उपन्यास अंश

यशोदानंदन-१९

           श्रीकृष्ण ने अवतरण के प्रथम दिवस से ही अपनी अद्भुत बाललीला आरंभ कर दी थी। वे उन्हीं को अधिक सताते थे, जो उनका सर्वप्रिय था। मातु यशोदा जिसे एक शिशु का सामान्य व्यवहार समझती थीं, वह वास्तव में विशेष लीला थी। छकड़ा टूटने की घटना के पश्चात्‌, मातु कुछ अधिक ही सजग हो गई थीं। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि कुछ दुष्टात्मायें उनके सांवले-सलोने लल्ला का अनिष्ट करना चाहती हैं। कान्हा को नहलाने-धुलाने के पश्चात्‌ ललाट पर एक काला टीका लगाना कभी नहीं भूलतीं। दिन में कम से कम पांच बार लाल मिर्च से कान्हा की नजर उतारतीं और खुले में जलातीं। जो भी जैसा टोटका बताता, मातु अविलंब उस टोटके को पूरा करतीं। श्रीकृष्ण को अब वे अकेले नहीं छोड़तीं। सदैव छाती से चिपकाकर रखतीं। कान्हा ने अभी बोलना प्रारंभ नहीं किया था। अतः अपना विरोध कैसे दर्ज कराते? सदा गोद में टंगे रहना उन्हें कही से भी अच्छा नहीं लगता था। वे धरती माता की गोद में भी खेलना चाहते थे। एक दिन जब मातु यशोद गोद में लेकर उन्हें दुलार रही थीं, उन्होंने अपना भार अप्रत्याशित रूप से बढ़ा लिया। मातु को अपना ही शिशु अत्यन्त भारी लगने लगा। वे उन्हें उठाने में असमर्थता का अनुभव करने लगीं। अतः इच्छा न होते हुए भी उन्हें कान्हा को धरती पर बैठाना पड़ा। स्वयं गृह-कार्य में व्यस्त हो गईं।

उधर कंस ने अपने तरकस के चौथे तीर के प्रयोग का निर्णय लिया। मातु यशोदा गोकुल में जिस तरह आठों पहर कान्हा की चिन्ता में लगी रहती थीं, कंस भी मथुरा में आठों पहर श्रीकृष्ण की ही चिन्ता करता था। उसके अगले षडयंत्र का मोहरा था, महा मायावी असुर तृणावर्त। कंस से श्रीकृष्ण के विनाश का दायित्व अब उसे सौंपा। वह नन्द जी के आंगन में एक बवंडर के रूप में प्रकट हुआ। धरती पर अकेले खेलते हुए शिशु कान्हा को देखते ही उसकी बांछें खिल गईं। कान्हा को कंधे पर उठाकर आकाश में पहुंचा और समूचे गोकुल में भयंकर अंधड़ उत्पन्न किया। सारा आकाश धूल से भर गया, पेड़ जड़ से उखड़ गए, घरों के छप्पर न जाने कहां चले गए, सर्वत्र अन्धेरा छा गया, सभी लोगों की आँखों में धूल भर गया। कोई किसी को देख नहीं पा रहा था। सभी चिल्ला रहे थे, पर कौन किसकी सहायता करता? इतने कम समय में वह प्रलयंकारी अंधड़ आया कि किसी को बचाव के लिए कुछ करने या सोचने का अवसर ही नहीं मिला। मातु यशोदा दौड़ती हुई आंगन में आईं। देखा तो कान्हा कहीं नहीं थे। आंगन और घर के कोने-कोने में उन्होंने कान्हा को ढूंढ़ा, लेकिन वे वहां होते, तब तो मिलते। उन्हें तो बवंडर उठाकर आकाश में ले गया। वे शोकतुर हो, विलाप करने लगीं। दुःख के अत्यधिक आवेग से वे मूर्च्छित हो गईं। सारी दासियां और स्वयं नन्द जी यशोदा के उपचार में लग गए, परन्तु सबकी चिन्ता के केन्द्र कान्हा ही थे।

तृणावर्त दानव ने बालकृष्ण को कंधे पर उठाकर आकाश में और ऊंचा जाने का प्रयास किया। पृथ्वी पर अंधड़ चल रहा था। किसी ने भी श्रीकृष्ण और तृणावर्त को नहीं देखा। बालकृष्ण ने अपने आनन पर एक रहस्यमयी मुस्कान फेंकी। उन्होंने धीरे-धीरे अपना भार बढ़ाना आरंभ किया। तृणावर्त की गति रुक गई। कान्हा ने अपना भार थोड़ा और बढ़ाया; दानव की गति अधोमुख हो गई। उसे बरबस अपना उत्पात बंद करना पड़ा। श्रीकृष्ण ने अपना भार और बढ़ाया। सूकर अवतार में संपूर्ण पृथ्वी का भार अपने दांतों पर उठाकर जग का कल्याण करनेवाले श्रीविष्णु का भार भला कौन वहन कर सकता था? तृणावर्त कान्हा के भार के दबाव से छटपटाने लगा। कान्हा ने अपने दोनों हाथों से उसकी ग्रीवा पकड़ रखी थी। तृणावर्त अपनी ग्रीवा को श्रीकृष्ण के नन्हें हाथों से छुड़ाने का जितना ही प्रयत्न करता, कान्हा की बाहों का शिकंजा उतना ही कसता जाता। तृणावर्त के गोलक बाहर निकल आए, श्वास-प्रणाली बंद हो गई और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। वह वृन्दावन की पथरीली भूमि पर धड़ाम से गिर पड़ा। उसके अंग-प्रत्यंग क्षत-विक्षत हो गए।

अंधड़ आया और चला गया। तृणावर्त का मृत शरीर पृथ्वी पर शयन कर रहा था और बालकृष्ण उसके वक्षस्थल पर बैठ बाल-क्रीड़ा कर रहे थे – ऐसे जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। गोप-गोपियों ने जब यह दृश्य देखा, तो आश्चर्य से चमत्कृत हो उठे। दौड़कर श्रीकृष्ण को उठाया। कान्हा का भार अब तृणवत हो चुका था। अपने प्राणप्रिय को जीवित पाने के पश्चात्‌ सभी नागरि‍कों की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही। वे अत्यन्त प्रमुदित हुए। सब अपने-अपने ढ़ंग से घटना कि समीक्षा करने लगे। एक वृद्ध ने बस इतना कहा – जाको राखे साइयां, मार सके न कोय।

बालक को गोद में लेकर एक गोपी नन्द-भवन की ओर दौड़ पड़ी। पीछे-पीछे दौड़ रहा था पूरा गोकुल। मातु यशोदा अपने हृदयांश को देखते ही वस्त्रों की भी सुधि लिए बिना दौड़ पड़ीं। पुत्र को गोद में लेकर देर तक रोती रहीं। कह रही थीं –

“मैंने स्वप्न में भी कभी किसी का अकल्याण नहीं किया है और न सोचा भी है। फिर मेरे लाल को मुझसे छीनने का उपक्रम बार-बार कौन कर रहा है? हे विधाता! मेरे कान्हा पर लग रहीं दुष्टों की कुदृष्टियों का शमन करो। मेरी प्रार्थना सुनो भगवन्‌! मेरे कान्हा का कल्याण करो। मेरी उम्र ले लो, परन्तु मेरे लाल को दीर्घायु करो।”

जिस विधाता से अपने पुत्र के दीर्घ जीवन की कामना कर रही थीं, उन्हें क्या पता, वह उनकी गोद में लेटे-लेटे उनकी ओर देखकर मुस्कुराए जा रहा था। ममता के उद्रेक के कारण उनके स्तनों से दूध की धारा बह निकली। दुग्धपान कराने के लिए उन्होंने ऊंगली डालकर कान्हा का मुख क्या खोला, उनका मुख भी खुला का खुला रह गया, आँखें विस्फारित हो गईं और बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया। अवाक्‌ हो वे श्रीकृष्ण का मुख ही देखती रह गईं। मुख से एक बोल भी नहीं फूटा। कान्हा के मुख में जो दृश्य देखा वह वर्णनातीत था – पूरा आकाश, सभी नक्षत्र, संपूर्ण तारामंडल, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियां, वन-समूह, संपूर्ण चेतन-प्राणी! क्या नहीं था श्रीकृष्ण के मुख में!

माता का हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था। एक बार होंठ हिले, परन्तु बोल नहीं फूटे। सिर्फ बुदबुदा ही सकीं – “अद्भुत! अनुपम!!” कुछ और व्यक्त करना उनके वश में नहीं था। बस उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। वे न जाने किन विचित्र भावों में लीन हो गईं। नन्द जी ने कंधा पकड़कर जोर से झिंझोड़ा। मातु यशोदा की चेतना तो वापस आ गई लेकिन वे दिव्य-दर्शन की स्मृति को संभाल नहीं सकीं।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-१९

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अति रोचक !

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