कविता

सितम

थक चुका हूं ए ज़िन्दगी
तेरे सितम सहते सहते
तेरी सुनते सुनते
और अपनी कहते कहते
यूँ सोचा न था
कभी हँसी को भी तरसेंगे
जो रहते थे कभी
उन्मुक्त हवा में पंछी की तरह
वो लड़खड़ाने लगे हैं
बहके बहके बहुत हो चुका
जितना पाया था
उस से ज्यादा खो चुका
दो पल मुस्कुरा न पाये
उस से ज्यादा तो रो चुका
ऊब गया
इस तरह रहते रहते
वर्ना यह बात
कभी न कहते
इससे पहले की टूट जाऊं
कच्ची इमारत की तरह
थाम ले मुझे वक़्त के रहते
क्योंकि
थक गया हूँ ऐ ज़िन्दगी
तेरे सितम सहते सहते

महेश कुमार माटा

महेश कुमार माटा

नाम: महेश कुमार माटा निवास : RZ 48 SOUTH EXT PART 3, UTTAM NAGAR WEST, NEW DELHI 110059 कार्यालय:- Delhi District Court, Posted as "Judicial Assistant". मोबाइल: 09711782028 इ मेल :- [email protected]

5 thoughts on “सितम

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    दुःख व हंसी
    जिंदगी की सौगातें
    रूप सिक्के के ।

    • महेश कुमार माटा

      Sahi kahaa apne विभा जी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अच्छी कविता , कभी कभी मैं भी मौजुस हो जाता हूँ , यह जिंदगी के उतार चड़ाव ही तो हैं .

    • महेश कुमार माटा

      जी सिंह साहब

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