मणि शंकर के बचाव में आना पड़ गया।

जब जम्मू-कश्मीर से आये दो बयानों का कारवां किसी तरह से गुजर गया तो पूरे देश का अमन चैन छीनने के लिये सईद साहब ने घाटी में अलगाववादी नेताओं के बीच अपनी छवि को निखारने के लिए व मध्यावधि चुनावों की नौबत आने पर उनके बलबूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने का सपना देख रही पीडीपी सरकार ने जेलों में बंद तथाकथित अलगाववादी नेताओं की रिहाई कराने का निर्णय लेकर आग में बेतहाशा घी डालने का काम किया है। पहले चरण में मुफ्ती सरकार ने जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेस के प्रमुख मुसर्रत आलम को रिहा किया है। यह वही मुसर्रत आलम है जिसने 2008 में श्रीअमरनाथ भूमि आंदोलन के दौरान कश्मीर में “रगड़ा-रगड़ा भारत रगड़ा” और 2010 हुए हिंसक प्रदर्शनों का संचालन करते हुए ”गो-इंडिया-गो“ की मुहिम चलाई थी। यह बड़ी मुश्किल से पकड़ा गया था। यह वहां का पत्थरबाजी का मास्टरमाइंड भी माना जाता है। यह 18 अक्टूबर 2010 को श्रीनगर के बाहरी क्षेत्र हारवन से पकड़ा गया था। जेल से रिहा होने के बाद मसर्रत आलम ने कहाकि कश्मीर कभी भी भारत का अंग नहीं था। खबर है कि अभी कुछ और नेता रिहाई के इंतजार मे हैं और समय रहते जम्मू-कश्मीर में बेहद कड़ी कार्यवाही नहीं की गयी तो आनें वाले दिनों में हालात बद से बदतर हो सकते हैं। बर्फ पिघलने के बाद आतंकी वैसे भी भारी संख्या में घुसपैठ करने की फिराक में रहते हैं तब उनके लिए यहां की राजनैतिक स्थिति भी फायदेमंद हो सकती है। यह मामला कुछ इतना अधिक गंभीर हो चला है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तत्काल सदन में आकर बयान देना पड़ ही गया। आज सीमावर्ती राज्य के हालात दो ध्रुवों के बीच फंस गये हैं, जिसमें एक ओर कुंआ है और दूसरी ओर खाई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित ष्शाह की जोड़ी ने कश्मीर के लोगों की सुख-ष्शांति, विकास व अच्छे दिनों के लिए एक अच्छे गठबंधन की सरकार बनाने का शानदार प्रयास किया। लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह एक सप्ताह में ही दरकने लग जायेगा। सईद के कारण वहां की जनता के तो अच्छे दिन नहीं आये सईद विरोधी तथाकथित अलगाववादी नेता यासिन मलिक के दबाव का असर दिखने लगा और जेलों में बंद अलगाववादी नेताओं के अच्छे दिन जरूर आ गये। सईद इसलिए भी दबाव में हैं क्योंकि उन्हें अब घाटी में मोदी का गुलाम कहा जाने लगा है।

कश्मीर घाटी में अलगावादी संगठन जेकेएलएफ के अध्यक्ष मुहम्मद यासीन मलिक ने मुख्यमंत्री मुफ्ती के निर्वाचन क्षेत्र अनंतनाग में रैली की तथा रैली के बाद हिंसा भी हुई। मुफ्ती जब 1990 में गृहमंत्री थे तब जेकेएलएफ ने ही उनकीे बेटी डा. रूबिया सईद का अपहरण करवाया था और उनको पांच नेता रिहा करने पड़े थे। कश्मीर घाटी में सईद की खूब आलोचना हो रही है तथा उनके विरोधी उनका मजाक बना रहे हैं। अपने मतदाताओं को अपने पास समेटे रखने के लिए पीडीपी को यह सबकुछ करना ही है। जबकि भाजपा के पास बहुत कम अवसर रह गये हैं। जिस प्रकार से सईद साहब एक सप्ताह में चले हैं उससे तो भाजपा के पास केवल एक ही विकल्प है राज्यपाल का शासन। अब सभी निर्णय मोदीजी को ही लेना है। वे बार-बार संसद व देश को आश्वस्त जो कर रहे हैं।

मृत्युंजय दीक्षित

One thought on “जम्मू कश्मीर में अलगाववादियों के अच्छे दिन ?

  • विजय कुमार सिंघल

    लेख अच्छा है, लेकिन यह कहना ग़लत है कि आतंकवादियों या अलगाववादियों के अच्छे दिन आ गयेहैं। वास्तव में अब उनको मुख्यधारा में लाने की लम्बी प्रक्रिया शुरू हुई है।

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