आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 18)

ए-ब्लाॅक, इन्दिरा नगर में एक कमरे वाले मकान में मैं लगभग डेढ़ साल रहा। फिर वहाँ असुविधा होने पर सी-ब्लाॅक में एक मकान लिया। वह काफी सुविधाजनक था और एच.ए.एल. के निकट भी था, परन्तु मकान मालिक चौबे जी से मेरी नहीं पटी। इसलिए 5-6 माह बाद ही उसे छोड़ दिया। उन्हीं दिनों हमारे सेक्शन के मैनेजर श्री के. रमेश राव को एच.ए.एल. कालोनी में एक मकान एलाॅट हो गया था और वे भूतनाथ मंदिर के पास वाले एक अच्छे मकान को 15-20 दिन बाद खाली करने वाले थे, इसलिए कुछ दिनों के लिए मैं सी-ब्लाॅक चौराहे के पास एक कमरे में रहने चला गया, जो हमारे एक कर्मचारी का था। फिर राव साहब वाले मकान में आ गया।

यह मकान मेरे लिए काफी सुविधाजनक था। यह एच.ए.एल. और महामना बाल निकेतन दोनों के ही निकट था। हालांकि इसमें भी केवल एक कमरा था, लेकिन एक बरामदा, रसोईघर और खुली छत भी थी। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था। लखनऊ छोड़ने तक मैं उसी मकान में रहा। इसके मकान मालिक तो कहीं जबलपुर में रहते थे, लेकिन नीचे एक अन्य किरायेदार रहते थे श्री कुल भूषण सिंघल। वे बिजली विभाग में ही इंजीनियर थे, अब रिटायर हो चुके हैं। वे तथा उनकी पत्नी श्रीमती पूनम सिंघल बहुत सज्जन हैं। वे दोनों देखने में जितने सुन्दर और आकर्षक हैं, उनका स्वभाव और व्यवहार भी उतना ही सुन्दर है। वे मेरा काफी ध्यान रखते थे। वे मेरे लिए हाॅकर से दूध लेकर गर्म करके अपने फ्रिज में रख लेते थे, जिसे मैं सायंकाल आॅफिस से लौटने पर पी लिया करता था। उन्होंने मेरे लिए एक पड़ोसी के माध्यम से गैस कनेक्शन की व्यवस्था भी कर दी थी और एक गैस चूल्हा, जो उनके पास रखा हुआ था, मुझे सस्ते में दे दिया था। इससे मैं सुविधापूर्वक अपना भोजन बनाने लगा था। इससे पहले मैं मिट्टी के तेल के स्टोव पर भोजन बनाता था और आलस्य में कई बार गोल कर जाता था।

सिंघल भाईसाहब और भाभीजी से मेरे बिल्कुल पारिवारिक सम्बंध बन गये थे और अभी तक बने हुए हैं। जब मेरी माता जी और बहिन गीता लखनऊ आयी थीं, तो उन्होंने उनका काफी ध्यान रखा था। वे गीता को बहुत प्यार करते थे। उनके तीन पुत्र हैं, कोई पुत्री नहीं है। तीनों पुत्र पढ़ने-लिखने और खेलकूद में भी बहुत आगे रहते थे। सबसे बड़े रूपेश इंजीनिरिंग के बाद एम.बी.ए. करके एक अच्छी कम्पनी में बहुत अच्छे पद पर कार्य करने लगे थे। उनसे छोटे राजीव ने भी इंजीनियरिंग के बाद आई.आई.एम., लखनऊ से एम.बी.ए. किया है। सबसे छोटे तुषार (रिंकू) ने शायद सी.ए. किया है। दोनों बड़े पुत्रों ने प्रेम विवाह किया था। इनमें बड़े पुत्र रूपेश का प्रेम विवाह बहुत सफल रहा। राजीव का प्रेम विवाह असफल रहा। भाई साहब ने मुझे बताया कि राजीव बहुत क्रोधी है और उसकी पत्नी बहुत सीधी और अच्छी थी। इसी से दोनों में नहीं पटी और पत्नी तलाक लेकर अलग हो गयी।

एक बार मैंने भाईसाहब से कहा था कि इन बच्चों को हारना भी सिखाइए। तब उन्होंने यह बात हँसकर टाल दी थी। राजीव के असफल वैवाहिक जीवन का समाचार जानने के बाद जब मैंने भाईसाहब को याद दिलाया कि मैंने आपसे कहा था कि इन्हें हारना भी सिखाइए, पर आपने ध्यान नहीं दिया था, तो उनको कहना पड़ा- ‘हाँ, तुम ठीक कहते थे।’ भाईसाहब और भाभीजी अभी भी इन्दिरा नगर में रहते हैं। उन्होंने सेक्टर 20 में अपना अच्छा मकान बना लिया है। बीच-बीच में मैं उनसे मिलता रहता हूँ। वे मुझे काफी प्यार करते हैं। लखनऊ छोड़ देने के बाद जब मैं वाराणसी से वहाँ आता था, तो कई बार उनके यहाँ ही ठहरता था। भाभी जी श्रीमती पूनम सिंघल श्री श्री रवि शंकर का ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ सिखाया करती थीं।

(पादटीप : मेरा स्थानान्तरण पंचकूला हो जाने पर मेरा उनसे संपर्क टूट गया था। इसी बीच वे लखनऊ वाला अपना मकान बेचकर शायद  नोयडा में अपने छोटे पुत्र तुषार के पास रहने चले गए। बहुत कोशिशों के बाद भी मुझे उनका संपर्क या पता नहीं मिल सका है।)

एच.ए.एल. में मेरी जिन्दगी अच्छी तरह कट रही थी। मैं एच.ए.एल. के साथ ही संघ कार्य में भी समरस होने लगा था। मैं सोचा करता था कि रिटायर होने तक एच.ए.एल. में ही सेवा करता रहूँगा, जैसा कि अधिकांश लोग किया करते हैं। उन्हीं दिनों सन् 1985 में उ.प्र. आवास एवं विकास परिषद ने मकानों के लिए एक स्ववित्त पोषित योजना निकाली। पाँच प्रकार के स्वतंत्र मकान इन्दिरा नगर में ही मिल रहे थे। उनकी कीमत 35 हजार रुपये से लेकर 2 लाख रुपये तक थी। चौथी श्रेणी के मकान की कीमत थी रु. 65 हजार और तीसरी श्रेणी के मकान की कीमत थी एक लाख 20 हजार। एच.ए.एल. के बहुत से लोगों ने इस योजना में मकान बुक कराये थे। मैंने भी चौथी श्रेणी का मकान बुक कराया था। इसका पंजीकरण शुल्क था केवल 7 हजार रुपये। शेष राशि 14-14 हजार की चार तिमाही किस्तों में देनी थी।

उस समय 65 हजार काफी बड़ी रकम हुआ करती थी, क्योंकि हमारा वेतन ही केवल 1700 रुपये था। इसलिए मकान के लिए मुझे ऋण लेना था। एच.ए.एल. में ऋण सुविधा उपलब्ध नहीं थी, परन्तु बाहर से ऋण लेने पर एच.ए.एल. से उसके ब्याज के कुछ भाग का भुगतान हो जाता था, जिसे सबसिडी कहा जाता था। इसलिए हम कई लोगों ने एच.डी.एफ.सी. नामक प्राइवेट कम्पनी से ऋण लेना तय किया। वह ऋण हमें बिना अधिक भागदौड़ किये मिल भी गया और एच.ए.एल. से सबसिडी भी मिलने लगी।

उ.प्र. आवास एवं विकास परिषद ने हमसे वायदा किया था कि वे मात्र 1 साल में मकान बनाकर दे देंगे। परन्तु सरकारी योजनाएँ कभी समय पर पूरी नहीं होतीं। इसलिए इंतजार करते-करते 1988 आ गया। उस पर तुर्रा यह कि उन्होंने मकान की कीमत भी 20-22 प्रतिशत बढ़ा दी। हमने यूनियन बनाकर कानूनी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन अदालत में हार गये। इसलिए हमें बढ़ी हुई कीमत का भुगतान करना पड़ा।

वैसे मैं चाहता तो एच.ए.एल. में अफसरों को मिलने वाला मकान अपने नाम एलाट करा सकता था। कई लोगों ने इसके लिए कहा भी था। मेरे अलावा कई अधिकारियों ने वहाँ मकान ले लिया था। अपनी बीमारी के आधार पर मुझे अपनी बारी से पहले ही मकान मिल सकता था, परन्तु मैंने नहीं लिया। मेरे पास संघ के बहुत से कार्यकर्ता आया करते थे और मैं सोचता था कि उन्हें एच.ए.एल. कालोनी के अन्दर आने में बहुत परेशानी होगी। इसलिए मैं जहाँ था, वहीं खुश था।

इसी बीच एच.ए.एल. से मेरा मोह भंग होने लगा। प्रमुख कारण यह था कि वहाँ विकास के अधिक अवसर नहीं थे। वैसे भी कम्प्यूटर वालों को दो-चार साल बाद नौकरियाँ बदलते रहने से फायदा होता है। मेरे कई साथी अफसर एक-एक करके एच.ए.एल. छोड़कर जा रहे थे। मैंने भी इधर-उधर आवेदन भेजना शुरू कर दिया। कई जगह से इंटरव्यू काॅल भी आया। परन्तु प्राइवेट कम्पनी वाले मेरी कानों की बीमारी के कारण मुझे लेने में हिचकते थे। मैंने बजाज आॅटो लि. पुणे में आवेदन किया था। उनकी लिखित परीक्षा दिल्ली में हुई थी, उसमें भी मैं उत्तीर्ण हो गया था। इंटरव्यू के लिए मेरे पास वहाँ से तीन बार काॅल आया। परन्तु इंटरव्यू बैंगलौर में था, इसलिए मैं नहीं गया। वास्तव में मैं कोई अच्छी सरकारी नौकरी चाहता था, इसलिए मौके की प्रतीक्षा करता रहा।

सन् 1987 के आसपास मेरे ज.ने.वि. के सहपाठी पी. कृष्ण प्रसाद ने विशाखापटनम् में एक कम्पनी बना ली थी। वह चाहता था कि मैं वहां आकर उसकी कम्पनी का काम सँभाल लूँ। मेरा भी विचार था कि दो-तीन माह एच.ए.एल. से छुट्टी लेकर विशाखापटनम् चला जाऊँ और देख लूँ कि मेरा काम जम सकता है या नहीं। के.पी. ने दो-तीन तार मुझे बुलाने के लिए भेजे थे, परन्तु मेरे घर वालों ने सख्ती से मना कर दिया। इसलिए मामला वहीं खत्म हो गया। के.पी. को निराश करने पर मुझे बहुत दुःख हुआ, परन्तु क्या किया जा सकता था?

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 18)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप की जीवन कहानी को पड़ कर समझा , कितनी सत्रगल आप ने की . एक बात है कि आप कभी भूखे नहीं रह सकते किओंकि मेरी तरह आप भी खाना खुद बनाने में माहिर हैं . यही आदत मेरे सभी बच्चों को है . बेटा तो तरह तरह की रेस्पी का शौक रखता है . आप की कहानी पड़ कर आप की जदोजहद पर हैरानी होती है .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाईसाहब आपने। कभी। आलस्य में मैं भोजन नहीं बनाता था तो बाहर डोसा आदि खा लेता था।
      संघर्ष का नाम ही ज़िंदगी है। जिसने कभी संघर्षनहीं किया उसने ज़िंदगी का पूरा मज़ा नहीं लिया।

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपने घटनाओं का सजीव चित्रण किया है जिसे पढ़कर समाज व सामाजिक व्यवहार का ज्ञान होता है। जीवन में आने वाले मोड़ो का भी अवलोकन होता रहता है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

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