सितम
थक चुका हूं ए ज़िन्दगी
तेरे सितम सहते सहते
तेरी सुनते सुनते
और अपनी कहते कहते
यूँ सोचा न था
कभी हँसी को भी तरसेंगे
जो रहते थे कभी
उन्मुक्त हवा में पंछी की तरह
वो लड़खड़ाने लगे हैं
बहके बहके बहुत हो चुका
जितना पाया था
उस से ज्यादा खो चुका
दो पल मुस्कुरा न पाये
उस से ज्यादा तो रो चुका
ऊब गया
इस तरह रहते रहते
वर्ना यह बात
कभी न कहते
इससे पहले की टूट जाऊं
कच्ची इमारत की तरह
थाम ले मुझे वक़्त के रहते
क्योंकि
थक गया हूँ ऐ ज़िन्दगी
तेरे सितम सहते सहते
महेश कुमार माटा
अच्छी कविता !
दुःख व हंसी
जिंदगी की सौगातें
रूप सिक्के के ।
Sahi kahaa apne विभा जी
अच्छी कविता , कभी कभी मैं भी मौजुस हो जाता हूँ , यह जिंदगी के उतार चड़ाव ही तो हैं .
जी सिंह साहब