उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 43)
39. षडयंत्र की पहली चिंगारी
कामक्रीड़ा से तृप्त बेसुध शहजादे को देवलदेवी ने झिंझोड़कर जगा दिया। शहजादा नींद में पागलों की तरह उठ बैठा, आँखें मलते हुए हड़बड़ाकर शय्या में एक तरफ दुबकते हुए बोला, ”क… क… कौन है? क्या कोई कातिल आ घुसा है?“
खिज्र खाँ की भीरूता देख देवलदेवी अचंभित रह गई, इतनी बड़ी दिल्ली सल्तनत का सबसे बड़ा शहजादा और इतना डरपोक। वे उसी घड़ी जान गई यह कायर किसी भी तरह उनके काम का नहीं। किंतु वे फिर प्रयास करना चाहती थी। बोली, ”शहजादे आलम, यह हम हैं आपकी बेगम।“
”ओह बेगम देवल, तुमने तो हमें डरा ही दिया था लगा आज कोई शबेअव्वली का फायदा उठाकर हमारा कत्ल करने आ गया।“
”शहजादे, आप भी भयभीत हैं? सच तो ये है हम खुद भयभीत हैं, बस इसलिए आपको नींद से जगाने का गुनाह कर बैठे। क्षमा करें।“
”हमारी बेगम को किसका खौफ?“, खिज्र खाँ शय्या पर थोड़ा दुरुस्त होकर बैठते हुए बोला। अब उसका खौफ थोड़ा-बहुत कम हो रहा था।
”हमने स्वप्न देखा, शहजादे आलम एक डरावना स्वप्न।“
”कैसा खौफनाक ख्वाब?“ खिज्र खाँ देवलदेवी को थोड़ा अपने वक्ष के पास लाते हुए बोला।
”वे चार सैनिक थे शहजादे आलम, जो बलपूर्वक हमें आपसे अलग कर रहे थे जब हम अपनी रक्षा के लिए चिल्लाए तो वे बोले यह जिल्लेइलाही का हुक्म है, अब तुझे उनकी लौंडी बनने से कोई नहीं रोक सकता।“ इतना कहकर राजकुमारी खिज्र खाँ के वक्ष में दुबककर सिसकने लगी।
देवलदेवी के केशो को सहलाते हुए खिज्र खाँ बोला ”बेगम, सुल्तानेआला के कहर से तो कोई नहीं बच सकता, पर फिर भी हम कुछ करेंगे। और फिर वह तो एक ख्वाब था।“
यूँ बहुत देर तक राजकुमारी भयभीत होने का स्वांग भरती रही और शहजादा उन्हें तसल्ली देता रहा। अंत में उनको समझाने के प्रयास में खिज्र खाँ बोला, ”आप बेफिक्र रहे बेगम, अगर जरूरत पड़ी तो हम सुल्तान अब्बा के खिलाफ तलवार उठाएँगे, उनसे जंग करेंगे।“ खिज्र खाँ के वक्ष से लगी देवलदेवी के होठों पर आई मुस्कान ने इस घड़ी स्वयं उन्हें ही तृप्त किया था।
तनिक देर बाद राजकुमारी पलटकर खिज्र खाँ के चेहरे को देखकर बोली, ”मेरे पतिदेव, एक धृष्ट ने हमें बचपन में बहुत सताया, हमें उसका सर देखना है।“
”कौन है वह नामाकूल, जिसने ऐसी जुर्रत की? हम उसे भयानक सजा देंगे।“
”मलिका-ए-हिंद (रानी कमलावती) के अंगरक्षकों का सरदार हिजड़ा कंचन सिंह।“
शहजादे खिज्र खाँ ने तुरंत सैनिक बुलाए और उन्हें फौरन कंचनसिंह का सिर काटकर लाने का हुक्म दिया। कुछ देर बाद सैनिक उस हिजड़े कंचनसिंह का सिर लेकर कक्ष में हाजिर हो गए, उससे ताजा गाढ़ा खून टपक रहा था।
देवलदेवी, कंचनसिंह का कटा सिर हिकारत भरी नजर से देखने के बाद, नींद आने का बहाना करके शय्या पर एक तरफ सोने का स्वांग भरने लगी और खिज्र खाँ सैनिकों को पुरस्कार देने लगा।